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े ही शहर में तनाव फैल गया था। अगले दिन शहर बंद करने की घोषणा कि गई थी जिसे लगभग सारे व्यापारिक संगठनों ने अपना समर्थन दिया था। इस बंद के समर्थन में रात को एक मशाल जुलूस शहर के मुख्य बाज़ारों में निकाला गया था। सारे प्रादेशिक चैनलों पर प्रशांत का समाचार रह-रह कर रिपीट हो रहा था। जुलूस को पृष्ठभूमि में रखते हुए इलेक्ट्रानिक मीडिया के रिपोर्टर अपनी रपट बना रहे थे 'पूरा शहर उत्तेजित है, जिस प्रकार से शहर के एक होनहार बालक को दिन दहाड़े अगवा किया गया और जिस प्रकार उसकी नृशंस हत्या कि गई उससे लोग आक्रोशित हैं। पुलिस कोई उत्तर नहीं दे रही है। जिस प्रकार से प्रदेश की राजधानी से मात्र बीस किलोमीटर दूर सर कुचल कर और हाथ काट कर ये जघन्य हत्या कि गई है, उससे प्रदेश में पुलिस और प्रशासन की हालत का पता चल रहा है।' रिपोर्टर अपनी आवाज़ में भावुकता और आक्रोश दोनों घोलने का प्रयास कर रहे थे। 'सवाल ये उठता है कि यदि पुलिस चाहती तो ये हत्या रोक सकती थी। प्रशांत का अपहरण शाम पाँच बजे हुआ और लगभग दस बजे उसकी हत्या कि गई। इस बीच ये पता चल चुका था कि प्रशांत को अगवा करके राजधानी ले जाया गया है। यदि पुलिस एक्टिव हो जाती तो शायद प्रशांत बच जाता। लेकिन पुलिस तो तब एक्टिव होती जब वह यहाँ होती। पुलिस कप्तान से लेकर सारा पुलिस बल तो मुख्यमंत्री के गृह गाँव में चल रही राम कथा में व्ही।आइ.पी ड्यूटी दे रहा था।' एक दूसरा रिपोर्टर ओबी वैन के लाइव में चीख रहा था। 'पुलिस कप्तान से लेकर सारा पुलिस बल तो मुख्यमंत्री के गृह गाँव में चल रही राम कथा में व्ही।आइ.पी ड्यूटी दे रहा था।' इस एक वाक्य को सुनकर राजधानी में बैठे प्रदेश के डीजीपी अपनी कुर्सी पर पहलू बदल कर बैठ गये। इस बदले हुए पहलू की लहर वहाँ से आइजी, फिर डीआइजी और वहाँ से पुलिस कप्तान तक पहुँच गई। अगले दिन सुबह से ही सारा शहर बंद था। बंद इस प्रकार मानो कर्फ़्यू लगा हो। देर रात राम कथा से राजधानी लौटे आइजी और डीआइजी भी सुबह से ज़िला मुख्यालय पहुँच गये थे। दस बजे शहर के नागरिकों का एक विरोध मार्च निकलना था और दोपहर दो बजे महिलाओं का एक जुलूस। पुलिस इन दोनों की तैयारियों में लगी हुई थी। पहला जुलूस कोतवाली जाकर समाप्त हुआ। जहाँ आईजी ने ज्ञापन लेने के बाद लोगों को समझाने की एक असफल कोशिश की। जब जुलूस वापस लौट गया तो इलेक्ट्रानिक चैनलों के रिपोर्टरों ने आईजी को घेर लिया। 'ये फ़िज़ूल की बात है, भला राम कथा का इस घटना से क्या लेना देना?' एक रिपोर्टर के सवाल पर आईजी ने कुछ तीखे स्वर में उत्तर दिया और उतनी ही तीखी नज़र साथ खड़े पुलिस कप्तान पर डाली। पुलिस कप्तान की हवाइयाँ उड़ गईं। दोहपर बाद महिलाओं का जुलूस सीधे कलेक्टर कार्यालय पहुँचा। जुलूस को देखते हुए मेन गेट बंद कर दिया गया था। गेट की सलाखों के उस तरफ़ कलेक्टर महिलाओं से ज्ञापन लेने के लिये खड़े थे। महिलाओं ने गेट के पास खड़े होकर देर तक नारेबाज़ी की। जब ज्ञापन दिया जा रहा था तो एक महिला ने ज्ञापन के साथ कुछ चूड़ियाँ भी रख दीं। 'ये किसलिये?' कलेक्टर ने कुछ मुस्कुराते हुए पूछा। 'पहनने के लिये और किसलिये? शहर से दिन दहाड़े एक बच्चे का अपहरण होता है हत्या होती है और आप सब वहाँ चैन से बैठ कर राम कथा सुनते हैं। हत्यारों को तो आप पकड़ नहीं सकते इसलिये चूड़ियाँ पहनिये और बैठे रहिये चुपचाप।' चूड़ी देने वाली महिला ने तीखे स्वर में उत्तर दिया। महिला के इतना कहते ही वहाँ आई सारी महिलाओं ने हाथों में रखी चूड़ियाँ गेट की सलाखों पर टाँगना शुरू कर दिया। कुछ ही देर में पूरा गेट चूड़ियों से भर गया। महिलाएँ नारेबाज़ी करती हुई लौट रहीं थीं। एक हाथ में ज्ञापन और दूसरे में चूड़ियाँ पकड़े कलेक्टर गहरी निगाहों से उन लौटती हुई महिलाओं को देख रहे थे। 'सर सब कंट्रोल में है।' माथे का पसीना पोंछते हुए आइजी ने अपने मोबाइल पर उत्तर दिया। कलेक्टर ने अपने निवास पर शहर में चल रहे तनाव को लेकर एक विशेष और गोपनीय बैठक बुलाई थी। 'नहीं सर राम कथा को लेकर कहीं कुछ आक्रोश नहीं है वह तो...' आइजी ने कुछ कहना चाहा लेकिन उधर से बात काटी गई। आइजी चुप होकर उधर की बात सुनते रहे। 'जी सर मैं यहीं हूँ, अभी कुछ लोगों को बुलाया है, शाम तक कुछ न कुछ हल निकल आयेगा' हर तरफ़ एक प्रकार का हड़कंप मचा हुआ था। हड़कंप इसलिये नहीं कि दिन दहाड़े एक लड़के का अपहरण हुआ और फिर अत्यंत नृशंस तरीके से उसकी हत्या कर दी गई। हड़कंप इसलिये था कि इन सब के चक्कर में मुख्यमंत्री की रामकथा बदनाम हो रही थी। हड़कंप इसलिये था कि बात घूम फिर के बार-बार वहीं आ रही थी 'पुलिस कप्तान से लेकर सारा पुलिस बल तो मुख्यमंत्री के गृह गाँव में चल रही राम कथा में व्ही।आइ.पी ड्यूटी दे रहा था।' यही एक ऐसी बात थी जिसके चलते इस हत्या और अपहरण वाले मामले में
पुलिस तेज़ी के साथ सक्रिय हो रही थी, इस प्रकार मानो पूरा मामला अब सुलझा कि तब सुलझाा। आज की ये बैठक इसीलिये बुलाई गई थी। इसीलिये, मतलब इसलिये कि इस पूरे मामले से 'राम कथा' को किस प्रकार अलग किया जाये। ऐसा क्या किया जाये कि लोगों का ग़ुस्सा शांत हो सके। बैठक में पुलिस और प्रशासन के केवल कुछ ख़ास अधिकारियों के अलावा एक नेता टाइप के समाजसेवी पत्रकार विनय उपाध्याय भी मौजूद थे। विनय उपाध्याय को इस बैठक में विशेष रूप से बुलाया गया था। पुलिस प्रशासन जब भी इस प्रकार की किसी परेशानी में उलझता था तो उससे बाहर आने के लिये विनय उपाध्याय की ही सेवाएँ ली जाती थीं। वे शहर की नस-नस से वाक़िफ़ थे। उन्हें पता होता था कि ये जो शहर के किसी ख़ास हिस्से में दर्द उठ गया है उसको शांत करने के लिये कौन कौन-सी नसों को दबाना होगा। दर्द की तासीर देख कर ही वे ये सुझाव भी देते थे कि ये जो दर्द उठा है, ये एक्यूप्रेशर से ठीक हो जायेगा या इसके लिये पुलिसिया एक्यूपंचर ही करना होगा। सलाह देकर वे परिदृश्य से हट जाते थे और बाक़ी की काम पुलिस और प्रशासन करता था। टेबल पर रखा कलेक्टर का मोबाइल वाइब्रेट हुआ, डिस्प्ले पर आ रहे नंबर को देख कर कलेक्टर एलर्ट हो गये। कॉल को कनेक्ट करके कान से लगा लिया। बात कुछ देर बाद शुरू हुई। 'जी सर, प्रणाम सर। सर उसी के लिये बैठे हैं।' 'जी सर, पता कर लिया है सर, एक दो अपोज़िशन वाले हैं, वही लोग बार-बार पब्लिक को भड़का कर मामले को उस तरफ़ मोड़ रहे हैं।' 'जी सर बस उन्हीं लोगों का कुछ उपाय निकाल रहे हैं हम।' 'जी सर आज ही हो जायेगा, प्रणाम सर।' मोबाइल को वापस टेबल पर रखने के बाद कलेक्टर ने पास बैठे आइजी की तरफ़ देखा। आइजी ने एसपी को देखकर भवें उचकाईं, एस पी ने विनय उपाध्याय की तरफ़ देखा और गला खँखारते हुए कहा 'क्या विनय जी आपके रहते शहर में इतनी सारी फ़िज़ूल की अफ़वाहें उड़ रहीं हैं। कहीं कोई रोकने टोकने वाला ही नहीं है।' एसपी के इतना कहते ही विनय उपाध्याय कुछ सचेत होकर अपनी कुर्सी पर रीपोज़िशन हुए। वे कुछ कहते उससे पहले ही एसपी की बात का सिरा पकड़ कर आइजी ने कहा 'बार बार रामकथा का मामला उठाया जा रहा है। आपकी तो अपनी पार्टी का मामला है, आप ही कुछ नहीं करेंगे तो कैसे काम चलेगा?' आइजी का अंदाज़ मीठा था। वही अंदाज़ जिसे ठेठ प्रशासनिक अंदाज़ कहा जाता है। जिसके द्वारा चारों तरफ़ से घिर जाने पर प्रशासनिक व्यवस्था किसी जनता के आदमी को ढाल बनाकर खड़ा करती है। जिसे मुहावरे तथा कहावत की भाषा में गधे को बाप बनाना कहा जाता है। 'नहीं होगा सर, बस कल से कुछ नहीं होगा, सारा शहर शांत हो जायेगा। भूल जाएँगे लोग कि कहीं कोई प्रशांत मरा था।' विनय उपाध्याय ने कहा। 'कल से ...?' कलेक्टर ने पूछा। 'जी सर, कल तक का समय तो लगेगा ही।' विनय उपाध्याय ने विनम्रता पूर्वक उत्तर दिया। 'कैसे?' इस बार आइजी ने पूछा। 'देखिये सर इस पूरे मामले को कुछ ऐसा रंग देना पड़ेगा कि लोग इस मामले से ख़ुद ही अपने आप को दूर कर लें।' विनय उपाध्याय ने उत्तर दिया। 'मसलन?' आइजी ने फिर पूछा। 'कुछ ऐसा कि जिसके सामने आने पर प्रशांत का अपहरण, हत्या सब कुछ पीछे रह जाए, जैसे कोई सैक्स स्केंडल।' विनय उपाध्याय ने कहा। 'सैक्स स्केंडल?' कलेक्टर ने आश्चर्य से शब्दों पर थोड़ा ज़ोर देते हुए कहा। 'जी सर, बात तो बिल्कुल सही है। हमको ये बात सुगबुगाहट के रूप में शहर भर मैं फ़ैलाना है कि प्रशांत की हत्या के पीछे बड़ा सैक्स स्केंडल है, जिसे पुलिस ने लगभग ट्रेस कर लिया है। हमें कोई आफ़िशियल स्टेटमेंट नहीं देना है, बस सुगबुगाहट के रूप में बात को फ़ैलाना है और इस प्रकार की बातें तो ख़ुद ब ख़ुद ही फैल जाती हैं।' इस बार उत्तर दिया एसपी ने। शायद सारा प्लान बैठक में आने से पहले ही तैयार कर लिया गया था। 'मगर मामला क्या उछाला जायेगा?' कलेक्टर की भौंहें अभी भी तनी हुईं थीं। 'उसके लिये कुछ ख़ास नहीं करना होगा सर, हमें केवल लोगों को डराना है, ताकि ये लोग डर कर अपने घरों में बैठ जाएँ। कुछ ऐसा कि लड़के के परिवार वाले ख़ुद ही चाहने लगें कि मामला बंद हो जाए।' एसपी ने उत्तर दिया। 'कर लेंगे आप लोग?' आइजी ने पूछा। 'जी सर हो जाएगा।' एसपी ने जवाब दिया। 'लेकिन इस तरह के एकदम सिरे से झूठे मामले को लोग एक्सेप्ट कर लेंगे? कहीं ऐसा न हो कि इससे मामला और बिगड़ जाए।' कलेक्टर ने पूछा। 'नहीं सर, मामला एकदम सिरे से झूठा भी नहीं है। दस परसेंट तो कहीं न कहीं कुछ सचाई है। हमें उस दस परसेंट को ही बढ़ा कर पेश करना है।' बहुत देर बात विनय उपाध्याय ने उत्तर दिया। 'कल तक सब कुछ शांत हो जाएगा? मैं ऊपर कह चुका हूँ।' आइजी ने फिर पूछा। 'हो जाएगा सर, आज रात तक ही काफ़ी कुछ ठंडा हो जाएगा।' एसपी ने कुछ लापरवाही के अंदाज़ में कहा। 'तो ठीक है, अब ये आपकी जवाबदारी
है, मुझे ये बात अलग से कहने की ज़रूरत नहीं है कि मामला गंभीर है।' आइजी ने दोनों हाथ टेबल पर रखते हुए कहा और उठ कर खड़े हो गये। कुछ ही देर बाद विनय उपाध्याय शहर के बीचों बीच स्थित सबसे ज़्यादा चलने वाली पान की दुकान पर अपने तयशुदा स्टूल पर बैठे थे। भाव भंगिमा गंभीर थी। एक अगरबत्ती की काड़ी से दांत कुरेदते हुए शून्य में ताक रहे थे। 'क्या बात है विनय भैया? आज तबीयत कुछ ठीक नहीं है क्या।' पान वाले ने पान बढ़ाते हुए पूछा। 'हमारी तो ठीक है मोहन, लेकिन लगता है अपने इस शहर की तबीयत अब ठीक नहीं है।' पान हाथ में लेते हुए उत्तर दिया विनय उपाध्याय ने। 'हाँ विनय भैया सो तो है। दिन दहाड़े लौंडे को उठा ले गये और फिर इत्ती बुरी तरह से मार डाला, च-च च।' मोहन ने बात का समर्थन किया। 'वो बात तो अपनी जगह है मोहन, लेकिन अब जो मामले का सुराग लग रहा है, वह तो बहुत गंदा है।' विनय उपाध्याय ने पान को एक तरफ़ के गाल में दबाते हुए कहा। 'क्या सुराग़ लग रहा है?' मोहन ने पान पर कत्था लगाते हाथ को रोक कर पूछा। दुकान पर बैठे बाक़ी के लोग भी इस तरफ़ मुख़ातिब हो गये। 'अब क्या बोलें मोहन अपने ही शहर का मामला है। बोलते में भी बुरा लगता है। जब पुलिस ने लड़के के परिवार वालों के सारे मोबाइलों की कॉल डिटेल्स निकलवाई तो एक मोबाइल से एक ख़ास नंबर पर लम्बी-लम्बी कॉल्स मिली हैं। जब उस नंबर को ट्रेस किया गया तो वह घनश्याम का निकला।' विनय उपाध्याय पान को चुगलते हुए बोल रहे थे। 'घनश्याम?' इस बार गुमठी पर बैठे किसी तीसरे ने पूछा। 'अरे वही, जिसकी होजियरी और अंडर गारमेंट्स की दुकान है यहाँ पीछे वाली गली में। वही रंगीला रतन।' विनय उपाध्याय ने उत्तर दिया। 'फिर?' मोहन की उत्सुकता बढ़ चुकी थी। 'फिर क्या, जब घनश्याम के मोबाइल की कॉल डिटेल्स निकलवाई तो इस तरह की कई सारी कॉल्स मिली हैं। लम्बी लम्बी। सब अलग-अलग नंबरों पर की गईं हैं। सारे नंबर महिलाओं के हैं। शहर भर के अच्छे परिवारों के महिलाओं के और कॉल्स भी ऐसी वैसी नहीं हैं, कोई दो घंटे की है तो कोई ढाई की।' बात ख़तम करके विनय उपाध्याय ने इतमीनान से पान थूक दिया। 'अब...?' मोहन ने फिर पूछा। 'अब क्या? पुलिस घनश्याम को उठवाने वाली है पूछताछ के लिये। मैंने तो मना किया था एसपी साहब को कि मामले को रफा दफा कर दो। बिला वज़ह भले घर की महिलाओं पर बात आयेगी। मगर पुलिस किसी की सुनती है कभी? कहने लगे शहर में इतना तनाव है, लोग प्रदर्शन कर रहे हैं, अब हमें भी तो कुछ न कुछ करना ही होगा ना।' विनय उपाध्याय के स्वर में चिंता घुली हुई थी। 'मगर भैया जी घनश्याम में ऐसा क्या है कि ...?' मोहन ने अधूरी बात इस अंदाज़ में छोड़ दी कि आगे का तो समझने लायक है ही। 'क्यों ...? क्या नहीं है? गोरा चिट्टा है, ऊँचा पूरा है और उस पर होजियरी और लेडीज़ अंडर गारमेंट्स की दुकान चलाता है और क्या चाहिए?' विनय उपाध्याय ने तीखे स्वर में कहा। 'सो तो है।' मोहन को लगा कि प्रश्न ग़लत हो गया। 'मैंने तो अपनी तरफ़ से ख़ूब कोशिश की रोकने की, लेकिन क्या करो, अब शहर की क़िस्मत में बदनामी का ठीकरा फूटना लिखा है, तो उसे कौन रोक सकता है।' एक ठंडी सांस छोड़ कर कहा विनय उपाध्याय ने। 'प्रशांत के परिवार में भी?' मोहन की उत्सुकता बरकरार थी। 'वहीं से तो सुराग मिला है पुलिस को। दो-दो घंटे की कॉल्स मिली हैं।' विनय उपाध्याय ने उत्तर दिया। 'उनसे भी होगी पूछताछ?' मोहन पूरी कहानी जान लेना चाह रहा था। 'अब महिलाओं को थाने में बुलाकर तो होगी नहीं पूछताछ। फिर भी घर जाकर तो पुलिस पूछेगी ही। देखो अब क्या होता है। मेरा तो दिमाग़ ही काम नहीं कर रहा है। पुलिस ने नाम नहीं बताये हैं अभी, उससे और टैंशन हो रहा है। पता नहीं कौन-कौन से घरों का नाम उलझता है इस मामले में। जो हो रहा है अच्छा नहीं हो रहा है।' कहते हुए विनय उपाध्याय उठ गये। 'कलजुग है विनय भैया। ख़सम से पूरा नहीं पड़े तो बाहर मुँह मार लो। कौन है रोकने टोकने वाला और अब तो ये मोबाइल।' मोहन की बात अधूरी ही छोड़ कर विनय उपाध्याय दुकान से बढ़ गये। शाम के बढ़ कर रात होने तक ये चर्चा पूरे शहर में फैल चुकी थी कि प्रशांत हत्याकांड वाले मामले में अपहरण-वपहरण का कोई मामला नहीं है। अपहरण और फिरौती का नाटक तो केवल मामले को उलझाने के लिये रचा गया है। हक़ीक़त में तो ये सीधा-सीधा हत्या का मामला है। प्रशांत को किसी बारे में कुछ ऐसा पता चल गया था कि उसे मार दिया गया। इस चर्चा के फैलने के साथ वह पुछल्ला भी फैल रहा था कि इस मामले की आँच में शहर के कई सारे संभ्रांत परिवार भी आ रहे हैं। ये जो पुछल्ला था ये जहाँ-जहाँ से गुज़र रहा था वहाँ-वहाँ 'प्रशांत अपहरण और हत्या' के कारण पुलिस और प्रशासन के ख़िलाफ़ उपजे आक्रोश को शांत करता जा रहा था। उस कोल्ड ड्रिंक के विज्ञापन की तरह जिसमें
कहा जाता है 'डर सबको लगता है, ...ती सबकी है।' और फिर रात को जब एक पुलिस कांस्टेबल घनश्याम को अपने साथ मोटर साइकिल पर बिठा कर शहर के प्रमुख मार्गों का फ़िज़ूल में ही चक्कर लगाता हुआ कोतवाली की तरफ़ गया तो मानो सुगबुगाती-सी चर्चा में बारूदी पंख लग गये। अभी तक जो चर्चा दबे छुपे अंदाज़ में हो रही थी, वह अब खुल कर चौराहे-चौराहे होने लगी। देर रात तक शहर के चौराहे जागते रहे और एक ही बात करते रहे 'होजियरी वाला घनश्याम'। बात की बात में शहर की चर्चा का रुख़ पलट चुका था? सुब्ह तक जो शहर प्रशांत की हत्या, पुलिस का निकम्मापन, रामकथा और आंदोलन जैसे विषयों पर मुट्ठी भींच-भींच कर चर्चा कर रहा था, शाम होने तक वही शहर 'घनश्याम के जाल में कौन कौन?' पर रस ले लेकर बतिया रहा था। कुछ लोगों ने बाक़ायदा अपने तरफ़ से सूची बनाकर भी प्रस्तुत कर दी थी कि घनश्याम के चक्कर में कौन-कौन से परिवार आये हैं। सुब्ह का आक्रोश रात तक रस में परिवर्तित हो चुका था। अगली सुब्ह पुलिस और प्रशासन के लिये एक ख़ुशनुमा सुब्ह थी। वे लोग जो कल तक प्रशांत हत्याकांड को लेकर चल रहे आंदोलनों की अगुवाई कर रहे थे, उनमें से अधिकाँश के परिवारों की तरफ़ घनश्याम कांड की सूई घूम रही थी। सो वे सारे अब बड़े इतमिनान से अपने-अपने काम धंधे में लगे हुए थे। दोपहर होने तक दबी ज़ुबान, फुसफुसाहट और कानाफूसियों में पूरा शहर एक ही बात कर रहा था 'इसका भी नाम आया है, उसका भी नाम आया है।' बाक़ायदा दावे प्रस्तुत किये जा रहे थे। 'वो तो बिल्कुल तय ही है, देखते नहीं हो घंटे-घंटे भर घनश्याम की दुकान पर खड़ी रहती थी और उसके तो घर भी घनश्याम का खुल्ला आना जाना है।' उधर जो परिवार घनश्याम कांड के घेरे में आ रहे थे वे अपने तौर पर मामले की अंदर ही अंदर पड़ताल भी कर रहे थे। अधिकांश गोपनीय तरीके से विनय उपाध्याय से संपर्क कर चुके थे। विनय उपाध्याय सबको एक ही आश्वासन दे रहे थे 'नहीं नहीं कुछ नहीं है ऐसा और अगर कुछ होगा तो मैं तो हूँ। आपका परिवार मेरा परिवार है। कोई नाम सामने नहीं आयेगा। बस आप ज़रा ये प्रशांत वाले मामले से दूर रहो। क्या है पुलिस बड़ी कुत्ती चीज़ होती है। फिर वह मेरी भी नहीं सुनेंगे और अगर ईश्वर न करे घर की महिलाओं से पूछताछ हो गयी तो इज़्ज़त का तो पंचनामा बन जायेगा, फिर बचेगा ही क्या। आप तो अपना काम संभालो, आपको क्या लेना देना, हत्या, अपहरण, पुलिस से? उसके लिये हम हैं ना।' एक लम्बी-सी बात जिसमें आश्वासन, दिलासा, धमकी, सलाह सब कुछ इतनी सफ़ाई के साथ मिलाया जा रहा था कि सुनने वाले को लग ही नहीं रहा था कि इसमें क्या-क्या है। आख़िर में एक फाइनल चोट के रूप में 'हम परिवार वाले हैं, हमें दस ऊँच नीच का ध्यान रखना चाहिये।' कह कर विनय उपाध्याय पूरे आंदोलन को ठंडा कर देते थे। यूँ तो हत्याकांड के बाद से ही पुलिस प्रशांत के घर के दिन भर में कई-कई चक्कर काट रही थी, लेकिन आज जब एडीशनल एसपी के साथ पुलिस अमला प्रशांत के घर पहुँचा तो लोगों की उत्सुकता अचानक बढ़ गई। क्यों आई है अचानक पुलिस? उसी मामले में पूछताछ करने आये हैं। लगता है घनश्याम ने सारा कच्चा चिट्ठा खोल दिया है। क्या कोई गिरफ़्तारी होने वाली है। राम-राम कैसा बुरा समय आया है परिवार पर, एक तो जवान जहान लड़का चला गया और उस पर ये कलंक। इस प्रकार की फुसफुसाहटें हवा मैं तैर रहीं थीं। क़रीब घंटे भर तक पुलिस का अमला प्रशांत के घर रहा। इसी बीच विनय उपाध्याय भी वहाँ पहुँचे। एडीशनल एसपी और विनय उपाध्याय ने प्रशांत के पिता और दादा के साथ काफ़ी देर तक बंद कमरे में चर्चा की। बाहर तमाशबीन 'कुछ होने' की प्रतीक्षा में समूहों में खड़े थे। घंटे भर बाद पुलिस का अमला बाहर निकला और गाड़ी में सवार होकर रवाना हो गया। क़रीब पन्द्रह मिनिट बाद विनय उपाध्याय भी एक काग़ज़ लिये निकले और रवाना हो गये। कुछ ही देर बाद एक प्रेस विज्ञप्ति प्रशांत के दादा कि ओर से शहर के सभी अख़बारों के ऑफिसों में बँट चुकी थी। विज्ञप्ति में लिखा था कि दुख की इस घड़ी में पूरे शहर ने जिस प्रकार परिवार का साथ दिया उसके लिये परिवार आभारी है। साथ ही ये अपील भी की थी कि शहर के लोग शांति बनाए रखें। पुलिस हत्यारों को खोजने के लिये हर संभव प्रयास कर रही है। लोगों के बार-बार विरोध प्रदर्शन करने से पुलिस का काम प्रभावित हो रहा है। पुलिस को अपना काम करने दें, हमें पुलिस पर पूरा विश्वास है कि वह जल्द ही हत्यारों को पकड़ लेगी। धैर्य बनाये रखें। विज्ञप्ति के छपने और सुब्ह का अख़बार बँटने के बाद सारा मामला समाप्त हो चुका था। आक्रोश जो पिछले दो दिन से ही चौराहे हर गली में उफन कर दिख रहा था, वह झााग की तरह बैठ चुका था। 'प्राब्लम सॉल्व हो गई सर।' पप्पू पास हो गया वाले अंदाज़ में आइजी ने मोबाइल पर सूचना दी। ये वही सूचना थी जो था
ना प्रभारी से एडीशनल एसपी, वहाँ से एसपी और वहाँ से डीआइजी के द्वारा आइजी तक पहुँची थी और अब आइजी से सीधे सीएम तक पहुँच रही थी, बीच के एडीजीपी, डीजीपी वग़ैरह को छोड़ते हुए। 'नहीं सर हत्यारे नहीं पकड़ाये हैं। लेकिन मामले को लेकर जो कुछ भी ऊलजुलूल बातें हो रहीं थीं वह ख़त्म हो गईं हैं। लोग अब आंदोलन या प्रदर्शन नहीं करने को लेकर राज़ी हो गये हैं। हत्यारों को लेकर भी टीम लगी है, लेकिन हमारी प्राथमिकता तो यही थी सर कि ये रामकथा को लेकर जो कुछ चल रहा है वह जल्द से जल्द बंद हो जाये।' आइजी को पूरे मार्क्स आज ही लेने थे। 'जी सर हत्यारे भी पकड़ में आ जाएँगे।' 'जी सर, जी सर, जी सर।' 'सर मैंने एस पी को कह दिया है कि आज राम कथा का समापन है सो ।' राम कथा का समापन हो रहा था। कथा वाचक आज राम के राज्याभिषेक के साथ समापन कर रहे थे। हालाँकि राज्याभिषेक के बाद सीता का दूसरा वनवास और धरती में समाने की घटनाएँ भी होती हैं, लेकिन वह कहानी के हैप्पी एंडिंग में ख़लल डालती हैं। तो कथा वाचक इसीलिये राज्याभिषेक पर ही समापन कर रहे थे। 'यही है राम राज्य' 'यही है राम राज्य' 'यही है राम राज्य'। तिलखिरिया में देर रात तेज़ बारिश हुई। बारिश जो धोती रही, घोलती रही उस ख़ून को, जो वहाँ घांस पर, पत्तों पर, ज़मीन पर बिखरा था। ख़ून जो सूख चुका था। बारिश उसको घोलकर बहाती रही उस नाले की तरफ़ जो खेत से सटकर बहता था। नाला, जो आगे जाकर उस नदी में मिलता था जो ज़िला मुख्यालय से होती हुई बहती थी और आगे जाकर चंबल में गिरती थी। वही चंबल जो गंगा में मिलती है और वही गंगा जो सागर में जाकर समाप्त होती है। रात भर बारिश ख़ून को बहाती रही नाले की तरफ। जब सुब्ह हुई तो बरसात थम चुकी थी। सूरज निकल चुका था। धुली-धुली धूप में चमक रहे थे कंकड़, पत्थर, तिनके, घांस और मिट्टी, ख़ून का कहीं कोई निशान नहीं था। पूरी रात का सफ़र करता हुआ, नाले से नदी और नदी के साथ ज़िला मुख्यालय पहुँचा ख़ून अल सुबह ज़िला मुख्यालय से होकर बह रहा था। जब ये ख़ून वहाँ से होकर बहा तब शहर पूरी तरह शांत और ठंडा था, लाश की तरह ठंडा और मौत की तरह शांत।
আহ! তোমরা হলে সেই সর্বশেষ অনন্যসাধারণ বসতি যারা ব্ল্যাক ড্রাগনের পতাকাতলে আসেনি। নিরাপদ রাখতেই এসেছে। আনুগত্য স্বীকার করতে হবে সাথে সামান্য কর দিতে হবে। তোমাদের দ্বিধাটা দেখতে পাচ্ছি আমি। তার সাথে পরিচয় করিয়ে দেই। ব্ল্যাক ড্রাগনের দলপতি। ওয়েস্টল্যান্ডের অধিপতি। সবাই কুর্নিশ করো... কিং ক্যানো। হুজুর ভালো কাজ দেখিয়েছো, শ্যাং সুং। দু'জনকে নিয়ে যাচ্ছ না কেন? ধন্যবাদ মহারাজ। শুভদিন, ভাইসব। একটা ছোট্ট গল্প শোনালে কেমন হয়? স্থূল, বিরক্ত ও উদ্দেশ্যহীন হয়ে। ছোট্ট এককোণে পালিয়ে এলে। কিন্তু রেভেন্যান্টরা হানা দিতেই থাকলো। এখন, তোমাদের সম্পদ অপ্রতুল। মৃত্যুর ভয়ে দিশেহারা তোমরা। কিন্তু আমার পতাকাতলে তোমরা আবারো উদ্দেশ্য খুঁজে পাবে। তোমাদের নিরামিষ জীবন তার মানে খুঁজে পাবে। চিরতরে ওয়েস্টল্যান্ড দখলে নেবার সময় হয়েছে। তোমাদের কেবল বাকিটা আমি সামলে নেবো। এইতো লক্ষ্মী জনগণ। ব্ল্যাক ড্রাগনে স্বাগতম! কুদরতে জাহান জিনিয়া, তাহমিদ শাহরিয়ার সাদমান। হাহ? গুড রেটিং দিতে ভুলবেন না। না! ভাই, না! হেই, বুড়ো। কোথায় যাচ্ছ? এখানে বহুমাইল জুড়ে তো কিছুই নেই। হাহ? হেই। কোবরা, কাবাল, দেখো। সব তরতাজা। এসব কোথায় পেয়েছ, হাহ? তুই বয়রা নাকি? তোর সাথে কথা বলছি। তোকে খুন করবো আমি। না, আমাকে বুঝিয়ে বলতে দাও। আমরা তোমার ক্ষতি করতে চাই না, মুরুব্বি। আর কোথায় নিয়ে যাচ্ছ। তাহলেই তোমাকে ছেড়ে দেবো। বেশ। তোমার যা মর্জি। এখনো বেশি দেরি হয়নি। কোথায় যাচ্ছিলে তুমি? কোন ধরনের কাপুরুষ মারের জবাব দেয় না? যা ইচ্ছে নিয়ে নাও। সে কোথাও যাচ্ছিলো। আর জায়গাটা খুঁজে বের করতে চাই আমি। চলো, রাত হয়ে যাচ্ছে। এখনই না। ওই বুড়োটা কোথাও যাচ্ছিলো। হয়তো লোকটা পাগল। মরুভূমিতে থাকলে এরকম হয়। তোমার তো জানার কথা। কিং ক্যানো'র ধমক শোনার আগেই ফিরে চলো। যখন মন চাইবে তখন ফিরে যাবো। কিং ক্যানো মরুক গে! সাবধানে কথা বলো, কাবাল। সে অন্যধাতুতে গড়া। খুব খারাপ, খুব শক্তিশালী কিছুর। কথাটা মনে রাখলেই ভালো করবে। দেখো দেখি কারবার? মার দিয়া কেল্লা। অবস্থা দেখো সবার। আমরা কারা কোনো ধারণাই নেই তাদের। খাবার, বিদ্যুৎ, হ্যাঁ। ক্যানো খুশিতে গদগদ করবে। যদি তাকে বলি আরকি। হেই, ওটার জন্য পয়সা জানো, এটা আমাদের সুযোগ হতে পারে। এই ব্যাপারে তো আগেও কথা বলেছি। তাছাড়া দেখো দারুণভাবে লুকানো, খাবারে পরিপূর্ণ। শহরে যে আবর্জনা খাই তারচেয়ে বহুত ভালো। আমাদের দখল নিতে দেবে। এছাড়া আর কী করবে ওরা? ভাবছ এখানকার কেউ রুখে দাঁড়াবে? একজনকে চিনি যে দাঁড়াতেও পারে। উহ, মনে হচ্ছে এক নায়ককে পেয়ে গেছি। আমি ব্যস একজন প্রতিদ্বন্দী খুঁজছি। তোমাদের দিয়েই কাজ চালাতে হবে। আমাকে কেলাতে চাইছে। আমি তোমাকে কেলাতে চাই না। তোমাদের তিনজনকেই কেলাতে চাই আমি। কোবরা, শালাকে সাইজ করো। সানন্দে। তোকে এর মূল্য দিতে হবে। তোকে খুন করবো আমি! মস্তবড় ভুল করে ফেললি তুই। এটাই শেষ ভুল হবে না। আমি হলে বড়াই করতাম না। কী করেছ তা বুঝতে পারছ? শুনুন, আপনাদের সাহায্য করতে একাজ করিনি। একজন যোগ্য প্রতিদ্বন্দী এনে দেবে আমাকে। না। ওদেরকে চেনো না তুমি? ওরা হচ্ছে ব্ল্যাক ড্রাগনের সদস্য। ওয়েস্টল্যান্ডের সবচেয়ে দুর্ধর্ষ ডাকাতদল। আমরা কেউই রেহাই পাবো না। ফিরে আসবে? হুম। হয়তো কিছুদিন থেকে যাবো এখানে। কী করছো? ফাজলামো বন্ধ করো। দেখো অবস্থা। এবার তোমাকে বাগে পেয়ে গেছে। মারো! না, সে আহত। আমি তাকে খুন ধন্যবাদ, কিং ক্যানো। আহা, মরে গেল। যাক, মজাই লাগলো। ওহ, বাচ্চুরা ফিরে এসেছে। পাজির দলেরা কোথায় ছিলে? আমরা আরেকটা বসতি পেয়েছি। দারুণ সুরক্ষিত ছিল শহরটা। আমরা ফিরে ওদের মোকাবেলা করবো। সবকয়টাকে মেরে ফেলবো। আমাদের খামোশ! ট্রেমার। ওখান থেকে ঘুরে আসছো না কেন? রক্ষীদের ভীতুর ডিম বানিয়ে ছাড়লো। জি, কিং ক্যানো। শ্যাং সুং? তুমি আবার কোথায় হাওয়া হলে? বু! হুজুর, আপনার পানীয় রেখে যাচ্ছিলাম আমি। জানি পুরো এক বোতল খেতে পছন্দ করেন আপনি। হ্যাঁ। হ্যাঁ, বটে। আহ। ওহ, দুঃখিত। যদি আর কোনো আমার হয়ে একটা কাজ করে দাও। হুকুম করুন। ট্রেমার'কে অনুসরণ করো। এক ছোট্ট শহরে যাচ্ছে সে। হুজুর, এখানে তো অনেক কাজ। আমি মহারাজ যা বলবেন তাই করবো। হ্যাঁ? হ্যাঁ। অনেকদিন ধরেই দল ছাড়ার পরিকল্পনা করছে। লোকদের কীভাবে দেখি তাতো জানোই? জি, মহারাজ। হ্যাঁ। যাও। যা দেখবে তা সত্যি করে আমাকে জানাবে। আপনার যা মর্জি। আর বেশিদিন নেই। আহ! কুয়েই, তোমাকে তো গতকাল দেখলাম না। কাজে আটকে পড়েছিলাম। আবারও তোমার কথা জিজ্ঞেস করছিল। আমি বলেছি তুমি হিজড়া। দুঃখজনকভাবে তাতেও দমেছে বলে মনে হয় না। ভদ্রমহিলাগণ অসম্ভব। ভালোই ফসল নিয়ে এসেছেন দেখছি। এতো ফল কখনো ফলতে দেখিনি। এরজন্য প্রচুর পানির প্রয়োজন, অথবা বেশিকিছু শিখিয়েছে আপনাকে, হাহ? আপনার ট্যাটুটা দেখেছি। লোকে যা বলে তা কি সত্য? যে লিন কুয়েই দুনিয়ার সবচেয়ে ভয়ঙ্কর যোদ্ধা ছিল? এমন গল্প কখনো শুনিনি। দুঃখিত। এই ছোকরা কি তোমাকে বিরক্ত
করছে? না। না, না, না। ভুল হয়ে গেছে। তাকে অন্যকেউ ভেবেছিলাম। কখনো শোনেননি, হাহ? কুয়েই, তুমি কি চাও আমি কী চাও তুমি? আমি কী চাই? দুনিয়ার সর্বশ্রেষ্ঠ যোদ্ধা হতে চাই। যা জানেন তা সব আমাকে শেখান। নিজেদের শ্রেষ্ঠ প্রমাণ করতে চায় তারা কেবল একটা জিনিসই জানে। আচ্ছা, সেটা কী? তারা কিছুই জানে না। আপনাকে পয়সা দেবো। অনেক কামিয়েছি আমি, আর তোমার টাকা চাই না আমি। আমি ব্যস শান্তিতে একা থাকতে চাই। শান্তি? শাসন করলেই কেবল শান্তি আসবে। আরো দোস্ত নিয়ে এসেছো। দক্ষ লোকের খোঁজে থাকেন ব্ল্যাক ড্রাগনে ভেড়ানোর জন্যে। তো কী বলো? দাদাদের সাথে হুকুমত চালাতে চাও? কুকুর ছানার মতোই বেশি লাগে। অন্য পথ সবসময়ই খোলা থাকে। আমার আগের কথাবার্তায় ফিরে যাওয়ার? হাঁটু গেড়ে বসে ক্ষমা চাইবার। বেরোও এখান থেকে! তোমাদের লোকদের চাই না ব্ল্যাক ড্রাগন হচ্ছে চোর আর কাপুরুষদের দল। আমাকে বাধ্য করাতে হবে। তাকাহাশি? এখানে না। সামনে থেকে সরে যাও, বুড়ো। এটা লড়াইয়ের ময়দান নয়। সব জায়গাই লড়াইয়ের ময়দান। আমরা চলে যাবো কথা দিচ্ছি। আমার সামনে কেউ হাঁটু গেড়ে বসার পরপরই। হা! এসো, কুয়েই। তোমাকে সাহায্য করি। বুড়োদের সাথে লেগে মজা পাস? আমার সাথে লাগলে কেমন হয়? লাগলে কিছু মনে করিস না। অনেক হয়েছে! ভর্তা বানাও! হ্যাঁ! এতেই শিক্ষা হবে। আমার কাছে ক্ষমা চাইবার কথা তোর। হুম। তোর যা মর্জি। এটা একটা শিক্ষা হয়ে থাকুক। সামনে দাঁড়ানোর মুরোদ কারোরই নেই। আর তোমরা তাকে কুর্নিশ করবে। তোমাদের পরিণতিও তাই হবে। ট্রেমার! প্লিজ, আমাকে সাহায্য করতে দাও। ধন্য... ধন্যবাদ। সং। আমার নাম সং। সাহায্যের জন্য ধন্যবাদ, সং। ওখানে। বসো। তোমার অবস্থানে ছিলাম। তুমি একজন অসাধারণ যোদ্ধা। তাদের সামনে সবাই নস্যি। যদিনা যদিনা কী? ব্যাপারটা বড্ডো বিপজ্জনক। কথাটা ভুলে যাও প্লিজ, কী? একটা তলোয়ার আছে। লোকে বলে ওটার অবিশ্বাস্য শক্তি আছে। যার সাথে লড়েছো তার চাইতেও বেশি শক্তি। কিং ক্যানো'র চাইতেও বেশি শক্তি। আমাকে নিয়ে চলুন। চ্যাম্পিয়ন হবার কপাল আমার কখনোই হবে না। যদি ওরকম অস্ত্রের কথা জেনে থাকেন তলোয়ার। হ্যাঁ। তলোয়ার। প্লিজ। আমাকে সাহায্য করুন। অবশ্যই তোমাকে সাহায্য করবো আমি। এসো। আমি সব ব্যবস্থা করবো। আর তারপর, তুমি তোমার পাওয়ার পাবে। সাথে তোমার প্রতিশোধও। ওই যে। ওখানে। ওই যে। ওখানে। এই এই চিহ্নগুলো এই ভাষাটা আমি পড়তে পারছি। এটা আমার পূর্বপুরুষেরা বানিয়েছিলেন। এটা আমার নিয়তি। ধ্যাত্তেরি! এটা খুলছে না। ব্লাড ম্যাজিক। এই নাও। কী করছেন? সীলে তোমার হাত রাখো। কী দেখতে পাচ্ছো? কিছুই না। একদম খালি। না, না, দাঁড়ান। একটা আলো দেখা যাচ্ছে। এটা... এটা উজ্জ্বল হচ্ছে। হ্যাঁ। হ্যাঁ, অবশেষে। সং, সং! আমার চোখ! সং, সাহায্য করুন! সং। না। আমার নাম ...শ্যাং সুং। শ্যাং সুং। আমি জানি নামটা। জগতসমূহের মধ্যে সর্বশক্তিশালী। ক্যানোর আগে। নিজের অধিকার ছিনিয়ে নেবো। তোমার আত্মাগুলো আমার। ইয়েস! এই শক্তি। এই শক্তি! ক্যানো এবার বুঝবে দাসত্বের মজা। সবাই বুঝবে। আর তুমি, কেনশি। তোমাকে কী করতে পারি? আমায়... মেরে ফেলো। আমি এভাবে বাঁচতে তোমার যা ইচ্ছা। কেনশি। কে কী... কী তোমার পরিচয়? সেন্টো। আমি তোমারই। আমায় তোলো আর দেখো। অসম্ভব। ওঠো। ওঠো। একজন... জাদুকর। সেন্টো। আমি... দেখতে পাচ্ছি। আমি দেখতে পাচ্ছি। ইয়াহ! কোন সাহসে এলে? দাঁড়াও। শ্যাং সুং। আমি উপায় খুঁজতে গিয়েছিলাম। ওহ। আত্মাকূপটা খুঁজে পেয়েছ তাহলে। বিস্মিত হয়েছ? এসো এবার। পাঠিয়েছিলাম বলে ভাবো? এমন লড়াই আগেও করেছি। চ্যালেঞ্জের মুখে ফেলবে। চ্যলেঞ্জ দেখতে চাও? বেশ। না! ওহ, স্যরি বন্ধু। ছিলো না তোমার। হাহ, খারাপ না। একটু একটু করে বাড়ছে। বাজে বকার সময় শেষ। তোমার আত্মা আমার। আহহ! ওহ! আহ, ওহ, আহ, আহ! অসম্ভব। তোমার আত্মা আহা বন্ধু। আমি ওসবের উর্ধ্বে। ভিন্ন কিছু করবে। সেটা হবে তুমি। কিন্তু না। আবারও আগের মতোই। তুমি। তুমি সেই আগের কর্তৃত্ববাজ, অসভ্য জাদুকর সে অন্যদের অবমূল্যায়ন করে। তুমি আমাকে হারাতে পারবে না! কেউ পারবে না। আমি এই জগত বানিয়েছি। আর আমি এটাকে আরও বহুবার বানাবো। পরবর্তী বারের জন্য শুভকামনা। কেউই হারাতে পারেনা ক্যানোকে। কেউ না! ক্যানো! ক্যানো! ক্যানো! না, না শ্যাং সুং আআমার চোখ। থামো! ওঠো! সুস্থির হয়ে বসো। কোথায়... কোথায় আমি? আমার ঘরে। এই নাও। পান করো। ধীরেসুস্থে। আরও আছে। ধন্যবাদ। আআপনি যেই হোন না কেন। আমার নাম কুয়াই লিয়াং। যেমনটা বাজারে করেছিলে। কুয়াই... লিন কুয়েই। আমি দুঃখিত পূর্বের আচরণের জন্য। সাহায্য করায় ধন্যবাদ। আমি সাহায্য করছি না। মৃতেরা ছুটে আসতো। এখানে বিশ্রাম নিতে পারো। কিন্তু তারপর, চলে যাবে। তাহলে আর দেরি কেন? একটা তরবারি নিয়ে এসেছিলাম। কোথায় সেটা? তুমি এখনো যথেষ্ট সবল নও। চাইলে না। আপনাকে কষ্ট দিতে চাই না। সাবধানে। সামনে একটা টেবিল। আমার তরবারি! এটা মূল্যহীন। সবকিছুই। এখন থেকে। আমার পূর্বের চেয়ে অনেক অক্ষম।
শ্রেষ্ঠ যোদ্ধা হতে চাচ্ছিলে। এমনটাই বলেছিলে না? সেটা আগের কথা। তখন তুমি ছিলে অন্ধ। তখন, আমি আক্রান্ত হয়েছিলাম। শ্যাং সুংএর চালের শিকার হয়েছিলাম। কি অর্থহীন হয়ে পড়েছ? তাহলে কথাটাই সত্যি। তুমি কিছু জানো না। বাচ্চা রয়ে গেছো। তোমাকে দাফন করতে পারি। সে আমার সম্মান কেড়ে নিয়েছে। অনেক কিছু আছে। যেমন? বেঁচে থাকা। টিকে থাকা। কোথায় যাচ্ছেন? ভেতরে। চাইলে আসতে পারো। ব্যবহার শেখাবো। বের করতে পারি। না, তোমাকে শুধু বাঁচতে শেখাবো। মরতে নয়। বুঝতে পেরেছ? এখন বিশ্রাম নাও। আগামীকাল, প্রশিক্ষণ চলবে। মুরগিটাকে ধরো। কীভাবে ধরবো আহ! কথা না বলার মাধ্যমে। শোনো। বাতাসের শব্দ শোনো। শোনো শস্যের মর্মরধ্বনি। হ্যাঁ। ওগুলোর প্রয়োজন নেই। একমাত্র যেটার প্রয়োজন সেটা হচ্ছে এই মুরগি। দেয়ালে ওটা কী? দ্যুতি ছড়াচ্ছে। এটা শক্তিশালী। একটা অঙ্গীকার। মাধ্যমে তুমি দেখতে পাও। কীভাবে জানলেন করে এসেছি আমি। এটার নাম সেন্টো। এটা, আমার সাথে কথা বলে। ফিসফিস করে। কোনো রকম। ব্যাখ্যা করো। কঠিন কিছুটা। অবয়বটা দেখতে পাবেন। কিন্তু কিছু একটা আছে। এটাই সেই... কিছু একটা। হ্যাঁ, মনে হচ্ছে আমি হেই, স্যুপটাতে কী দিয়েছেন? ঘুমের ঔষধ। নাকের ব্যবহার করতে পারতে। না! ভাই, না! ভাই? আমি তোমার ভাই নই। আমিই তুমি। না! হ্যাঁ। কুয়াই। কুয়েই! কুয়াই। কুয়েই! তুমি নিশ্চয়ই স্বপ্ন দেখছ। আমি ভাবলাম হয়তো উঠে পড়েছ। ভালো। আমার সাথে এসো। প্রস্তুত? না! আমি কী করছি আসলে? আমি তরমুজটা ফেলে দেবো। ছুরিটাকে ডাক দেবে তুমি। আর এটা যদি কাজ না করে? চেষ্টা করেই দেখা যাক, নাকি? ভালোমতো চেষ্টা করে দেখা যাক। শেষ করে ফেলো। এতে কাজ হচ্ছে না। তোমার নিজের ওপরে বিশ্বাস নেই। নিজের ওপর বিশ্বাস? বিশ্বাস করার মতো তো কিছু নেই আমার মাঝে। একসময়ে আমি একজন মহান যোদ্ধা ছিলাম। কেউ আমাকে হারাতে পারত না, কেউ না। অন্তত এটুকু সম্পদ ছিল আমার। আর এখন যে সারাদিন মুরগি তাড়া করে ফেরে। আর এরকমই থাকবে তুমি সবসময়ে। এজন্যই তুমি ব্যর্থ হচ্ছ। তোমাকে প্রশিক্ষণ দিতে কেন রাজি হয়েছি জানো? আমাকে করুণা করে। না। কারণ তোমার জায়গায় আমিও ছিলাম একদিন। নিজেকে এত নিচু মনে হত যে মৃত্যু কামনা করতাম। আশেপাশের পরিস্থিতিকে দায়ী করে। আসল পুরুষেরা নিজের পরিস্থিতিকে বদলায়। ঐ কাঠের টুকরোটাকে তুলে নাও। আমি পারব না। তোলো। ঠিক ভঙ্গীতে দাঁড়াও। ঠিক ভঙ্গীতে দাঁড়াও! এখনই সব শেষ করে দেবো। আমার পায়ের শব্দ শোনো। আমার ঘ্রাণ শোঁখো। তোমার আশেপাশের বাতাসকে অনুভব করো। বেশি আওয়াজ করছি না? ভিনেগারের থেকেও বাজে গন্ধ আসছে না? তুমি কী হতে পারো, তা নিয়ে ভাবো। বিষাক্ত কথা আর হয় না। তুমি বিশ্বাস রাখলেই পারবে। হাত মেলালেও তুমি পারবে। তুমি পারবে। বুঝেছ? না। তুমি এটায় বিষ মিশিয়েছ। না, কিন্তু এটা বিষের চেয়েও খারাপ খেতে। ঘরে বানানো। তোমাকে একটা কথা জিজ্ঞেস করব। তোমার নড়াচড়া দেখেছি আমি। তোমার...শক্তিমত্তা দেখেছি। তাহলে তুমি কেন ব্ল্যাক ড্রাগনের সামনে হাঁটু গেড়ে বসো? হ্যাঁ। তুমি হলে লিন কুয়েই। তুমি চাইলে আমি লিন কুয়েই ছিলাম। অনেকদিন আগে, ওয়েস্টল্যান্ডের আগে এই সবকিছুর আগে এবং সম্মানিত যোদ্ধাদের একদম হয়ে উঠেছিলাম। তারপর এলো রেভেন্যান্টেরা। ওরা ছেয়ে ফেলল গোটা শহর, গোটা দেশ। অনেকে ভেবেছিল এসব করে কোনো লাভ নেই। কিন্তু আমার গর্ব টিকে ছিল। লিন কুয়েইকে হারাবে ওরা, ভাবিনি। রেভেন্যান্টমুক্ত করার চেষ্টা করছিলাম। কিন্তু ওরা সবখানে ছড়িয়ে ছিল। এক মৌচাক মৌমাছির মতো। আমি জানতাম আমরা মারা পড়ব। কিন্তু আমি ভেবেছিলাম ক্রায়োম্যান্সি কী, জানো? না। এক ধরনের ক্ষমতা। এটা আমার এক ধরনের ক্ষমতা। এক বরফ ঝড়কে ডেকে আনলাম আমি। কিন্তু আমি নিয়ন্ত্রণ হারিয়ে ফেলেছিলাম। স্বপ্নগুলো। আমার পক্ষে সম্ভব না। আমি ভুল ভেবেছিলাম। ঝড়টা শহরটাকে ছিন্নভিন্ন করে দিলো। রেভেন্যান্টেরা মরল। নিরীহ মানুষেরা মরল। আমার গোত্রের লোকেরা মরল। আমি একাই বেঁচে আছি। মৃত্যুই কেবল মৃত্যুকে বেছে নেয়। যে সরীসৃপ নিজেই নিজের লেজ খেয়ে ফেলে। শপথ নিয়েছিলাম আমি। কখনো নিয়ন্ত্রণ না হারাবার শপথ নিয়েছিলাম। যথাযথ কারণ থাকলেও করবে না? কোনটা যথাযথ কারণ? আমি নিজেকে থামাতে পারব না। তারপর ওই ঝড় আবার ফিরে আসবে। তাই তোমার প্রশ্নের জবাব দিয়ে বলি। তাহলে আমি হাঁটু গেড়েই থাকব। আমি দুঃখিত। আমিও। ইয়েস! বিজয় আমার! আমি পাখিটা ধরেছি! ভালো। রাতে রাঁধার জন্য প্রস্তুত করো। কী? না! সিমোনকে না! আরেকটা খুঁজে বের করতে হবে। ধোঁয়া। কী হয়েছে? বিপদ। এই তাহলে অবস্থা। ওহ, তোমরা লুকানোয় খুঁজে পেতে একটু সময় লাগল। কাছ থেকে পালাতে চাইছ। তোমাদেরকে আর লুকিয়ে থাকতে হবে না। আমি তোমাদের দায়িত্ব নেবো। হাঁটু গেড়ে বসতে হবে তোমাদের। খুন করিয়ে ছাড়বে! ওহ! সাহস দেখাচ্ছে ও! এরকম তো আগে দেখিনি! কী হবে, তা জানো, বুড়ো? আমি কারো সামনে হাঁটু গেড়ে বসব না। বেশ, আমাকে মেরে ফেলো তাহলে। কিন্তু আমি একজন মুক্ত মানুষের মতো মরব। বুক চিতিয়ে মরব। হাঁ
টু গেড়ে কাপুরুষের মতো না। ওহ, আমার পছন্দ হয়েছে তোমাকে। বুঝেছ বুড়ো, তোমাকে আসলেই পছন্দ হয়েছে। ব্যাং! স্বাধীনতায় খাজনার চেয়ে বাজনা বেশি। কী? কী হয়েছে? ব্ল্যাক ড্রাগন আছে ওখানে। ওখানকার লোকদেরকে আনুগত্য স্বীকার করিয়েছে তারা। এসো। আমরা ওদের ছেড়ে আসতে পারি না। এভাবে না। আমরা পারব আর আমরা তাই করব। না, এটা ঠিক না। ক্ষমতা আছে যেহেতু। ওখানে গেলে তুমি মরবে। যাতে তুমি বাঁচতে পারো, মনে নেই? মানুষের দরকারে তাদের সাহায্য করতে বলেছ তুমি। না। আমি সেটা বলতে চাইনি! কোথায় থাকতাম আমি? এটা তো একই না। আমি পারব না বিষাক্ত আর কিছু নেই। মানুষ কি নিজের পরিস্থিতি বদলাতে পারে না? নাকি তোমার সব কথাই মিথ্যা? আমি তোমাকে ছাড়তে পারি না। তুমি আমাকে থামাতে পারবে না! আমি লিন কুয়েই নই, মনে নেই? রেভেন্যান্টদের হাত থেকে বাঁচাতে ব্যর্থ হয়েছ। না, আমি সেটা বোঝাইনি ভালো। যাও। যথেষ্ট হয়েছে! ফার্মে ফিরে এসো। ওদেরকে এড়িয়ে সুন্দর একটা জীবন কাটাবো আমরা। একটা সুন্দর জীবন? আমি হ্যাঁ বলতাম। ভালো পথ শিখিয়েছ। কিছু করিনি, এ বোধ নিয়ে বাঁচতে পারব না আমি। কিংবা আরো করুণ পরিণতি হবে ওদের। তোমার গর্বই তোমার পতন ডেকে আনবে। সঠিক কাজ করা গর্বের বিষয় না। মর্যাদার বিষয়। তুমিই আমাকে দেখিয়েছ সেটা। আমি আমারটা হারাবো না। আরে আশ্চর্যl? অতিথি পেয়ে গেছি আমরা। লজ্জা পেও না! সামনে এসে দেখা দাও। নইলে আমি তোমাদের সবাইকে খুন করব। আরে, এই লোকের বিচি আছে দেখা যায়। অ্যাই, জ্যারেক। ওকে মেরে ফেলো। এভাবে বসে থেকো না! সবাই উঠে দাঁড়াও! অন্ধ বুড়ো, মরার সময় হয়েছে তোর। না! ওকে মেরো না। এখনই না। বেশ, ওটা.. ওটা নতুন, অপ্রত্যাশিত। তুমি জানো ওটা কত দুর্লভ? হয়তো ভালোই লাগবে আমার। ওকে আমাদের সাথে কেটাউনে নিয়ে চলো। ওকে দেখিয়ে একটা উপযুক্ত শিক্ষা দেয়া যাবে সবাইকে। মানুষকে অনুপ্রাণিত করা যাবে। আমি এসেছি, প্রতিজ্ঞা রেখেছি। তুমি কি আবার নিয়ন্ত্রণ হারিয়ে ফেলেছিলে? এখনো না। আউ! কেনশি, এই ছুরির ধার তো অনেক। দাঁতে কিছু আটকালে এটা কাজে আসবে। তোমার কী মনে হয়? হাত দেবার অধিকার নেই তোর! অধিকার শুধু একটাই, মৃত্যু। এখানেই শেষ হয়ে যাবে, খোকা। আহ! আরেকটা সুযোগ দিচ্ছি। তুমি ঐ ছোরাটা চালানো শিখলে কী করে? ঠিক আছে, এরন! ছেলেটাকে মেরে ফেলো। ও যেন তিলে তিলে কষ্ট পেয়ে মরে। আহ! আহ! নাকি আমারই এমন লাগছে? বালুঝড় উঠেছে? না তুষারঝড় অনিয়ন্ত্রণযোগ্য এক তুষারঝড়। জানতে চেয়েছিলে। ও চলে এসেছে। ওকে কোনোভাবেই তোমরা আটকাতে পারবে না। আহ। দারুণ, দারুণ। যেন শতাব্দীর পর দেখা হল। এতদিন কোথায় লুকিয়ে ছিলে তুমি? আহো ভাতিজা আহো! ইয়েস! ইয়েস, ইয়েস! এমন একশনেরই তো অপেক্ষায় ছিলাম আমি। বাকিদের তুমি সামলাতে পারবে ও বলল। হাহ? এটার মানে কী? এই না হলে মজা? এবার মরার পালা! আমি ওটা করতাম না। এদিকে আয় শালা। অনেক সময় লাগালে তুমি। স্যরি, একটু জালে ফেঁসেছিলাম। কেউই হারাতে পারেনা ক্যানোকে। কেউই হারাতে পারেনা ক্যানোকে! না। এটা আমার লড়াই। হত্যা করো ক্যানো! তুমি কী? এটাই। কিছুই না। কিছুই না! আমি কেনশি তাকাহাশি। আর তুমি শেষ। ওহ৷ এই যে। আমাকে হারাতে পারবে ভেবেছ? নির্দয় কাকে বলে। এসবের মানে কী? অবাক লাগছে? আমি নিজেও অবাক হয়েছিলাম। সময় আর ইতিহাস পালটে দেওয়া যায়। তুমি তুমি এসব করেছ? হ্যাঁ, আমি করেছি। যেমনটা তাদের পাওয়া উচিত। ওয়েস্টল্যান্ড? রেভেন্যান্টদের? ওদের ভয় দেখিয়ে বাগে আনা সোজা। একঘেয়ে লাগা শুরু হয়েছিল, বুঝলে? তারপর তুমি এলে। আবার শুরু করলে কেন? যখন আশেপাশের সব তছনছ হয়ে যায়। বন্ধু। তাহলে, সোজা আঙুলে ঘি উঠবে না। ভালই লাগে, সত্যিই। তোমাকে আসলেই আমাকে ভাল লাগে। একটা কথা বলি। আর তোমাকে হয়ত আমি রাজা বানিয়ে দেবোউম অ্যান্টার্কটিকার! আমি কারও বশ্যতা স্বীকার করি না। ধুর্বাল! ক্যানো কোথায়? ঘুমের দেশে। ওয়েস্টল্যান্ড এখন স্বাধীন। রেভেন্যান্টদের মেরে সাফ করে, আমরা না। না? তুমি ঠিক বলেছিলে। অন্যকে সাহায্য করা উচিত। আমি ভুলে গিয়েছিলাম। আত্মমর্যাদা কিছুটা হলেও ফিরে পেয়েছি। ধন্যবাদ। আমার পাশে থেকে সাহায্য করো। মনে আছে? আমি এখনও তা অনুভব করছি। এটা নিয়ন্ত্রণ করা অসম্ভব। ও রাখবে। কী শপথ? কীসের কথা বলছ? আমরা সব আবারও শুরু করতে পারি। গঠন করতে পারি আর ওটা আমি তোমার হাতে ছেড়ে দিলাম। সময় হয়ে গেছে। আমি বুঝলাম না। লিন কুয়েই, তোমার সাম্রাজ্য তুমিই এখন লিন কুয়েই এর প্রতিনিধি। অন্যদের খুঁজে বের করো। প্রশিক্ষণ দাও। আরও অনেক বিপদ আছে সামনে। তুমি তা সামলাতে পারবে। গুড রেটিং দেবেন। আহ! তোমরা হলে সেই সর্বশেষ অনন্যসাধারণ বসতি... যারা ব্ল্যাক ড্রাগনের পতাকাতলে আসেনি। আর যাই শুনে থাকো না কেন, ব্ল্যাক ড্রাগন তোমাদের রক্ষা করতেই এসেছে, নিরাপদ রাখতেই এসেছে। বিনিময়ে তোমাদের শুধু আনুগত্য স্বীকার করতে হবে... সাথে সামান্য কর দিতে হবে। তোমাদের দ্বিধাটা দেখতে পাচ্ছি আমি। তাই, যিনি তোমাদের রাজি করাবেন তার সাথে পরিচয় করিয়ে দেই। ব
্ল্যাক ড্রাগনের দলপতি। ওয়েস্টল্যান্ডের অধিপতি। সবাই কুর্নিশ করো... কিং ক্যানো। হুজুর... ভালো কাজ দেখিয়েছো, শ্যাং সুং। রাতের ভুরিভোজের জন্য দু'জনকে নিয়ে যাচ্ছ না কেন? ধন্যবাদ... মহারাজ। শুভদিন, ভাইসব। একটা ছোট্ট গল্প শোনালে কেমন হয়? একদা, ওয়েস্টল্যান্ড, রেভেন্যান্টদের গোড়াপত্তনের আগে, তোমরা সবাই একসাথে ছোট্ট বাক্সে বসবাস করতে, স্থূল, বিরক্ত ও উদ্দেশ্যহীন হয়ে। তারপর, যুদ্ধের সূচনা হলো, আর তোমরা দুনিয়ার ছোট্ট এককোণে পালিয়ে এলে। কিন্তু রেভেন্যান্টরা হানা দিতেই থাকলো। এখন, তোমাদের সম্পদ অপ্রতুল। মৃত্যুর ভয়ে দিশেহারা তোমরা। কিন্তু আমার পতাকাতলে... তোমরা আবারো উদ্দেশ্য খুঁজে পাবে। তোমাদের নিরামিষ জীবন তার মানে খুঁজে পাবে। চিরতরে ওয়েস্টল্যান্ড দখলে নেবার সময় হয়েছে। তোমাদের কেবল... আনুগত্য স্বীকার করতে হবে, বাকিটা আমি সামলে নেবো। এইতো লক্ষ্মী জনগণ। ব্ল্যাক ড্রাগনে স্বাগতম! অনুবাদে সাবটাইটেল হাট অনুবাদক: আসাদুজ্জামান প্রামাণিক, তামিম ইকবাল, কুদরতে জাহান জিনিয়া, তাহমিদ শাহরিয়ার সাদমান। হাহ? বাংলায় সাবটাইটেলটি ভালো লাগলে গুড রেটিং দিতে ভুলবেন না। না! ভাই, না! হেই, বুড়ো। কোথায় যাচ্ছ? এখানে বহুমাইল জুড়ে তো কিছুই নেই। হাহ? হেই। কোবরা, কাবাল, দেখো। সব তরতাজা। এসব কোথায় পেয়েছ, হাহ? তুই বয়রা নাকি? তোর সাথে কথা বলছি। তোকে খুন করবো আমি। না, আমাকে বুঝিয়ে বলতে দাও। আমরা তোমার ক্ষতি করতে চাই না, মুরুব্বি। শুধু বলো খাবারগুলো কোথায় পেয়েছ, আর কোথায় নিয়ে যাচ্ছ। তাহলেই তোমাকে ছেড়ে দেবো। বেশ। তোমার যা মর্জি। এখনো বেশি দেরি হয়নি। কোথায় যাচ্ছিলে তুমি? কোন ধরনের কাপুরুষ মারের জবাব দেয় না? যা ইচ্ছে নিয়ে নাও। সে কোথাও যাচ্ছিলো। আর জায়গাটা খুঁজে বের করতে চাই আমি। চলো, রাত হয়ে যাচ্ছে। এখনই না। ওই বুড়োটা কোথাও যাচ্ছিলো। হয়তো লোকটা পাগল। মরুভূমিতে থাকলে এরকম হয়। তোমার তো জানার কথা। কিং ক্যানো'র ধমক শোনার আগেই ফিরে চলো। যখন মন চাইবে তখন ফিরে যাবো। কিং ক্যানো মরুক গে! সাবধানে কথা বলো, কাবাল। সে অন্যধাতুতে গড়া। খুব খারাপ, খুব শক্তিশালী কিছুর। কথাটা মনে রাখলেই ভালো করবে। দেখো দেখি কারবার? মার দিয়া কেল্লা। অবস্থা দেখো সবার। আমরা কারা কোনো ধারণাই নেই তাদের। খাবার, বিদ্যুৎ, হ্যাঁ। ক্যানো খুশিতে গদগদ করবে। যদি তাকে বলি আরকি। হেই, ওটার জন্য পয়সা... জানো, এটা আমাদের সুযোগ হতে পারে। এই ব্যাপারে তো আগেও কথা বলেছি। ক্যানো'র খবরদারি ছাড়াই নিজেদের ইচ্ছেমতো কিছু করা, তাছাড়া দেখো... দারুণভাবে লুকানো, খাবারে পরিপূর্ণ। শহরে যে আবর্জনা খাই তারচেয়ে বহুত ভালো। মনে হয় না তারা এতো সহজে আমাদের দখল নিতে দেবে। এছাড়া আর কী করবে ওরা? ভাবছ এখানকার কেউ রুখে দাঁড়াবে? একজনকে চিনি যে দাঁড়াতেও পারে। উহ, মনে হচ্ছে এক নায়ককে পেয়ে গেছি। নায়ক? না, আমি ব্যস একজন প্রতিদ্বন্দী খুঁজছি। আর, মানে, না পাওয়া পর্যন্ত তোমাদের দিয়েই কাজ চালাতে হবে। এক ছিচকাদুনে ইদুর কিনা আমাকে কেলাতে চাইছে। আমি তোমাকে কেলাতে চাই না। তোমাদের তিনজনকেই কেলাতে চাই আমি। কোবরা, শালাকে সাইজ করো। সানন্দে। তোকে এর মূল্য দিতে হবে। তোকে খুন করবো আমি! মস্তবড় ভুল করে ফেললি তুই। এটাই শেষ ভুল হবে না। আমি হলে বড়াই করতাম না। কী করেছ তা বুঝতে পারছ? শুনুন, আপনাদের সাহায্য করতে একাজ করিনি। ভাবছিলাম এই শহর হয়তো একজন যোগ্য প্রতিদ্বন্দী এনে দেবে আমাকে। না। ওদেরকে চেনো না তুমি? ওরা হচ্ছে ব্ল্যাক ড্রাগনের সদস্য। ওয়েস্টল্যান্ডের সবচেয়ে দুর্ধর্ষ ডাকাতদল। তুমি যা করেছ, তাতে ওরা ফিরে আসবে, আর এইবার, আমরা কেউই রেহাই পাবো না। ফিরে আসবে? হুম। হয়তো কিছুদিন থেকে যাবো এখানে। কী করছো? ফাজলামো বন্ধ করো। দেখো অবস্থা। এবার তোমাকে বাগে পেয়ে গেছে। মারো! না, সে আহত। আমি তাকে খুন... ধন্যবাদ, কিং ক্যানো। আহা, মরে গেল। যাক, মজাই লাগলো। ওহ, বাচ্চুরা ফিরে এসেছে। পাজির দলেরা কোথায় ছিলে? আমরা আরেকটা বসতি পেয়েছি। দারুণ সুরক্ষিত ছিল শহরটা। আমরা ফিরে ওদের মোকাবেলা করবো। সবকয়টাকে মেরে ফেলবো। আমাদের... খামোশ! ট্রেমার। এই তিনজনকে নিয়ে ওখান থেকে ঘুরে আসছো না কেন? গিয়ে দেখো কে আমার অভিজাত রক্ষীদের ভীতুর ডিম বানিয়ে ছাড়লো। জি, কিং ক্যানো। শ্যাং সুং? তুমি আবার কোথায় হাওয়া হলে? বু! হুজুর, আপনার পানীয় রেখে যাচ্ছিলাম আমি। জানি পুরো এক বোতল খেতে পছন্দ করেন আপনি। হ্যাঁ। হ্যাঁ, বটে। আহ। ওহ, দুঃখিত। যদি আর কোনো... আমার হয়ে একটা কাজ করে দাও। হুকুম করুন। ট্রেমার'কে অনুসরণ করো। টিলার মাঝখানে লুকোনো এক ছোট্ট শহরে যাচ্ছে সে। হুজুর, এখানে তো অনেক কাজ। আমি... মহারাজ যা বলবেন তাই করবো। হ্যাঁ? হ্যাঁ। সে আর অন্যরা মিলে অনেকদিন ধরেই দল ছাড়ার পরিকল্পনা করছে। আর আমার ক্ষমতার দখল নিতে চাওয়া লোকদের কীভাবে দেখি তাতো জানোই? জি, মহারাজ। হ্যাঁ। যাও। যা দেখবে তা সত্যি করে আমাকে জানাবে। আপনার যা মর্জি। আর বেশিদিন
নেই। আহ! কুয়েই, তোমাকে তো গতকাল দেখলাম না। কাজে আটকে পড়েছিলাম। বিধবা রেয়নোন্ডস আবারও তোমার কথা জিজ্ঞেস করছিল। আমি বলেছি তুমি হিজড়া। দুঃখজনকভাবে তাতেও দমেছে বলে মনে হয় না। ভদ্রমহিলাগণ... অসম্ভব। হেই, বুড়ো, ভালোই ফসল নিয়ে এসেছেন দেখছি। আমি ওয়েস্টল্যান্ডের সবখানে গিয়েছি, আর একজায়গায় এতো ফল কখনো ফলতে দেখিনি। এরজন্য প্রচুর পানির প্রয়োজন, অথবা... লিন কুয়েই হয়তো লড়াইয়ের চাইতেও বেশিকিছু শিখিয়েছে আপনাকে, হাহ? আপনার ট্যাটুটা দেখেছি। লোকে যা বলে তা কি সত্য? যে লিন কুয়েই দুনিয়ার সবচেয়ে ভয়ঙ্কর যোদ্ধা ছিল? এমন গল্প কখনো শুনিনি। দুঃখিত। এই ছোকরা কি তোমাকে বিরক্ত করছে? না। না, না, না। ভুল হয়ে গেছে। তাকে অন্যকেউ ভেবেছিলাম। কখনো শোনেননি, হাহ? কুয়েই, তুমি কি চাও আমি... কী চাও তুমি? আমি কী চাই? আমি, কেনশি তাকাহাশি, দুনিয়ার সর্বশ্রেষ্ঠ যোদ্ধা হতে চাই। তাই, আমি চাই আপনি যা জানেন তা সব আমাকে শেখান। আমি জানি যারা নিজেদের শ্রেষ্ঠ প্রমাণ করতে চায়... তারা কেবল একটা জিনিসই জানে। আচ্ছা, সেটা কী? তারা কিছুই জানে না। শুনুন, বুড়ো, আপনাকে পয়সা দেবো। বিভিন্ন শহরে লড়ে অনেক কামিয়েছি আমি, আর... তোমার টাকা চাই না আমি। আমি ব্যস শান্তিতে একা থাকতে চাই। শান্তি? কিং ক্যানো এই জমিন শাসন করলেই কেবল শান্তি আসবে। ওহ, দেখো, অপদস্ত হবার জন্য আরো দোস্ত নিয়ে এসেছো। জানো, কিং ক্যানো সবসময় দক্ষ লোকের খোঁজে থাকেন... ব্ল্যাক ড্রাগনে ভেড়ানোর জন্যে। তো কী বলো? দাদাদের সাথে হুকুমত চালাতে চাও? কুকুর ছানার মতোই বেশি লাগে। অন্য পথ সবসময়ই খোলা থাকে। আমার আগের কথাবার্তায় ফিরে যাওয়ার? হাঁটু গেড়ে বসে ক্ষমা চাইবার। বেরোও এখান থেকে! তোমাদের লোকদের চাই না... ব্ল্যাক ড্রাগন হচ্ছে চোর আর কাপুরুষদের দল। কেনশি তাকাহাশি'কে ক্ষমা প্রার্থনা করাতে চাইলে, আমাকে বাধ্য করাতে হবে। তাকাহাশি? এখানে না। সামনে থেকে সরে যাও, বুড়ো। এটা লড়াইয়ের ময়দান নয়। সব জায়গাই লড়াইয়ের ময়দান। আমরা চলে যাবো কথা দিচ্ছি। আমার সামনে কেউ হাঁটু গেড়ে বসার পরপরই। হা! এসো, কুয়েই। তোমাকে সাহায্য করি। বুড়োদের সাথে লেগে মজা পাস? আমার সাথে লাগলে কেমন হয়? লাগলে কিছু মনে করিস না। অনেক হয়েছে! ভর্তা বানাও! হ্যাঁ! এতেই শিক্ষা হবে। আমার কাছে ক্ষমা চাইবার কথা তোর। হুম। তোর যা মর্জি। এটা একটা শিক্ষা হয়ে থাকুক। কিং ক্যানো আর ব্ল্যাক ড্রাগনের সামনে দাঁড়ানোর মুরোদ কারোরই নেই। প্রস্তুত থাকো, কারণ মহারাজ শিগগিরই আসবেন, আর তোমরা তাকে কুর্নিশ করবে। যদি না করো, এই গাধার যা হয়েছে তোমাদের পরিণতিও তাই হবে। ট্রেমার, ট্রেমার, ট্রেমার! প্লিজ, আমাকে সাহায্য করতে দাও। ধন্য... ধন্যবাদ। সং। আমার নাম সং। সাহায্যের জন্য ধন্যবাদ, সং। ওখানে। বসো। জানো, আমিও একসময় তোমার অবস্থানে ছিলাম। তুমি একজন অসাধারণ যোদ্ধা। কিন্তু যাদের পাওয়ার আছে, তাদের সামনে সবাই নস্যি। যদিনা... যদিনা কী? ব্যাপারটা বড্ডো বিপজ্জনক। কথাটা ভুলে যাও... প্লিজ, কী? একটা তলোয়ার আছে। লোকে বলে ওটার অবিশ্বাস্য শক্তি আছে। যার সাথে লড়েছো তার চাইতেও বেশি শক্তি। কিং ক্যানো'র চাইতেও বেশি শক্তি। আমাকে নিয়ে চলুন। ওরকম ক্ষমতাসম্পন্ন লোকজন থাকতে, চ্যাম্পিয়ন হবার কপাল আমার কখনোই হবে না। যদি ওরকম অস্ত্রের কথা জেনে থাকেন... তলোয়ার। হ্যাঁ। তলোয়ার। প্লিজ। আমাকে সাহায্য করুন। অবশ্যই তোমাকে সাহায্য করবো আমি। এসো। আমি সব ব্যবস্থা করবো। আর তারপর, তুমি তোমার পাওয়ার পাবে। সাথে তোমার প্রতিশোধও। ওই যে। ওখানে। ওই যে। ওখানে। এই... এই চিহ্নগুলো... এই ভাষাটা... আমি পড়তে পারছি। "এই... এই আত্মাকূপেই..." "তাকাহাশির শক্তির বাস" এটা আমার পূর্বপুরুষেরা বানিয়েছিলেন। এটা আমার নিয়তি। ধ্যাত্তেরি! এটা খুলছে না। ব্লাড ম্যাজিক। এই নাও। কী করছেন? সীলে তোমার হাত রাখো। কী দেখতে পাচ্ছো? কিছুই না। একদম খালি। না, না, দাঁড়ান। একটা আলো দেখা যাচ্ছে। এটা... এটা উজ্জ্বল হচ্ছে। হ্যাঁ। হ্যাঁ, অবশেষে। সং, সং! আমার চোখ! সং, সাহায্য করুন! সং। না। আমার নাম... ...শ্যাং সুং। শ্যাং সুং। আমি জানি নামটা। এক সময় আমি ছিলাম জগতসমূহের মধ্যে সর্বশক্তিশালী। ক্যানোর আগে। কিন্তু এখন, এই আত্মাগুলোর মাধ্যমে, নিজের অধিকার ছিনিয়ে নেবো। তোমার আত্মাগুলো আমার। ইয়েস! এই শক্তি। এই শক্তি! ক্যানো এবার বুঝবে দাসত্বের মজা। সবাই বুঝবে। আর তুমি, কেনশি। তোমাকে কী করতে পারি? আমায়... মেরে ফেলো। আমি এভাবে বাঁচতে... তোমার যা ইচ্ছা। কেনশি। কে... কী... কী তোমার পরিচয়? সেন্টো। আমি তোমারই। আমায় তোলো আর দেখো। অসম্ভব। ওঠো। ওঠো। একজন... জাদুকর। সেন্টো। আমি... দেখতে পাচ্ছি। আমি দেখতে পাচ্ছি। ইয়াহ! কোন সাহসে এলে? দাঁড়াও। এতদিন ধরেই ভাবছিলাম তুমি কোথায় গিয়েছিলে, শ্যাং সুং। আমি... তোমাকে সরানোর উপায় খুঁজতে গিয়েছিলাম। ওহ। আত্মাকূপটা খুঁজে পেয়েছ তাহলে। বিস্মিত হয়েছ? এসো এবার। তোমাকে কেন নির্বাসনে প
াঠিয়েছিলাম বলে ভাবো? এমন লড়াই আগেও করেছি। কিন্তু ভেবেছিলাম এবার, এবার হয়তো আমাকে চ্যালেঞ্জের মুখে ফেলবে। চ্যলেঞ্জ দেখতে চাও? বেশ। না! ওহ, স্যরি বন্ধু। শাসনের কোনো অধিকারই ছিলো না তোমার। হাহ, খারাপ না। কসম খেয়ে বলছি, তোমার দক্ষতা একটু একটু করে বাড়ছে। বাজে বকার সময় শেষ। তোমার আত্মা আমার। আহহ! ওহ! আহ, ওহ, আহ, আহ! অসম্ভব। তোমার আত্মা... আহা বন্ধু। আমি ওসবের উর্ধ্বে। আশা রেখেছিলাম তুমি ভিন্ন কিছু করবে। ভেবেছিলাম কেউ আমাকে চ্যালেঞ্জের মুখে ফেললে, সেটা হবে তুমি। কিন্তু না। আবারও আগের মতোই। তুমি। তুমি সেই আগের... কর্তৃত্ববাজ, অসভ্য জাদুকর... সে অন্যদের অবমূল্যায়ন করে। তুমি আমাকে হারাতে পারবে না! কেউ পারবে না। আমি এই জগত বানিয়েছি। আর আমি এটাকে... আরও বহুবার বানাবো। পরবর্তী বারের জন্য শুভকামনা। কেউই হারাতে পারেনা ক্যানোকে। কেউ না! ক্যানো! ক্যানো! ক্যানো! না, না... শ্যাং সুং... আআমার চোখ। থামো! ওঠো! সুস্থির হয়ে বসো। কোথায়... কোথায় আমি? আমার ঘরে। এই নাও। পান করো। ধীরেসুস্থে। আরও আছে। ধন্যবাদ। আআপনি যেই হোন না কেন। আমার নাম কুয়াই লিয়াং। চাইলে আমায় "বুড়ো" বলে ডাকতে পারো, যেমনটা বাজারে করেছিলে। কুয়াই... লিন কুয়েই। আমি দুঃখিত পূর্বের আচরণের জন্য। সাহায্য করায় ধন্যবাদ। আমি সাহায্য করছি না। আমার এলাকায় তুমি মারা গেলে, মৃতেরা ছুটে আসতো। সবল হওয়ার আগ পর্যন্ত, এখানে বিশ্রাম নিতে পারো। কিন্তু তারপর, চলে যাবে। তাহলে আর দেরি কেন? একটা তরবারি নিয়ে এসেছিলাম। কোথায় সেটা? তুমি এখনো যথেষ্ট সবল নও। চাইলে... না। আপনাকে কষ্ট দিতে চাই না। সাবধানে। সামনে একটা... টেবিল। আমার তরবারি! এটা মূল্যহীন। সবকিছুই। এখন থেকে। এই তরবারি থাকলেও, আমার পূর্বের চেয়ে অনেক অক্ষম। যখন তোমাকে প্রথম দেখি, তুমি ছিলে অহংকারে পূর্ণ, শ্রেষ্ঠ যোদ্ধা হতে চাচ্ছিলে। এমনটাই বলেছিলে না? সেটা আগের কথা। তখন তুমি ছিলে অন্ধ। তখন, আমি আক্রান্ত হয়েছিলাম। শ্যাং সুংএর চালের শিকার হয়েছিলাম। তো দৃষ্টি হারানোর কারণে কি অর্থহীন হয়ে পড়েছ? তাহলে কথাটাই সত্যি। তুমি কিছু জানো না। বাচ্চা রয়ে গেছো। যদি আত্মহত্যা করতে চাও, জলদি করো, যাতে সূর্যোদয়ের আগেই তোমাকে দাফন করতে পারি। সে আমার সম্মান কেড়ে নিয়েছে। জীবনে সম্মান ছাড়াও অনেক কিছু আছে। যেমন? বেঁচে থাকা। টিকে থাকা। কোথায় যাচ্ছেন? ভেতরে। চাইলে আসতে পারো। কাল তোমাকে ইন্দ্রিয়ের ব্যবহার শেখাবো। যাতে শ্যাং সুংকে খুঁজে বের করতে পারি। না, তোমাকে শুধু বাঁচতে শেখাবো। মরতে নয়। বুঝতে পেরেছ? এখন বিশ্রাম নাও। আগামীকাল, প্রশিক্ষণ চলবে। মুরগিটাকে ধরো। কীভাবে ধরবো... আহ! কথা না বলার মাধ্যমে। শোনো। বাতাসের শব্দ শোনো। শোনো শস্যের মর্মরধ্বনি। হ্যাঁ। ওগুলোর প্রয়োজন নেই। একমাত্র যেটার প্রয়োজন... সেটা হচ্ছে এই মুরগি। দেয়ালে ওটা কী? দ্যুতি ছড়াচ্ছে। এটা শক্তিশালী। একটা অঙ্গীকার। যা ভেবেছিলাম, তরবারিটার মাধ্যমে তুমি দেখতে পাও। কীভাবে জানলেন... আরও বহু জাদু পার করে এসেছি আমি। এটার নাম সেন্টো। এটা, আমার সাথে কথা বলে। ফিসফিস করে। এটা ধরলে, দেখতে পাই, কোনো রকম। ব্যাখ্যা করো। কঠিন কিছুটা। এটা এমন, আপনি যখন আগুনের দিকে তাকানোর পর চোখ সরিয়ে নেবেন, এটা চলে যাওয়ার পরও অবয়বটা দেখতে পাবেন। এটা এমনই, কিন্তু কিছু একটা আছে। এটাই সেই... কিছু একটা। হ্যাঁ, মনে হচ্ছে... আমি... হেই, স্যুপটাতে কী দিয়েছেন? ঘুমের ঔষধ। নাকের ব্যবহার করতে পারতে। না! ভাই, না! ভাই? আমি তোমার ভাই নই। আমিই তুমি। না! হ্যাঁ। কুয়াই। কুয়েই! কুয়াই। কুয়েই! তুমি নিশ্চয়ই স্বপ্ন দেখছ। আমি ভাবলাম হয়তো... উঠে পড়েছ। ভালো। আমার সাথে এসো। প্রস্তুত? না! আমি কী করছি আসলে? আমি তরমুজটা ফেলে দেবো। তরমুজটা তোমার মুখে পড়ার আগেই ছুরিটাকে ডাক দেবে তুমি। আর এটা যদি কাজ না করে? চেষ্টা করেই দেখা যাক, নাকি? ভালোমতো চেষ্টা করে দেখা যাক। শেষ করে ফেলো। এতে কাজ হচ্ছে না। এতে কাজ হচ্ছে না কারণ তোমার নিজের ওপরে বিশ্বাস নেই। নিজের ওপর বিশ্বাস? বিশ্বাস করার মতো তো কিছু নেই আমার মাঝে। একসময়ে আমি একজন মহান যোদ্ধা ছিলাম। কেউ আমাকে হারাতে পারত না, কেউ না। পৃথিবীটা দুঃসহ হলেও অন্তত এটুকু সম্পদ ছিল আমার। আর এখন... আমি সামান্য এক অন্ধ লোক, যে সারাদিন মুরগি তাড়া করে ফেরে। আর এরকমই থাকবে তুমি সবসময়ে। এজন্যই তুমি ব্যর্থ হচ্ছ। তোমাকে প্রশিক্ষণ দিতে কেন রাজি হয়েছি জানো? আমাকে করুণা করে। না। কারণ তোমার জায়গায় আমিও ছিলাম একদিন। নিজেকে এত নিচু মনে হত যে মৃত্যু কামনা করতাম। পরে শিখলাম, কেবল শিশুরাই আশেপাশের পরিস্থিতিকে দায়ী করে। আসল পুরুষেরা নিজের পরিস্থিতিকে বদলায়। ঐ কাঠের টুকরোটাকে তুলে নাও। আমি পারব না। তোলো। ঠিক ভঙ্গীতে দাঁড়াও। ঠিক ভঙ্গীতে দাঁড়াও! নইলে তোমার প্রিয় তলোয়ারটা নিয়ে এখনই সব শেষ করে দেবো। আমার পায়ের শব্দ শোনো। আমার ঘ্রাণ শোঁখো। তোমার আশেপাশের বাতাসকে অ
নুভব করো। আমি কি একটা মুরগির চেয়েও বেশি আওয়াজ করছি না? এই কৃষকের গা থেকে কি ভিনেগারের থেকেও বাজে গন্ধ আসছে না? তুমি কী ছিলে তা নিয়ে না ভেবে তুমি কী হতে পারো, তা নিয়ে ভাবো। "আমি পারব না" এর চেয়ে বিষাক্ত কথা আর হয় না। তুমি বিশ্বাস রাখলেই পারবে। স্বর্গ আর নরক তোমার বিরুদ্ধে হাত মেলালেও তুমি পারবে। তুমি পারবে। বুঝেছ? না। তুমি এটায় বিষ মিশিয়েছ। না, কিন্তু এটা বিষের চেয়েও খারাপ খেতে। ঘরে বানানো। তোমাকে একটা কথা জিজ্ঞেস করব। তোমার নড়াচড়া দেখেছি আমি। তোমার...শক্তিমত্তা দেখেছি। তাহলে তুমি কেন... ব্ল্যাক ড্রাগনের সামনে হাঁটু গেড়ে বসো? হ্যাঁ। তুমি হলে লিন কুয়েই। তুমি চাইলে... আমি লিন কুয়েই ছিলাম। অনেকদিন আগে, ওয়েস্টল্যান্ডের আগে... এই সবকিছুর... আগে... আমি আমার গোত্রের সবচেয়ে ভয়ঙ্কর এবং সম্মানিত যোদ্ধাদের একদম হয়ে উঠেছিলাম। তারপর এলো রেভেন্যান্টেরা। ওরা ছেয়ে ফেলল গোটা শহর, গোটা দেশ। অনেকে ভেবেছিল এসব করে কোনো লাভ নেই। কিন্তু আমার গর্ব টিকে ছিল। লিন কুয়েইকে হারাবে ওরা, ভাবিনি। আমরা এক শহরে গিয়ে সেটাকে রেভেন্যান্টমুক্ত করার চেষ্টা করছিলাম। কিন্তু ওরা সবখানে ছড়িয়ে ছিল। এক মৌচাক মৌমাছির মতো। আমি জানতাম আমরা মারা পড়ব। কিন্তু আমি ভেবেছিলাম... ক্রায়োম্যান্সি কী, জানো? না। এক ধরনের ক্ষমতা। এটা আমার এক ধরনের ক্ষমতা। সেই মুহূর্তে প্রাণভয়ে এক বরফ ঝড়কে ডেকে আনলাম আমি। কিন্তু আমি নিয়ন্ত্রণ হারিয়ে ফেলেছিলাম। স্বপ্নগুলো। দীর্ঘদিন ধরে ধারণা ছিল, আমার ভাইয়ের চেয়ে খারাপ কিছু হওয়া আমার পক্ষে সম্ভব না। আমি ভুল ভেবেছিলাম। ঝড়টা শহরটাকে ছিন্নভিন্ন করে দিলো। রেভেন্যান্টেরা মরল। নিরীহ মানুষেরা মরল। আমার গোত্রের লোকেরা মরল। সব শেষ হবার পর দেখি, আমি একাই বেঁচে আছি। আর আমি বুঝলাম, মৃত্যুই কেবল মৃত্যুকে বেছে নেয়। এভাবে সহিংসতার চক্র চলতে লাগল, ব্ল্যাক ড্রাগনের চিহ্নটার মতো, যে সরীসৃপ নিজেই নিজের লেজ খেয়ে ফেলে। নিজের ক্ষমতা আর কখনো ব্যবহার না করার শপথ নিয়েছিলাম আমি। কখনো নিয়ন্ত্রণ না হারাবার শপথ নিয়েছিলাম। যথাযথ কারণ থাকলেও করবে না? কোনটা যথাযথ কারণ? আমি নিজেকে থামাতে পারব না। তারপর ওই ঝড় আবার ফিরে আসবে। তাই তোমার প্রশ্নের জবাব দিয়ে বলি। হাঁটু গেড়ে যদি আমার আশেপাশের মানুষের প্রাণ বেঁচে যায়, তাহলে আমি হাঁটু গেড়েই থাকব। আমি দুঃখিত। আমিও। ইয়েস! বিজয় আমার! আমি পাখিটা ধরেছি! ভালো। রাতে রাঁধার জন্য প্রস্তুত করো। কী? না! সিমোনকে না! পেট ভরাতে চাইলে আরেকটা খুঁজে বের করতে হবে। ধোঁয়া। কী হয়েছে? বিপদ। এই তাহলে অবস্থা। ওহ, তোমরা লুকানোয় খুঁজে পেতে একটু সময় লাগল। আমার আর আমার ব্ল্যাক ড্রাগনের কাছ থেকে পালাতে চাইছ। কিন্তু এখন থেকে, তোমাদেরকে আর লুকিয়ে থাকতে হবে না। তোমরা আমার কাছ থেকে নিরাপত্তা পাবে, আমি তোমাদের দায়িত্ব নেবো। বিনিময়ে নতুন রাজার সামনে হাঁটু গেড়ে বসতে হবে তোমাদের। ও তো আমাদের সবাইকে খুন করিয়ে ছাড়বে! ওহ! সাহস দেখাচ্ছে ও! এরকম তো আগে দেখিনি! তুমি কারো সামনে হাঁটু গেড়ে না বসলে, কী হবে, তা জানো, বুড়ো? আমি কারো সামনে হাঁটু গেড়ে বসব না। বেশ, আমাকে মেরে ফেলো তাহলে। কিন্তু আমি একজন মুক্ত মানুষের মতো মরব। বুক চিতিয়ে মরব। হাঁটু গেড়ে কাপুরুষের মতো না। ওহ, আমার পছন্দ হয়েছে তোমাকে। বুঝেছ বুড়ো, তোমাকে আসলেই পছন্দ হয়েছে। ব্যাং! আমি বললাম তো, স্বাধীনতায় খাজনার চেয়ে বাজনা বেশি। কী? কী হয়েছে? ব্ল্যাক ড্রাগন আছে ওখানে। ওখানকার লোকদেরকে আনুগত্য স্বীকার করিয়েছে তারা। এসো। আমরা ওদের ছেড়ে আসতে পারি না। এভাবে না। আমরা পারব আর আমরা তাই করব। না, এটা ঠিক না। আমাদের এ ব্যাপারে কিছু করার ক্ষমতা আছে যেহেতু। ওখানে গেলে তুমি মরবে। আমি তোমাকে এটা শিখিয়েছিলাম, যাতে তুমি বাঁচতে পারো, মনে নেই? মানুষের দরকারে তাদের সাহায্য করতে বলেছ তুমি। না। আমি সেটা... বলতে চাইনি! তুমি আমাকে বেছে না নিলে, প্রশিক্ষণ না দিলে কোথায় থাকতাম আমি? এটা তো একই না। আমি পারব না... "আমি পারব না" এই কথার চেয়ে বিষাক্ত আর কিছু নেই। মানুষ কি নিজের পরিস্থিতি বদলাতে পারে না? নাকি তোমার সব কথাই মিথ্যা? আমি তোমাকে ছাড়তে পারি না। তুমি আমাকে থামাতে পারবে না! আমি লিন কুয়েই নই, মনে নেই? আর এটা সেই শহর না যেটাকে তুমি রেভেন্যান্টদের হাত থেকে বাঁচাতে ব্যর্থ হয়েছ। না, আমি সেটা বোঝাইনি... ভালো। যাও। যথেষ্ট হয়েছে! ফার্মে ফিরে এসো। ওদেরকে এড়িয়ে সুন্দর একটা জীবন কাটাবো আমরা। একটা সুন্দর জীবন? চোখজোড়া থাকলে আমি হ্যাঁ বলতাম। কিন্তু তুমি তো আমাকে এর চেয়েও ভালো পথ শিখিয়েছ। না। না, অন্যদের সাহায্য করার সামর্থ্য থাকার পরেও কিছু করিনি, এ বোধ নিয়ে বাঁচতে পারব না আমি। ওরা খুন হবে, বন্দী হবে, কিংবা আরো করুণ পরিণতি হবে ওদের। তোমার গর্বই তোমার পতন ডেকে আনবে। সঠিক কাজ করা গর্বের বিষয় না। মর্যাদার বিষয়। তুমিই আমাকে দেখিয়েছ সেটা। তুমি তোমারটা হারালেও আমি আমারটা
হারাবো না। আরে আশ্চর্যl? নিমন্ত্রণ ছাড়াই একজন অতিথি পেয়ে গেছি আমরা। লজ্জা পেও না! সামনে এসে দেখা দাও। এদেরকে ছেড়ে দাও, নইলে আমি তোমাদের সবাইকে খুন করব। আরে, এই লোকের বিচি আছে দেখা যায়। অ্যাই, জ্যারেক। ওকে মেরে ফেলো। এভাবে বসে থেকো না! সবাই উঠে দাঁড়াও! অন্ধ বুড়ো, মরার সময় হয়েছে তোর। না! ওকে মেরো না। এখনই না। বেশ, ওটা.. ওটা নতুন, অপ্রত্যাশিত। তুমি জানো ওটা কত দুর্লভ? তোমার জীবনের গল্পটা শুনতে হয়তো ভালোই লাগবে আমার। ওকে আমাদের সাথে কেটাউনে নিয়ে চলো। ওকে দেখিয়ে একটা উপযুক্ত শিক্ষা দেয়া যাবে সবাইকে। মানুষকে অনুপ্রাণিত করা যাবে। আমি এসেছি, প্রতিজ্ঞা রেখেছি। তুমি কি আবার নিয়ন্ত্রণ হারিয়ে ফেলেছিলে? এখনো না। আউ! কেনশি, এই ছুরির ধার তো অনেক। দাঁতে কিছু আটকালে এটা কাজে আসবে। তোমার কী মনে হয়? অ্যাই শুয়োর, সেন্টোর গায়ে হাত দেবার অধিকার নেই তোর! অধিকার? জীবনে আমাদের অধিকার শুধু একটাই, মৃত্যু। সেই প্রসঙ্গে একটা কথা বলি, তোমার অভিযান মনে হয় এখানেই শেষ হয়ে যাবে, খোকা। আহ! আরেকটা সুযোগ দিচ্ছি। তুমি ঐ ছোরাটা চালানো শিখলে কী করে? ঠিক আছে, এরন! ছেলেটাকে মেরে ফেলো। ও যেন তিলে তিলে কষ্ট পেয়ে মরে। আহ! আহ! জায়গাটা আসলেই কি একটু স্যাঁতসেঁতে, নাকি আমারই এমন লাগছে? বালুঝড় উঠেছে? না... তুষারঝড়... অনিয়ন্ত্রণযোগ্য এক তুষারঝড়। আমাকে কে ছোরা চালাতে শিখিয়েছে জানতে চেয়েছিলে। ও চলে এসেছে। আর তোমরা যদি পুরো স্বর্গনরককেও এক করে জোট বাঁধো, ওকে কোনোভাবেই তোমরা আটকাতে পারবে না। আহ। দারুণ, দারুণ। যেন শতাব্দীর পর দেখা হল। এতদিন কোথায় লুকিয়ে ছিলে তুমি? আহো ভাতিজা আহো! ইয়েস! ইয়েস, ইয়েস! এমন একশনেরই তো অপেক্ষায় ছিলাম আমি। বাকিদের তুমি সামলাতে পারবে ও বলল। হাহ? এটার মানে কী? এই না হলে মজা? এবার মরার পালা! আমি ওটা করতাম না। এদিকে আয় শালা। অনেক সময় লাগালে তুমি। স্যরি, একটু জালে ফেঁসেছিলাম। কেউই হারাতে পারেনা ক্যানোকে। কেউই হারাতে পারেনা ক্যানোকে! না। এটা আমার লড়াই। হত্যা করো... ক্যানো! ওই তরবারিটা ছাড়া, তুমি কী? এটাই। কিছুই না। কিছুই না! আমি কেনশি তাকাহাশি। আর তুমি... শেষ। ওহ৷ এই যে। আমাকে হারাতে পারবে ভেবেছ? যখন ফিরে আসবো, তখন বুঝবে, নির্দয় কাকে বলে। এসবের মানে কী? অবাক লাগছে? আসলে, প্রথমবার দেখার সময়, আমি নিজেও অবাক হয়েছিলাম। এটার নাম ক্রনিকার বালুঘড়ি, আর এ দিয়ে, সময় আর ইতিহাস পালটে দেওয়া যায়। তুমি... তুমি এসব করেছ? হ্যাঁ, আমি করেছি। শাং সুং এর মত ওই শয়তানগুলোকে আমি বানিয়েছি, আমার পায়ে পড়ে রাখতে, যেমনটা তাদের পাওয়া উচিত। ওয়েস্টল্যান্ড? রেভেন্যান্টদের? এত মানুষকে নিয়ন্ত্রন করার চেয়ে, ওদের ভয় দেখিয়ে বাগে আনা সোজা। তবে সত্যি বললে, সবকিছুই কেমন যেন, একঘেয়ে লাগা শুরু হয়েছিল, বুঝলে? তারপর তুমি এলে। তো, বরফের ঝড় ওঠানো আবার শুরু করলে কেন? দেরিতে হলেও বুঝতে পারলাম, বসে থাকার মাঝে কোনো সম্মান নেই, যখন আশেপাশের সব তছনছ হয়ে যায়। আমি বলি, 'আমার রূপে পুনর্নিমিত।" যাই হোক, পরেরবার জন্য শুভকামনা, বন্ধু। তাহলে, সোজা আঙুলে ঘি উঠবে না। ভালই লাগে, সত্যিই। তোমাকে আসলেই আমাকে ভাল লাগে। একটা কথা বলি। হাঁটু গেড়ে বসে আমার বশ্যতা স্বীকার করে নাও, আর তোমাকে হয়ত আমি রাজা বানিয়ে দেবো...উম... অ্যান্টার্কটিকার! আমি কারও বশ্যতা স্বীকার করি না। ধুর্বাল! ক্যানো কোথায়? ঘুমের দেশে। ক্যানো যেহেতু অক্কা পেয়েছে, ওয়েস্টল্যান্ড এখন স্বাধীন। রেভেন্যান্টদের মেরে সাফ করে, আমরা... না। না? তুমি ঠিক বলেছিলে। নিজের সামর্থ্য দিয়ে অন্যকে সাহায্য করা উচিত। এই কাজটা করতে আমি ভুলে গিয়েছিলাম। আর তোমার কারণে, আত্মমর্যাদা কিছুটা হলেও ফিরে পেয়েছি। ধন্যবাদ। তাহলে, ওয়েস্টল্যান্ডের মানুষদের জন্য আমার পাশে থেকে সাহায্য করো। আমার ক্ষমতার কথা কী বলেছিলাম মনে আছে? আমি এখনও তা অনুভব করছি। এটা নিয়ন্ত্রণ করা অসম্ভব। আমি একটা শপথ নিয়েছিলাম, আমি তা রাখতে না পারলেও, ও রাখবে। কী শপথ? কীসের কথা বলছ? আমরা সব আবারও শুরু করতে পারি। আবারও লিন কুয়েই গঠন করতে পারি... আর... ওটা আমি তোমার হাতে ছেড়ে দিলাম। সময় হয়ে গেছে। আমি বুঝলাম না। লিন কুয়েই, তোমার সাম্রাজ্য... তুমিই এখন লিন কুয়েই এর প্রতিনিধি। অন্যদের খুঁজে বের করো। প্রশিক্ষণ দাও। পৃথিবীকে রক্ষা করো, আরও অনেক বিপদ আছে সামনে। আমার বিশ্বাস, তুমি তা সামলাতে পারবে। অনুবাদক: আসাদুজ্জামান প্রামাণিক, তামিম ইকবাল, কুদরতে জাহান জিনিয়া, তাহমিদ শাহরিয়ার সাদমান বাংলায় সাবটাইটেলটি ভালো লাগলে গুড রেটিং দেবেন। আমাদের গ্রুপ সাবটাইটেল হাট পেজ Subtitle Hut
संध्या तो हो आई, पर रात के अन्धकार के घोर होने में अब भी कुछ विलम्ब था। इसी थोड़े से समय के भीतर किसी भी तरह से हो, कोई न कोई ठौर-ठिकाना करना ही पड़ेगा। यह काम मेरे लिए कोई नया भी न था, और कठिन होने के कारण मैं इससे डरा भी नहीं हूँ। परन्तु, आज उस आम-बाग के बगल से पगडण्डी पकड़ के जब धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा तो न जाने कैसी एक उद्विग्न लज्जा से मेरा मन भीतर से भर आने लगा। भारत के अन्यान्य प्रान्तों के साथ किसी समय घनिष्ठ परिचय था; किन्तु, अभी जिस मार्ग से चल रहा हूँ, वह तो बंगाल के राढ़-देश का मार्ग है। इसके बारे में तो मेरी कुछ भी जानकारी नहीं है। मगर यह बात याद नहीं आई कि सभी देश-प्रदेशों के बारे में शुरू-शुरू में ऐसा ही अनभिज्ञ था, और ज्ञान जो कुछ प्राप्त किया है वह इसी तरह अपने आप अर्जन करना पड़ा है, दूसरे किसी ने नहीं करा दिया। असल में, किसलिए उस दिन मेरे लिए सर्वत्र द्वार खुले हुए थे, और आज, संकोच और दुविधा से वे सब बन्द से हो गये, इस बात पर मैंने विचार ही नहीं किया। उस दिन के उस जाने में कृत्रिमता नहीं थी; मगर आज जो कुछ कर रहा हूँ, यह तो उस दिन की सिर्फ नकल है। उस दिन बाहर के अपरिचित ही थे मेरे परम आत्मीय-उन पर अपना भार डालने में तब किसी तरह की हिचकिचाहट नहीं आई; पर वही भार आज व्यक्ति-विशेष पर एकान्त रूप से पड़ जाने से सारा का सारा भार-केन्द्र ही अन्यत्र हट गया है। इसी से आज अनजान अपरिचितों के बीच में से चलने में मेरे हर कदम पर उत्तरोत्तर भारी होते चले जा रहे हैं। उन दिनों की उन सब सुख-दुःख की धारणाओं से आज की धारणा में कितना भेद है, कोई ठीक है! फिर भी चलने लगा। अब तो मेरे अन्दर इस जंगल में रात बिताने का न साहस ही रहा, और न शक्ति ही बाकी रही। आज के लिए कोई आश्रय तो ढूँढ़ निकालना ही होगा। तकदीर अच्छी थी, ज्यादा दूर न चलना पड़ा। पेड़ के घने पत्तों में से कोई एक पक्का मकान-सा दिखाई दिया। थोड़ी दूर घूमकर मैं उस मकान के सामने पहुँच गया। "बाबू साहब, चारेक पैसा देंगे?" "क्यों, किसलिए?" "भूख के मारे मरा जाता हूँ बाबूजी, कुछ चबेना-अवेना खरीद के खाना चाहता हूँ।" मैंने पूछा, "तुम मरीज आदमी हो, अंट-संट खाने की तुम्हें मनाई नहीं है?" "यहाँ से तुम्हें खाने को नहीं मिलता?" उसने जो कुछ कहा, उसका सार यह है- सबेरे एक कटोरा साबू दिए गये थे, सो कभी के खा चुका। तब से वह गेट के पास बैठा रहता है- भीख में कुछ मिल जाता है तो शाम को पेट भर लेता है, नहीं तो उपास करके रात काट देता है। एक डॉक्टर भी हैं, शायद उन्हें बहुत ही थोड़ा हाथ-खर्च के लिए कुल मिला करता है। सबेरे एक बार मात्र उनके दर्शन होते हैं। और एक आदमी मुकर्रर है, उसे कम्पाउण्डरी से लेकर लालटेन में तेल भरने तक का सभी काम करना पड़ता है। पहले एक नौकर था, पर इधर छह-सात महीने से तनखा न मिलने के कारण वह भी चला गया है। अभी तक कोई नया आदमी भरती नहीं हुआ। मैंने पूछा, "झाड़ु-आड़ु कौन लगाता है?" उसने कहा, "आजकल तो मैं ही लगाता हूँ। मेरे चले जाने पर फिर जो नया रोगी आयेगा वह लगायगा- और कौन लगायगा?" मैंने कहा, "अच्छा इन्तजाम है! अस्पताल यह है किसका, जानते हो?" वह भला आदमी मुझे उस तरफ के बरामदे में ले गया। छत की कड़ी में लगे हुए तार से एक टीन की लालटेन लटक रही थी। कम्पाउण्डर साहब उस सिदौसे ही जलाकर काम खत्म करके अपने घर चले गये हैं। दीवार में एक बड़ा भारी पत्थर जड़ा हुआ है, जिसपर सुनहरी अंगरेजी हरूफों में ऊपर से नीचे तक सन् अंगरेजी तारीख आदि खुदे हुए हैं- यानी पूरा शिलालेख है। जिले के जिन साहब मजिस्ट्रेट ने अपरिसीम दया से प्रेरित होकर इसका शिलारोपण या द्वारोद्धाटन सम्पन्न किया था, सबसे पहले उनका नाम-धाम है, और सबसे नीचे है प्रशस्ति-पाठ। किसी एक राव बहादुर ने अपनी रत्नगर्भा माता की स्मृति-रक्षार्थ जननी-जन्मभूमि पर इस अस्पताल की प्रतिष्ठा कराई है। इसमें सिर्फ माता-पुत्र का ही वर्णन नहीं बल्कि ऊधर्वतन तीन-चार पीढ़ियों का भी पूरा विवरण है। अगर इसे छोटी कुल-कारिका कहा जाय, तो शायद अत्युक्ति न होगी। इसके प्रतिष्ठाता महोदय राज-सरकार की रायबहादुरी के योग्य पुरुष थे, इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं। कारण रुपये बरबाद करने की ओर से उन्होंने कोई त्रुटि नहीं की। ईंट और काठ तथा विलायती लोहे के बिल चुकाने के बाद अगर कुछ बाकी बचा होगा, तो वह साहब-शिल्पकारों के हाथ से वंग-गौरव लिखवाने में ही समाप्त हो गया होगा। डॉक्टर और मरीजों के औषधि-पथ्यादि की व्यवस्था करने के लिए शायद रुपये भी न बचे होंगे और फुरसत भी न हुई होगी। मैंने पूछा, "रायबहादुर रहते कहाँ हैं?" उसने कहा, "ज्यादा दूर नहीं, पास ही रहते हैं।" "अभी जाने से मुलाकात होगी?" "जी नहीं, घर पर ताला लगा होगा, घर के सबके सब कलकत्ते रहते हैं।" मैंने पूछा, "कब आया करते हैं, जानते
हो?" असल में वह परदेशी है, ठीक-ठीक हाल नहीं बता सका। फिर भी बोला कि तीनेक साल पहले एक बार आए थे- डॉक्टर के मुँह सुना था उसने। सर्वत्र एक ही दशा है, अतएव दुःखित होने की कोई खास बात नहीं थी। इधर अपरिचित स्थान में संध्याी बीती जा रही थी और अंधेरा बढ़ रहा था; लिहाजा, रायबहादुर के कार्य-कलापों की पर्यालोचना करने की अपेक्षा और भी जरूरी काम करना बाकी था। उस आदमी को कुछ पैसे देकर मालूम किया कि पास ही चक्रवर्तियों का एक घर मौजूद है। वे अत्यन्त दयालु हैं, उनके यहाँ कम-से-कम रात भर के लिए आश्रय तो मिल ही जायेगा। वह खुद ही राजी होकर मुझे अपने साथ वहाँ ले चला; बोला, "मुझे मोदी की दुकान पर तो जाना ही है, जरा-सा घूमकर आपको पहुँचा दूँगा, कोई बात नहीं।" चलते-चलते बातचीत से समझ गया कि उक्त दयालु ब्राह्मण-परिवार से उसने भी कितनी ही शाम पथ्यापथ्य संग्रह करके गुप्तरूप से पेट भरा है। दसेक मिनट पैदल चलकर चक्रवर्ती की बाहर वाली बैठक में पहुँच गया। मेरे पथ-प्रदर्शक ने आवाज दी, "पण्डितजी घर पर हैं?" कोई जवाब नहीं मिला। सोच रहा था, किसी सम्पन्न ब्राह्मण के घर आतिथ्य ग्रहण करने जा रहा हूँ; परन्तु, घर-द्वार की शोभा देखकर मेरा मन बैठ-सा गया। उधर से कोई जवाब नहीं, और इधर से मेरे साथी के अपराजेय अध्यवसाय का कोई अन्त नहीं। अन्यथा यह गाँव और यह अस्पताल बहुत दिन पहले ही उसकी रुग्ण आत्मा को स्वर्गीय बनाकर छोड़ता। वह आवाज पर आवाज लगाता ही रहा। सहसा जवाब आया, "जा जा, आज जा। जा, कहता हूँ।" मेरा साथी किसी भी तरह विचलित नहीं हुआ, बोला, "कौन आये हैं, निकल के देखिए तो सही।" परन्तु मैं विचलित हो उठा। मानो चक्रवर्ती का परम-पूज्य गुरुदेव घर पवित्र करने अकस्मात् आविर्भूत हुआ हो। नेपथ्य का कण्ठ-स्वर क्षण में मुलायम हो उठा, "कौन है रे भीमा?" यह कहते हुए घर-मालिक दरवाजे के पास आये दिखाई दिये। मैली धोती पहने हुए थे, सो भी बहुत छोटी। अन्धकारप्राय संध्यां की छाया में उनकी उमर मैं न कूत सका, मगर बहुत ज्यादा तो नहीं मालूम हुई। फिर उन्होंने पूछा, "कौन है रे भीमा?" समझ गया कि मेरे संगी का नाम भीम है। भीम ने कहा, "भले आदमी हैं, ब्राह्मण महाराज हैं। रास्ता भूलकर अस्पताल में पहुँच गये थे। मैंने कहा, "डरते क्यों हैं, चलिए, मैं पण्डितजी के यहाँ पहुँचाए देता हूँ, गुरु की सी खातिरदारी में रहिएगा।" वास्तव में भीम ने अतिशयोक्ति नहीं की, चक्रवर्ती महाशय ने मुझे परम समादर के साथ ग्रहण किया। अपने हाथ से चटाई बिछाकर बैठने के लिए कहा, और तमाखू पीता हूँ या नहीं, पूछकर भीतर जाकर वे खुद ही हुक्का भर लाये। बोले, "नौकर-चाकर सब बुखार में पड़े हैं- क्या किया जाय!" सुनकर मैं अत्यन्त कुण्ठित हो उठा। सोचा, एक चक्रवर्ती के घर से निकलकर दूसरे चक्रवर्ती के घर आ फँसा। कौन जानें, यहाँ का आतिथ्य कैसा रूप धारण करेगा। फिर भी हुक्का हाथ में पाकर पीने की तैयारी कर ही रहा था कि इतने में सहसा भीतर से एक तीक्ष्ण कण्ठ का प्रश्न आया, "क्यों जी, कौन आदमी आया है?" अनुमान किया कि यही घर की गृहिणी हैं। जवाब देने में सिर्फ चक्रवर्ती का ही गला नहीं काँपा, मेरा हृदय भी काँप उठा। उन्होंने झटपट कहा, "बड़े भारी आदमी हैं जी, बड़े भारी आदमी। ब्राह्मण हैं- नारायण। रास्ता भूलकर आ पड़े हैं- सिर्फ रातभर रहेंगे- भोर होने के पहले, तड़के ही चले जाँयगे।" भीतर से जवाब आया, "हाँ हाँ, सभी कोई आते हैं रास्ता भूलकर। मुँहजले अतिथियों का तो नागा ही नहीं। घर में न तो एक मुट्ठी चावल है, न दाल-खिलाऊँगी क्या चूल्हे की भूभड़?" मेरे हाथ का हुक्का हाथ में ही रह गया। चक्रवर्तीजी ने कहा, "ओहो, तुम यह सब क्या बका करती हो! मेरे घर में दाल-चावल की कमी! चलो चलो, भीतर चलो, सब ठीक किये देता हूँ।" चक्रवर्ती-गृहिणी भीतर चलने के लिए बाहर नहीं आई थीं। बोलीं, "क्या ठीक कर दोगे, सुनूँ तो सही? सिर्फ मुट्ठीभर चावल है, सो बच्चों के पेट में भी तो राँधकर डालना है। उन बेचारों को उपास रखकर मैं उसे लीलने दूँगी? इसका खयाल भी न लाना।" माता धारित्री, फट जा, फट जा! 'नहीं-नहीं' कहके न-जाने क्या कहना चाहता था परन्तु चक्रवर्ती जी के विपुल क्रोध में वह न जाने कहाँ बह गया। उन्होंने 'तुम' छोड़कर फिर 'तू' कहना शुरू किया। और अतिथि-सत्कार के विषय को लेकर पति-पत्नी में जो वार्तालाप शुरू हुआ, उसकी भाषा जैसी थी, गम्भीरता भी वैसी ही थी- उसकी उपमा नहीं मिल सकती। मैं रुपये लेकर नहीं निकला था- जेब में जो थोड़े-से पैसे पड़े थे, वे भी खर्च हो चुके थे। कुरते में सोने के बटन अलबत्ता थे। पर वहाँ कौन किसकी सुनता है! व्याकुल होकर एक बार उठके खड़े होने की कोशिश करने पर चक्रवर्तीजी ने जोर से मेरा हाथ पकड़ लिया और कहा, "आप अतिथि-नारायण हैं। विमुख होकर चले जाँयगे तो मैं गले में फाँसी लगा लूँगा।" गृहिणी इस
से रंचमात्र भी भयभीत नहीं हुई, उसी वक्त चैलेद्बज एक्सेप्ट करके बोलीं, "तब तो जी जाऊँ। भीख माँग-मूँगकर अपने बच्चों का पेट भर सकूँगी।" इधर मेरी लगभग हिताहित-ज्ञान-शून्य होने की नौबत आ पहुँची थी; मैं सहसा कह बैठा, "चक्रवर्तीजी, से न हो तो और किसी दिन सोच-विचार कर धीरे सुस्ते लगाइएगा- लगाना ही अच्छा है- मगर, फिलहाल या तो मुझे छोड़ दीजिए, और न हो तो मुझे भी एक फाँसी की रस्सी दे दीजिए, उसमें लटककर आपको इस आतिथ्य-दाय से मुक्त कर दूँ।" चक्रवर्तीजी ने अन्तःपुर की तरफ लक्ष्य करके जोर से चिल्लाकर कहा, "अब कुछ शिक्षा हुई? पूछता हूँ, सीखा कुछ?" जवाब आया, "हाँ।" और कुछ ही क्षण बाद भीतर से सिर्फ एक हाथ बाहर निकल आया। उसने धम्म से एक पीतल का कलसा जमीन पर धर दिया, और साथ-ही-साथ आदेश दिया, "जाओ, श्रीमन्त की दुकान से, इसे रखकर, दाल-चावल-घी-नामक ले आओ। जाओ। देखना कहीं वह हाथ में पाकर सब पैसे न काट ले।" चक्रवर्ती खुश हो उठे। बोले, "अरे, नहीं, नहीं, यह क्या बच्चे के हाथ का लडुआ है?" चट से हुक्का उठाकर दो-चार बार धुऑं खींचने के बाद वे बोले, "आग बुझ गयी। सुनती हो जी, जरा चिलम तो बदल दो, एक बार पीकर ही जाऊँ। गया और आया, देर न होगी।" यह कहते हुए उन्होंने चिलम हाथ में लेकर भीतर की ओर बढ़ा दी। बस, पति-पत्नी में सन्धि हो गयी। गृहिणी ने चिलम भर दी, और पतिदेव ने जी भरके हुक्का पिया। फिर वे प्रसन्न चित्त से हुक्का मेरे हाथ में थमाकर कलसा लेकर बाहर चले गये। चावल आयी, दाल आयी, घी आया, नमक आया, और यथासमय रसोईघर में मेरी पुकार हुई। भोजन में रंचमात्र भी रुचि नहीं थी, फिर भी चुपचाप उठकर उस ओर चल दिया। कारण, आपत्ति करना सिर्फ निष्फल ही नहीं बल्कि 'ना' कहने में खतरे की भी आशंका हुई। इस जीवन में बहुत बार बहुत जगह मुझे बिन-माँगे आतिथ्य स्वीकार करना पड़ा है। सर्वत्र ही मेरा समादर हुआ है यह कहना तो झूठ होगा; परन्तु, ऐसा स्वागत भी कभी मेरे भाग्य में नहीं जुटा था। मगर अभी तो बहुत सीखना बाकी था। जाकर देखा कि चूल्हा जल रहा है, और वहाँ भोजन के बदले केले के पत्तों पर चावल-दाल-आलू और एक पीतल की हँड़िया रक्खी है। चक्रवर्ती ने बड़े उत्साह के साथ कहा, "बस चढ़ा दीजिए हँड़िया, चटपट हो जायेगा सब। मसूर की खिचड़ी, आलू-भात है ही, मजे की होगी खाने में। घी है ही, गरम-गरम।" चक्रवर्ती महाशय की रसना सरस हो उठी। परन्तु मेरे लिए यह घटना और भी जटिल हो गयी। मैंने, इस डर से कि मेरी किसी बात या काम से फिर कहीं कोई प्रलय-काण्ड न उठ खड़ा हो, तुरन्त ही उनके निर्देशानुसार हँड़िया चढ़ा दी। चक्रवर्ती-गृहिणी नेपथ्य में छिपी खड़ी थीं। स्त्री की ऑंखों से मेरे अपटु हाथों का परिचय छिपा न रहा। अब तो उन्होंने मुझे ही लक्ष्य करके कहना शुरू किया। उनमें और चाहे जो भी दोष हो, संकोच या ऑंखों का लिहाज आदि का अतिबाहुल्य-दोष नहीं था, इस बात को शायद बड़े से बड़ा निन्दाकारी भी स्वीकार किये बिना न रह सकेगा। उन्होंने कहा, "तुम तो बेटा, राँधना जानते ही नहीं।" मैंने उसी वक्त उनकी बात मान ली, और कहा, "जी नहीं।" उन्होंने कहा, "वे कह रहे थे, परदेसी आदमी हैं, कौन जानेगा कि किसने राँधा और किसने खाया! मैंने कहा, सो नहीं हो सकता, एक रात के लिए मुट्ठीभर भात खिलाकर मैं आदमी की जात नहीं बिगाड़ सकती। मेरे बाप अग्रदानी ब्राह्मण हैं।" मेरी हिम्मत ही न हुई कि कह दूँ कि मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं, बल्कि इससे भी बढ़कर बड़े-बड़े पाप मैं इसके पहले ही कर चुका हूँ- क्योंकि डर था कि इससे भी कहीं कोई उपद्रव न उठ खड़ा हो। मन में सिर्फ एक ही चिन्ता थी कि किस तरह रात बीतेगी और कैसे इस घर के नागपाश से छुटकारा मिलेगा। लिहाजा, उनके निर्देशानुसार खिचड़ी भी बनाई और उसका पिण्ड-सा बनाकर घी डालकर- उस तोहफे को लीलने की कोशिश भी की। इस असाध्यर को मैंने किस तरह साध्ये या सम्पन्न किया, सो आज भी मुझसे छिपा नहीं है। बार-बार यही मालूम होने लगा कि वह चावल-दाल का पिण्डाकार तोहफा पेट के भीतर जाकर पत्थर का पिण्ड बन गया है। अध्यवसाय से बहुत कुछ हो सकता है। परन्तु उसकी भी एक हद है। हाथ-मुँह धोने का भी अवसर न मिला, सब बाहर निकल गया! मारे डर के मेरी सिट्टी गुम हो गयी; क्योंकि, उसे मुझे ही साफ करना पड़ेगा, इसमें तो कोई शक नहीं। मगर उतनी ताकत भी अब न रह गयी। ऑंखों की दृष्टि धुँधली हो आयी। किसी तरह मैं इतना कह सका, "चार-छह मिनट में अपने को सँभाले लेता हूँ, फिर सब साफ कर दूँगा।" सोचा था कि जवाब में न जाने क्या-क्या सुनना पड़ेगा। मगर आश्चर्य है कि उस महिला का भयानक कण्ठ-स्वर अकस्मात् ही कोमल हो गया। वे अंधेरे में से निकलकर मेरे सामने आ गयीं। बोलीं, "तुम क्यों साफ करोगे बेटा, मैं ही सब किये देती हूँ। बाहर के बिछौना तो अभी कर नहीं पाई, तब तक चलो तुम, मेरी ही कोठरी में चलकर लेट
रहो।" 'ना' कहने का सामर्थ्य मुझमें न था। इसलिए, चुपचाप उनके पीछे पीछे जाकर, उन्हीं की शतछिन्न शय्या पर ऑंख मींचकर पड़ रहा। बहुत अबेर में जब नींद खुली, तब ऐसे जोर से बुखार चढ़ रहा था कि मुझमें सिर उठाने की भी शक्ति न थी। सहज में मेरी ऑंखों से ऑंसू नहीं गिरते, पर आज, यह सोचकर कि इतने बड़े अपराध की अब किस तरह जवाबदेही करूँगा, खालिस और निरवछिन्न आतंक से ही मेरी ऑंखें भर आयीं। मालूम हुआ कि बहुत बार बहुत-सी निरुद्देश यात्राएँ मैंने की हैं, परन्तु इतनी बड़ी विडम्बना जगदीश्वर ने और कभी मेरे भाग्य में नहीं लिखी। और फिर एक बार मैंने जी-जान से उठने की कोशिश की, किन्तु किसी तरह सिर सीधा न कर सका और अन्त में ऑंख मींचकर पड़ रहा। आज चक्रवर्ती-गृहिणी से रू-ब-रू बातचीत हुई। शायद अत्यन्त दुःख में से ही नारियों का सच्चा और गहरा परिचय मिला करता है। उन्हें पहिचान लेने की ऐसी कसौटी भी और कुछ नहीं हो सकती, और पुरुष के पास उनका हृदय जीतने के लिए इतना बड़ा अस्त्र भी और कोई नहीं होगा। मेरे बिछौने के पास आकर वे बोलीं, "नींद खुली बेटा?" मैंने ऑंखें खोलकर देखा। उनकी उमर शायद चालीस के लगभग होगी- कुछ ज्यादा भी हो सकती है। रंग काला है, पर नाक-ऑंख साधारण भद्र-गृहस्थ-घर की स्त्रियों के समान ही हैं, कहीं भी कुछ रूखापन नहीं, कुछ है तो सिर्फ सर्वांगव्यापी गम्भीर दारिद्य और अनशन के चिह्न-दृष्टि पड़ते ही यह बात मालूम हो जाती है। उन्होंने फिर पूछा, "अंधेरे में दिखाई नहीं देता बेटा, पर, मेरा बड़ा लड़का जीता रहता तो तुम-सा ही बड़ा होता।" इसका क्या उत्तर दूँ? उन्होंने चट से मेरे माथे पर हाथ रखकर कहा, "बुखार तो अब भी खूब है।" मैंने ऑंखें मींच ली थीं। ऑंखें मींचे ही मींचे कहा, "कोई जरा सहारा दे दे, तो शायद, अस्पताल तक पहुँच जाऊँगा- कोई ज्यादा दूर थोड़े ही है।" मैं उनका चेहरा तो न देख सका, पर इतना तो समझ गया कि मेरी बात से उनका कण्ठस्वर मानो वेदना से भर आया। बोलीं, "दुःख की जलन से कल कई एक बातें मुँह से निकल गयी हैं, इसी से, बेटा, गुस्सा होकर उस जमपुरी में जाना चाहते हो? और तुम जाना भी चाहोगे तो मैं जाने कब दूँगी?" इतना कहकर वे कुछ देर तक चुपचाप बैठी रहीं, फिर धीरे से बोलीं, "रोगी से नियम नहीं बनता बेटा, देखो न, जो लोग अस्पताल में जाकर रहते हैं, उन्हें वहाँ किस-किसका छुआ हुआ नहीं खाना पड़ता है, बताओ? पर उससे जात थोड़े ही जाती है। मैं साबू बार्ली बनाकर दूँ, तो तुम न खाओगे?" मैंने गरदन हिलाकर जताया कि इसमें मुझे रंचमात्र भी आपत्ति नहीं और सिर्फ बीमार हूँ इसलिए नहीं, अत्यन्त निरोग अवस्था में भी मुझे इससे कोई परहेज नहीं। अतएव, वहीं रह गया। कुल मिलाकर शायद चारेक दिन रहा। फिर भी उन चार दिनों की स्मृति सहज में भूलने की नहीं। बुखार एक ही दिन में उतर गया, पर बाकी दिनों में, कमजोर होने के कारण, उन्होंने मुझे वहाँ से हिलने भी न दिया। कैसे भयानक दारिद्रय में इस ब्राह्मण-परिवार के दिन कट रहे हैं, और उस दुर्गति को बिना किसी कुसूर के हजार-गुना कड़घआ कर रक्खा है समाज के अर्थहीन पीड़न ने। चक्रवर्ती-गृहिणी अपनी अविश्रान्त मेहनत के भीतर से भी जरा सी फुरसत पाने पर, मेरे पास आकर बैठ जाती थीं। सिर और माथे पर हाथ फेर देती थीं। तैयारियों के साथ रोग का पथ्य न जुटा सकती थीं, पर उस त्रुटि को अपने व्यवहार और जतन से पूरा कर देने के लिए कैसी एकाग्र चेष्टा उनमें पाता था। पहले इनकी अवस्था कामचलाऊ अच्छी थी। जमीन-जायदाद भी ऐसी कुछ बुरी नहीं थी। परन्तु, उनके अल्पबुद्धि पति को लोगों ने धोखा दे-देकर आज उन्हें ऐसे दुःख में डाल दिया है। वे आकर रुपये उधार माँगते थे; कहते थे- हैं तो यहाँ बहुत-से बड़े आदमी, पर कितनों की छाती पर इतने बाल हैं? लिहाजा छाती के उन बालों का परिचय देने के लिए कर्ज करके कर्ज दिया करते थे। पहले तो हाथ चिट्ठी लिखाकर और बाद में स्त्री से छिपाकर जमीन गहने रखकर कर्ज देने लगे। नतीजा अधिकांश स्थलों पर जैसा होता है, यहाँ भी वैसी ही हुआ। यह कुकार्य चक्रवर्ती के लिए असाध्य् नहीं, इस बात पर मुझे, एक ही रात की अभिज्ञता से, पूरा विश्वास हो गया। बुद्धि के दोष से धन-सम्पत्ति बहुतों की नष्ट हो जाती है, उसका परिणाम भी अत्यन्त दुःखमय होता है, परन्तु यह दुःख समाज की अनावश्यक और अन्धी निष्ठुरता से कितना ज्यादा बढ़ सकता है, इसका मुझे चक्रवर्ती-गृहिणी की प्रत्येक बात से, नस-नस में, अनुभव हो गया। उनके यहाँ सिर्फ दो सोने की कोठरियाँ हैं, एक में लड़के-बच्चे रहते हैं और दूसरी पर बिल्कुयल और बाहर का आदमी होते हुए भी मैंने दखल जमा लिया। इससे मेरे संकोच की सीमा न रही। मैंने कहा, "आज तो मेरा बुखार उतर गया है और आप लोगों को भी बड़ी तकलीफ हो रही है। अगर बाहर वाली बैठक में मेरा बिस्तर कर दें, तो मुझे बहुत सन्तोष हो।" ग
ृहिणी ने गरदन हिलाकर जवाब दिया, "सो कैसे हो सकता है बेटा! बादल घिर रहे हैं, अगर वर्षा हुई तो उस कमरे में ऐसी जगह ही न रहेगी जहाँ सिर भी रखा जा सके। तुम अभी कमजोर ठहरे, इतना साहस तो मुझसे न होगा।" उनके ऑंगन में एक तरफ कुछ पुआल पड़ा था, उस पर मैंने गौर किया था। उसी की तरफ इशारा करके मैंने पूछा, "पहले से मरम्मत क्यों नहीं करा ली? ऑंधी-मेह के दिन तो आ भी गये।" इसके उत्तर में मालूम हुआ कि मरम्मत कराना कोई आसान बात नहीं। पतित ब्राह्मण होने से इधर का कोई किसान-मजूर उनका काम नहीं करता। आन गाँव में जो मुसलमान काम करने वाले हैं, वे ही घर छा जाते हैं। किसी भी कारण से हो, इस साल वे आ नहीं सके। इसी प्रसंग में वे सहसा रो पड़ीं, बोली, "बेटा, हम लोगों के दुःख का क्या कोई अन्त है? उस साल मेरी सात-आठ साल की लड़की अचानक हैजे में मर गयी; पूजा के दिन थे, मेरे भइया गये थे काशीजी घूमने, सो और कोई आदमी न मिलने से छोटे लड़के के साथ अकेले इन्हीं को मसान जाना पड़ा। सो भी क्या किरिया-करम ठीक से हो सका? लकड़ी तक किसी ने काटने न दी। बाप होकर गङ्ढा खोद के गाड़-गूड़कर इन्हें घर लौट आना पड़ा।" कहते-कहते उनका दबा हुआ पुराना शोक एकबारगी नया होकर दिखाई दे गया। ऑंखें पोंछती हुई जो कुछ कहने लगीं, उसमें मुख्य शिकायत यह थी कि उनके पुरखों में किसी समय किसी ने श्राद्ध का दान ग्रहण किया था- बस यही कसूर हो गया- और श्राद्ध तो हिन्दू का अवश्य कर्त्तव्य है, कोई तो उसका दान लेगा ही, नहीं तो वह श्राद्ध ही असिद्ध और निष्फल हो जायेगा। फिर दोष इसमें कहाँ है? और दोष अगर हो ही, तो आदमी को लोभ में फँसाकर उस काम में प्रवृत्त ही क्यों किया जाता है? इन प्रश्नों का उत्तर देना जितना कठिन है, इतने दिनों बाद इस बात का पता लगाना भी दुःसाध्यन है कि उन पुरखों की किस दुष्कृति के दण्डस्वरूप उनके वंशधरों को ऐसी विडम्बना सहनी पड़ रही है। श्राद्ध का दान लेना अच्छा है या बुरा, सो मैं नहीं जानता। बुरा होने पर भी यह बात सच है कि व्यक्तिगत रूप से इस काम को वे नहीं करते, इसलिए वे निरपराध हैं। अफसोस तो इस बात का है कि मनुष्य, पड़ोसी होकर, अपने दूसरे पड़ोसी की जीवन-यात्रा का मार्ग, बिना किसी दोष के, इतना दुर्गम और दुःखमय बना दे सकता है, ऐसी हृदयहीन निर्दय बर्बरता का उदाहरण दुनिया में शायद सिर्फ हिन्दू समाज के सिवा और कहीं न मिलेगा। उन्होंने फिर कहा, "इस गाँव में आदमी ज्यादा नहीं हैं, मलेरिया बुखार और हैजे से आधे मर गये हैं। अब सिर्फ ब्राह्मण, कायस्थ और राजपूतों के घर बचे हैं। हम लोग तो लाचार हैं बेटा, नहीं तो जी चाहता है कि कहीं किसी मुसलमानों के गाँव में जा रहें।" मैंने कहा, "मगर वहाँ तो जात जा सकती है?" उन्होंने इस प्रश्न का ठीक जवाब नहीं दिया, बोलीं, "नाते में मेरे एक चचिया-ससुर लगते हैं, वे दुमका गये थे, नौकरी करने, सो ईसाई हो गये थे। उन्हें अब कोई तकलीफ नहीं है।" मैं चुप रह गया। कोई हिन्दू-धर्म छोड़कर दूसरा धर्म ग्रहण करने को मन ही मन उत्सुक हो रहा है, यह सुनकर मुझे बड़ा दुःख होता है। मगर उन्हें सान्त्वना भी देना चाहूँ तो दूँ क्या कहकर? अब तक मैं यही समझता था कि सिर्फ अस्पृश्य नीच जातियाँ ही हिन्दू-समाज में अत्याचार सहा करती हैं, मगर आज समझा कि बचा कोई भी नहीं है। अर्थहीन अविवेचन से परस्पर एक-दूसरे के जीवन को दूभर कर डालना ही मानो इस समाज का मज्जागत संस्कार है। बाद में बहुतों से मैंने पूछा है, और बहुतों ने इस बात को स्वीकार करते हुए कहा है, कि यह अन्याय है, यह गर्हित है, बुरी बात है; फिर भी इसके निराकरण का वे कोई भी मार्ग नहीं बतला पाते। वे इस अन्याय के बीच में से जन्म से लेकर मौत तक चलने के लिए राजी हैं, पर प्रतिकार की प्रवृत्ति या साहस- इन दोनों में से कोई भी बात उनमें नहीं। जानने-समझने के बाद भी अन्याय के प्रतिकार कर नेकी शक्ति जिनमें से इस तरह बिला गयी है, वह जाति अधिक दिनों तक कैसे जीवित रह सकती है, यह सोच-समझ सकना मुश्किल ही है। तीन दिन के बाद, स्वस्थ होकर, मैं जब सबेरे ही जाने को तैयार हुआ, तो मैंने कहा, "माँ, आज मुझे विदा दीजिए।" चक्रवर्ती-गृहिणी की दोनों ऑंखों में ऑंसू भर आये। कहा, "दुःखियों के घर बहुत दुःख पाया बेटा, तुम्हें कड़घई बातें भी कम सुननी पड़ीं।" इस बात का उत्तर ढूँढे न मिला। "नहीं, नहीं सो कोई बात नहीं- मैं बड़े आराम से रहा, मैं बहुत कृतज्ञ हूँ।" इत्यादि मामूली शराफत की बातें कहने में भी मुझे शरम होने लगी। वज्रानन्द की बात याद आयी। उसने एक दिन कहा था, "घर त्याग आने से क्या होता है? इस देश में घर माँ-बहिनें मौजूद हैं, हमारी मजाल क्या है कि हम उनके आकर्षण से बचकर निकल जाँय।" बात असल में कितनी सत्य है! अत्यन्त गरीबी और कमअक्ल पति के अविचारित रम्य या ऊटपटाँग कार्यकलापों ने इस गृहस
्थ-घर की गृहिणी को लगभग पागल बना दिया है, परन्तु जब उनको अनुभव हुआ कि मैं बीमार हूँ, लाचार हूँ- तब तो उनके लिए सोचने की कोई बात ही नहीं रह गयी। मातृत्व के सीमाहीन स्नेह से मेरे रोग तथा पराये घर ठहरने के सम्पूर्ण दुःख को मानो उन्होंने अपने दोनों हाथों से एकबारगी पोंछकर अलग कर दिया। चक्रवर्तीजी कोशिश करके कहीं से एक बैलगाड़ी जुटा लाये। गृहिणी की बड़ी भारी इच्छा थी कि मैं नहा-धो और खा-पीकर जाऊँ, परन्तु धूप और गरमी बढ़ जाने की आशंका से वे ज्यादा अनुरोध न कर सकीं। चलते समय सिर्फ देवी-देवताओं का नाम-स्मरण करके ऑंखें पोंछती हुई बोलीं, "बेटा, यदि कभी इधर आओ, तो एक बार यहाँ जरूर हो आना ।" उधर जाना भी कभी नहीं हुआ, और वहाँ जरूर हो आना भी मुझसे न बन सका। बहुत दिनों बाद सिर्फ इतना सुना कि राजलक्ष्मी ने कुशारी महाशय के हाथ से उन लोगों का बहुत-सा कर्जा अपने ऊपर ले लिया है। करीब तीसरे पहर गंगामाटी, घर पर पहुँचा। द्वार के दोनों तरफ कदलीवृक्ष और मंगल-घट स्थापित थे। ऊपर आम्र-पल्लवों के बन्दनवार लटक रहे थे। बाहर बहुत से लोग इकट्ठे बैठे तमाखू पी रहे थे। बैलगाड़ी की आहट से उन लोगों ने मुँह उठाकर देखा। शायद इसी के मधुर शब्द से आकृष्ट होकर और एक साहब अकस्मात् सामने आ खड़े हुए- देखा तो वज्रानन्द हैं। उनका उल्लसित कलरव उद्दाम हो उठा, और तब कोई आदमी दौड़कर भीतर खबर देने भी चला गया। स्वामीजी कहने लगे कि "मैंने आकर सब हाल सबसे कह सुनाया है। तबसे बराबर चारों तरफ आदमी भेजकर तुम्हें ढूँढ़ा जा रहा है- एक ओर जैसे कोशिश करने में कोई बात उठा न रखी गयी, वैसे ही दूसरी ओर दुश्चिन्ता की भी कोई हद नहीं रही। आखिर माजरा क्या था? अचानक कहाँ डुबकी लगा गये थे, बताइए तो? गाड़ीवान छोकरे ने तो जाकर कहा कि आपको वह गंगामाटी के रास्ते में उतारकर चला आया है।" राजलक्ष्मी काम में व्यस्त थी, उसने आकर पैरों के आगे माथा टेककर प्रणाम किया और कहा, "घर-भर को, सबको तुमने कैसी कड़ी सजा दी है, कुछ कहने की नहीं।" फिर वज्रानन्द को लक्ष्य करके कहा, "मेरा मन जान गया था कि आज ये आयेंगे ही।" मैंने हँसकर कहा, "द्वार पर केले के थम्भ और घट-स्थापना देखकर ही मैं समझ गया कि मेरे आने की खबर तुम्हें मिल गयी है।" दरवाजे की ओट में रतन आकर खड़ा था। वह चट से बोल उठा, "जी नहीं, इसलिए नहीं- आज घर पर ब्राह्मण-भोजन होगा न, इसीलिए। वक्रनाथ के दर्शन कर आने के बाद से माँ..." राजलक्ष्मी ने डाँट लगाकर उसे जहाँ का तहाँ रोक दिया, "अब व्याख्या करने की जरूरत नहीं, तू जा, अपना काम देख।" उसके सुर्ख चेहरे की तरफ देखकर वज्रानन्द हँस दिया, बोला, "समझे नहीं भाई साहब, किसी भी काम में लगे रहने से मन की उत्कण्ठा बहुत बढ़ जाती है। सही नहीं जाती। यह ब्राह्मण-भोजन का आयोजन सिर्फ इसीलिए है। क्यों जीजी, है न यही बात?" राजलक्ष्मी ने कोई जवाब नहीं दिया, "वह गुस्सा होकर वहाँ से चल दी। वज्रानन्द ने पूछा, "बड़े दुबले-से मालूम पड़ते हो भाई साहब, इस बीच में क्या बात हो गयी थी, बताइए तो? घर न आकर अचानक गायब क्यों हो गये थे?" गायब होने का कारण विस्तार के साथ सुना दिया। सुनकर आनन्द ने कहा, "भविष्य में अब कभी इस तरह न भागियेगा। किस तरह इनके दिन कटे हैं, सो ऑंख से देखे बगैर विश्वास नहीं किया जा सकता।" यह मैं जानता था। लिहाजा, ऑंखों से बिना देखे ही मैंने विश्वास कर लिया। रतन चाय और हुक्का दे गया। आनन्द ने कहा, "मैं भी बाहर जाता हूँ भाई साहब। इस वक्त आपके पास बैठे रहने से कोई एक जनी शायद इस जनम में मेरा मुँह न देखेंगी।" यह कहकर हँसते हुए उन्होंने प्रस्थान किया। कुछ देर बाद राजलक्ष्मी ने प्रवेश करके अत्यन्त स्वाभाविक भाव से कहा, "उस कमरे में गरम पानी, अंगौछा, धोती, सब रख आई हूँ- सिर्फ सिर और देह अंगौछकर कपड़े बदल डालो जाकर। बुखार में, खबरदार, सिर पर पानी न डाल लेना, कहे देती हूँ।" मैंने कहा, "मगर स्वामीजी से तुमने गलत बात सुनी है; बुखार मुझे नहीं है।" राजलक्ष्मी ने कहा, "नहीं है तो न सही, पर होने में देर कितनी लगती है?" मैंने कहा, "इसकी खबर तो तुम्हें ठीक दे नहीं सकता, पर मारे गर्मी के मेरा तो सारा शरीर जला जा रहा है, नहाना जरूरी है मेरे लिए।" राजलक्ष्मी ने कहा, "जरूरी है क्या? तो फिर अकेले तुमसे न बन पड़ेगा। चलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूँ।" इतना कहकर वह खुद ही हँस पड़ी और बोली, "क्यों झगड़ा करके मुझे तकलीफ दे रहे हो और खुद भी परेशानी उठा रहे हो। इतनी अबेर में मत नहाओ, मान जाओ, तुम्हें मेरी कसम है।" इस ढंग की बात करने में राजलक्ष्मी बेजोड़ है। अपनी इच्छा को ही जबर्दस्ती दूसरे के कन्धों पर लाद देने के कड़घएपन को वह स्नेह के मधुर रस से इस तरह भर दे सकती है कि उस जिद के विरुद्ध किसी का भी कोई संकल्प सिर नहीं उठा सकता। बात बिल्कुाल तुच्छ है, स्नान
न करने से भी मेरा चल जायेगा; किन्तु जिन्हें किये बिना नहीं चल सकता ऐसे कामों में भी, बहुत बार देखा है कि, उसकी इच्छा-शक्ति को अतिक्रम करके चलने की शक्ति मुझमें नहीं। मुझमें ही क्यों, किसी में भी वह शक्ति मैंने नहीं देखी। मुझे उठाकर वह भोजन लाने चली गयी। मैंने कहा, "पहले तुम्हारे ब्राह्मण-भोजन का काम निबट जाने दो न?" राजलक्ष्मी ने आश्चर्य के साथ कहा, "माफ करो तुम, वह काम निबटते-निबटते तो साँझ हो जायेगी।" सो हो जाने दो।" राजलक्ष्मी ने हँसते हुए कहा, "ठीक है। ब्राह्मण-भोजन को मेरे ही सिर रहने दो, उसके लिए तुम्हें भूखा रखने से मेरी स्वर्ग की सीढ़ी ऊपर के बदले बिल्कुकल पाताल की ओर चली जायेगी।" यह कहकर वह भोजन लेने चल दी। कुछ ही समय बाद जब वह मेरे पास भोजन कराने बैठी, तब देखा कि सामने रोगी का पथ्य है। ब्रह्मभोज की सारी गुरुपाक वस्तुओं के साथ उसका कोई सम्बन्ध न था। मालूम हुआ कि मेरे आने के बाद ही उसने उसे अपने हाथ से तैयार किया है। फिर भी, जबसे आया हूँ, उसके आचरण में- उसकी बातचीत के ढंग से, कुछ ऐसा अनुभव कर रहा था जो केवल अपरिचित ही नहीं था, अतिशय नूतन भी था। वही खिलाने के समय बिल्कुरल स्पष्ट हो गया, परन्तु वह कैसे और किस तरह सुस्पष्ट हो गया, कोई पूछता तो मैं उसे अस्पष्टता से भी न समझा सकता। शायद यही बात प्रत्युत्तर में कह देता कि जान पड़ता है मनुष्य की अत्यन्त व्यथा की अनुभूति को प्रकाश करने की भाषा अब भी आविष्कृत नहीं हुई। राजलक्ष्मी खिलाने बैठी, किन्तु खाने-न खाने के सम्बन्ध में उसकी पहले जैसी अभ्यस्त जबर्दसती नहीं थी, था सिर्फ व्याकुल अनुनय। जोर नहीं, भिक्षा। बाहर के नेत्रों से वह चीज नहीं पकड़ी जाती, केवल मनुष्य की निभृत हृदय की अपलक ऑंखें ही देख सकती हैं। भोजन समाप्त हो गया। राजलक्ष्मी बोली, "तो अब मैं जाऊँ?" अतिथि सज्जन बाहर इकट्ठे हो रहे थे। मैंने कहा, "जाओ।" मेरे जूठे बर्तन हाथ में लेकर जब वह धीरे-धीरे कमरे से बाहर हो गयी; तब बहुत देर तक मैं अन्यमनस्क होकर उस ओर चुपचाप देखता रहा। खयाल आने लगा कि राजलक्ष्मी को जैसा छोड़ गया था, इन थोड़े से दिनों में ठीक वैसा तो उसे नहीं पाया। आनन्द कहता था कि दीदी कल से ही एक तरह से उपवास कर रही हैं, आज भी जलस्पर्श नहीं किया है; और कल कब उनका उपवास टूटेगा इसका भी कोई निश्चय नहीं। यह असम्भव नहीं। हमेशा से ही देखता आ रहा हूँ कि उसका धर्मपिपासु चित्त कभी किसी भी कृच्छ साधना से पराङ्मुख नहीं रहा। यहाँ आने के बाद से तो सुनन्दा के साहचर्य से उसकी वह अविचलित निष्ठा बढ़ती ही जा रही थी। आज उसे थोड़ी ही देर देखने का अवकाश पाया है, किन्तु जिस दुर्जेय रहस्मय मार्ग पर वह अविश्रान्त द्रुतगति से पैर उठाती हुई चल रही है; उसे देखते हुए खयाल आया कि उसके निन्दित जीवन की संचित कालिमा चाहे जितनी अधिक हो वह उसके समीप तक नहीं पहुँच सकती। किन्तु मैं? उसके मार्ग के बीच उत्तुंग गिरिश्रेणी के समान सब कुछ रोककर खड़ा हूँ। काम-काज समाप्त करके राजलक्ष्मी ने जब निःशब्द पैर रखते हुए घर में प्रवेश किया तब शायद दस बज चुके थे। रोशनी कम करके, बहुत ही सावधानी से मेरी मशहरी खींचकर वह अपनी शय्या पर सोने जा रही थी कि मैंने कहा, "तुम्हारा ब्रह्मभोज तो संध्याा के पहले ही समाप्त हो गया था; फिर इतनी रात कैसे हो गयी?" राजलक्ष्मी पहले चौंकी, फिर हँसकर बोली, "मेरी तकदीर! मैं तो डरती-डरती आ रही हूँ कि तुम्हारी नींद न टूट जाय, परन्तु तुम तो अब तक जाग रहे हो, नींद नहीं आई?" तुम्हारी आशा से ही जाग रहा हूँ।" मेरी आशा से? तो बुलवा क्यों न लिया?" यह कहकर वह पास आई और मसहरी का एक किनारा उठाकर मेरी शय्या के सिरहाने बैठ गयी। फिर हमेशा के अभ्यास के अनुसार मेरे बालों में उसने अपने दोनों हाथों की दसों अंगुलियाँ डालते हुए कहा, "मुझे बुलवा क्यों न लिया?" बुलाने से क्या तुम आतीं? तुम्हें कितना काम रहता है!" रहे काम! तुम्हारे बुलाने पर 'ना' कह सकूँ यह मेरे वश की बात है?" इसका कोई उत्तर न था। जानता हूँ, सचमुच ही मेरे आह्नान की परवा न करने की शक्ति उसमें नहीं है। किन्तु, आज इस सत्य को भी सत्य समझने की शक्ति मुझमें कहाँ है? राजलक्ष्मी ने कहा, "चुप क्यों हो रहे?" सोच रहा हूँ।" सोच रहे हो? क्या सोच रहे हो?" यह कहकर उसने धीरे से मेरे कपाल पर अपना मस्तक झुकाकर आहिस्ते से कहा, "मुझ पर गुस्सा होकर घर से चले गये थे?" तुमने यह कैसे जाना कि गुस्सा होकर चला गया था?" राजलक्ष्मी ने मस्तक नहीं उठाया, आहिस्ते से कहा, "यदि मैं गुस्सा होकर चली जाऊँ तो क्या तुम नहीं जान पाओगे?" बोला, "शायद जान लूँगा।" राजलक्ष्मी ने कहा, "तुम 'शायद' जान पाओ, परन्तु मैं तो निश्चयपूर्वक जान सकती हूँ और तुम्हारे जानने की अपेक्षा बहुत ज्यादा जान सकती हूँ।" मैंने हँसकर कहा, "ऐसा ही होगा। इस विवाद म
ें तुम्हें हराकर मैं विजयी नहीं होना चाहता लक्ष्मी, स्वयं हार जाने की अपेक्षा तुम्हारे हारने से मेरी बहुत अधिक हानि है।" राजलक्ष्मी ने कहा, "यदि जानते हो तो फिर कहते क्यों हो?" मैं बोला, "कहाँ कहता हूँ! कहना तो बहुत दिनों से बन्द कर दिया है, यह बात शायद तुम्हें मालूम नहीं।" राजलक्ष्मी चुप हो रही। पहले होता तो राजलक्ष्मी मुझे सहज में न छोड़ती- हजारों प्रश्न करके इसकी कैफियत तलब करके ही मानती, किन्तु इस समय वह मौन-मुख से स्तब्ध ही रही। कुछ समय बाद मुँह उठाकर उसने दूसरी बात छेड़ दी। पूछा, "तुम्हें क्या इस बीच ज्वर आ गया था? घर पर मुझे खबर क्यों न भेजी?" खबर न भेजने के कारण बतलाए। एक तो खबर लाने वाला आदमी नहीं था, दूसरे, जिनके पास खबर भेजनी थी वे कहाँ हैं यह भी मालूम न था। किन्तु मैं कहाँ और किस हालत में था, यह सविस्तार बतलाया। चक्रवर्ती-गृहिणी के पास से आज सवेरे ही विदा लेकर आया हूँ। उस दीन-हीन गृहस्थ परिवार में जिस हाल में मैं आश्रय लिया था और जिस प्रकार बेहद गरीबी में गृहिणी ने अज्ञात कुलशील रोगग्रस्त अतिथि की पुत्र से भी अधिक स्नेह-शुश्रूषा की थी वह कहने लगा तो कृतज्ञता और वेदना से मेरी ऑंखें ऑंसुओं से भर गयीं। राजलक्ष्मी ने हाथ बढ़ाकर मेरे ऑंसू पोंछ दिये और कहा, "तो वे ऋणमुक्त हो जाँय, इसके लिए उन्हें कुछ रुपये क्यों नहीं भेज देते?" मैंने कहा, "रुपये होते तो भेजता, पर मेरे पास रुपये तो हैं नहीं।" मेरी इन बातों से राजलक्ष्मी को मर्मान्तक पीड़ा होती थी। आज भी वह मन ही मन उतनी ही दुःखित हुई, लेकिन, उसका सब पैसा-रुपया मेरा ही है, यह बात आज उसने उतने जोर से प्रकट नहीं की। पहले तो इस बात पर वह कलह करने के लिए तैयार हो जाया करती थी। वह चुप रही। उसमें आज यह नयी बात देखी। मेरी इस बात पर उसका इस प्रकार शान्त चुपचाप बैठे रहना मुझे भी अखरा। थोड़ी देर बाद वह एक दीर्घ निःश्वास छोड़कर सीधे बैठ गयी। मानो इस दीर्घ निःश्वास से उसने अपने चारों ओर छाये हुए वाष्पाच्छन्न आवरण को फाड़ देना चाहा। घर की धीमी रोशनी में उसका चेहरा अच्छी तरह नहीं देख सका; लेकिन, जिस समय उससे बात की उससे कण्ठ-स्वर में मैंने एक आश्चर्यजनक परिवर्तन पाया। राजलक्ष्मी बोली, बर्मा से तुम्हारी चिट्ठी का जवाब आया है। दफ्तर का बड़ा लिफाफा है, जरूरी समझकर आनन्द से पढ़वा लिया है।" उसके बाद?" बड़े साहब ने तुम्हारी दरखास्त मंजूर कर ली है और जतलाया है कि वापस जाने पर पहली नौकरी फिर मिल जायेगी।" हाँ। लाऊँ वह चिट्ठी?" नहीं, ठहरो। कल सुबह देखूँगा।" फिर हम दोनों चुप हो रहे। क्या कहूँ, किस तरह यह चुप्पी भंग करूँ, यह न सोच सकने के कारण मन ही मन उद्विग्न होने लगा। अकस्मात् मेरे सिर पर ऑंसू की एक बूँद टपक पड़ी। मैंने धीरे से पूछा, "मेरी दरखास्त मंजूर हुई है, यह तो बुरी खबर नहीं है। लेकिन तुम रो क्यों पड़ीं?" राजलक्ष्मी ऑंचल से ऑंसू पोंछकर बोली, "तुम फिर अपनी नौकरी के लिए विदेश चले जाने की चेष्टा कर रहे हो, यह बात तुमने मुझे बतलाई क्यों नहीं? क्या तुमने समझा था कि मैं रोकूँगी?" मैंने कहा, "नहीं, बल्कि बतलाने पर तो तुम और उत्साहित करतीं। लेकिन, इसलिए नहीं- मालूम होता है कि मैंने सोचा था कि इन सब छोटी बातों के सुनने के लिए तुम्हारे पास समय न होगा।" राजलक्ष्मी चुप हो रही। लेकिन उसने अपना उच्छ्वसित निःश्वास रोकने के लिए प्राण-पण से जो कोशिश की, वह मुझसे छिपी न रही। पर यह हालत क्षण भर ही रही। उसके बाद उसने मीठे स्वर में कहा, "इस बात का जवाब देकर अपने अपराध का बोझ और न बढ़ाऊँगी। तुम जाओ, मैं बिल्कुथल न रोकूँगी।" यह कहकर वह थोड़ी ही देर चुप रहकर फिर बोली, "तुम यहाँ न आते तो ऐसा मालूम होता है कि मैं कभी यह जान ही न पाती कि मैं तुम्हें कैसी दुर्गति मैं खींच लाई हूँ। यह गंगामाटी का अन्धकूप स्त्रियों के लिए गुजारे लायक हो सकता है, लेकिन पुरुषों के लिए नहीं। यहाँ का बेकार और उद्देश्यहीन जीवन तो तुम्हारे लिए आत्महत्या के समान है। यह मैंने तुम्हारी ऑंखों से स्पष्ट देखा है।" मैंने पूछा, "या तुम्हें किसी ने दिखा दिया है?" राजलक्ष्मी बोली, "नहीं। मैंने खुद ही देखा है। तीर्थयात्रा की थी, पर भगवान को नहीं देख पाई। उसके बदले केवल तुम्हारा लक्ष्य-भ्रष्ट नीरस चेहरा ही दिन-रात दिखाई देता रहा। मेरे लिए तुम्हें बहुत त्याग करना पड़ा है; किन्तु अब और नहीं।" इतनी देर तक मेरे मन में एक जलन ही थी; किन्तु उसके कण्ठ-स्वर की अनिर्वचनीय करुणा से मैं विह्वल हो गया। बोला, "तुम्हें क्या कम त्याग करना पड़ा है लक्ष्मी? गंगामाटी तुम्हारे लायक भी तो नहीं है?" लेकिन, यह बात कहकर मैं संकोच से भर गया, क्योंकि, मेरे मुख से लापरवाही से भी जो गर्हित बात निकल गयी, वह इस तीक्ष्ण बुद्धिशालिनी रमणी से छिप न सकी। पर आज उसने मुझे माफ कर दिया। मा
लूम होता है, बात की अच्छाई बुराई पर मान अभिमान का जाल बुनकर नष्ट करने के लिए उसके पास समय ही नहीं था, बोली, "बल्कि मैं ही गंगामाटी के योग्य नहीं हूँ- सभी यह बात नहीं समझ सकेंगे; पर तुम्हें यह समझना चाहिए कि मुझे सचमुच ही कुछ त्याग नहीं करना पड़ा। लोगों ने एक दिन पत्थर की तरह मेरी छाती पर जो भार रख दिया था क्या सिर्फ वही दूर हो गया है? नहीं। आजीवन तुम्हीं को चाहा था, इसलिए, तुम्हें पाकर जो मुझे त्याग से असंख्य गुना बदला मिल गया है, सो क्या तुम नहीं जानते?" जवाब न दे सका। जैसे कोई अन्तरतम का वासी मुझसे यह बात कहने लगा, "भूल हुई है, तुमसे भारी भूल हुई है। उसे न समझकर तुमने बड़ा अविचार किया है।" राजलक्ष्मी ने ठीक इसी तार पर चोट की। कहा, "सोचा था कि तुम्हारे ही लिए कभी यह बात तुम्हें न बतलाऊँगी; लेकिन, आज मैं अपने को और नहीं रोक सकी। मुझे सबसे अधिक दुःख इसी बात का हो रहा है कि तुम अनायास ही यह कैसे सोच सके कि पुण्य के लोभ का मुझे ऐसा उन्माद हो गया है कि मैंने तुम्हारी उपेक्षा करनी शुरू कर दी है? क्रुद्ध होकर चले जाने के पहले यह बात तुम्हें एक बार भी याद न आई कि इस काल और पर काल में राजलक्ष्मी के लिए तुम्हारी अपेक्षा लाभ की चीज और कौन-सी है!" यह कहते-कहते उसकी ऑंखों के ऑंसू झर-झर के मेरे मुँह पर आ पड़े। बातों से तसल्ली देने की भाषा उस समय मन में न आ सकी, सिर्फ माथे के ऊपर रक्खा हुआ उसका दाहिना हाथ अपने हाथ में ले लिया। राजलक्ष्मी बायें हाथ से ऑंसू पोंछकर कुछ देर चुपचाप बैठी रही। उसके बाद बोली, "मैं देख आऊँ, लोगों का खाना-पीना हो चुका या नहीं। तुम सो जाओ।" यह कहकर वह आहिस्ते से हाथ छुड़ाकर बाहर चली गयी। उसे पकड़ रखना चाहता तो रख सकता था; लेकिन चेष्टा नहीं की। वह भी फिर लौटकर नहीं आई। जब तक नींद नहीं आई तब तक यही बात सोचता रहा कि जबर्दस्ती रोक रखता तो लाभ क्या होता? मेरी ओर से तो कभी कोई जोर था ही नहीं; सारा जोर उसकी तरफ से था। आज अगर वही बन्धन खोलकर मुझे मुक्त करते हुए अपने आपको भी मुक्त करना चाहती है, तो मैं उसे किस तरह रोकूँ? सुबह जागने पर पहले उसकी खाट की ओर नजर डाली तो मालूम हुआ कि राजलक्ष्मी कमरे में नहीं है। रात को वह आई ही नहीं, या बड़े तड़के ही उठकर बाहर चली गयी, यह भी मैं न समझ सका। बाहरी कमरे में जाकर देखा तो वहाँ कुछ कोलाहल-सा हो रहा है। रतन केटली से गरम चाय पात्र में डाल रहा है और उसके पास ही बैठी राजलक्ष्मी स्टोव पर सिंघाड़े और कचौरियाँ तल रही है। वज्रानन्द खाद्य-सामग्री की ओर अपनी निस्पृह निरासक्त दृष्टि से देख रहे हैं। मुझे आते देख राजलक्ष्मी ने अपने भीगे बालों पर ऑंचल खींच लिया और वज्रानन्द कलरव कर उठे, "आ गये भाई, आपको देरी होते देख समझा था कि कहीं सब कुछ ठण्डा न हो जाय।" राजलक्ष्मी ने हँसकर कहा, "हाँ, तुम्हारे पेट में जाकर सब ठण्डा हो जाता।" आनन्द ने कहा, "बहन, साधु-सन्यासी का आदर करना सीखिए। ऐसी कड़ी बात न कहिए।" फिर मुझसे कहा, "कहो, तबीयत तो ठीक नहीं दिखती, जरा हाथ तो देखूँ।" राजलक्ष्मी ने घबराकर कहा, "रहने दो आनन्द, तुम्हारी डॉक्टरी की जरूरत नहीं है; उनकी तबीयत ठीक है।" यही निश्चय करने के लिए तो एक बार हाथ..." राजलक्ष्मी बोली, "नहीं, तुम्हें हाथ देखने की जरूरत नहीं। तुम्हें क्या लगता है, अभी साबूदाने की व्यवस्था दे दोगे।" मैंने कहा, "साबूदाना मैंने बहुत खाया है, इसलिए, मैं उसकी व्यवस्था देने पर भी नहीं सुनूँगा।" तुम्हें सुनने की जरूरत भी नहीं है।" कहकर राजलक्ष्मी ने थोड़े से गरम सिंघाड़ों और कचौरियों की प्लेट मेरी ओर बढ़ा दी और फिर रतन से कहा, "अपने बाबू को चाय दे।" वज्रानन्द ने सन्यासी होने के पहले डॉक्टरी पास की थी, अतः वे सहज ही हार मानने वाले नहीं थे; गर्दन हिलाते हुए बोलने लगे, "लेकिन बहन, आप पर एक उत्तरदायित्व..." राजलक्ष्मी ने बीच ही में उनकी बात काट दी, "लो सुनो, इनका उत्तरदायित्व मुझ पर नहीं तो क्या तुम पर है? आज तक जितना उत्तरदायित्व कन्धों पर लेकर इन्हें खड़ा रखा गया है, उसे यदि सुनते तो बहिन के पास डॉक्टरी करने न आते।" यह कहकर राजलक्ष्मी ने बाकी की सारी की सारी खाद्य-सामग्री एक थाल में रखकर उनकी ओर सरकाते हुए हँसकर कहा, "अब खाओ यह सब, बातें बन्द करो।" आनन्द 'हें हें' करते हुए बोला, "अरे, क्या इतना खाया जा सकता है?" राजलक्ष्मी ने कहा, "न खाया जायेगा तो सन्यासी बनने क्यों गये थे? और पाँच भले-मानसों की तरह गृहस्थ बने रहते!" आनन्द की दोनों ऑंखें सहसा भर आयीं। बोला, "आप जैसी बहिनों का दल इस बंगाल में है तभी तो सन्यासी बना हूँ, नहीं तो, कसम खाकर कहता हूँ कि यह गेरुआ-एरुआ अजया के जल में बहाकर घर चला जाता। लेकिन, मेरा एक अनुरोध है बहिन। परसों से ही तुमने एक तरह से उपास कर रक्खा है, इसलिए आज पूजा-पाठ आदि से जर
ा जल्दी ही निबट लेना। इन चीजों में अब भी कोई स्पर्श-दोष नहीं लगा है। यदि आप कहें- न हो तो" कहकर उन्होंने सामने की भोज्य सामग्री पर नजर डाली। राजलक्ष्मी डरकर ऑंखें फाड़ती हुई बोली, "यह कहते क्या हो आनन्द, कल तो हमारे सारे ब्राह्मण आ नहीं सके थे!" मैंने कहा, "तो वे पहले भोजन कर जावें, उसके बाद सही।" आनन्द बोला, "ऐसा है तो लो, मुझे ही उठना पड़ा। उनके नाम और पते दो-पाखण्डियों को गले में अंगोछा डालकर खींच लाऊँगा और भोजन कराकर छोड़ूँगा।" यह कहकर वह उठने के बदले थाल खींचकर भोजन करने लगा! राजलक्ष्मी हँसकर बोली, "सन्यासी हैं न, देव-ब्राह्मणों में बड़ी भक्ति है!" इस तरह हमारा सबेरे का चाय-नाश्ते का काम जब पूरा हुआ तो आठ बज चुके थे। आकर बाहर बैठ गया। शरीर में भी ग्लानि नहीं थी और हँसी-ठट्ठे से मन भी मानों स्वच्छ प्रसन्न हो गया था। राजलक्ष्मी की विगत रात्रि की बातों और आज की बातों तथा आचरण में कोई एकता नहीं थी। उसने अभिमान और वेदना से दुःखित होकर ही वैसी बातें की थीं, इसमें सन्देह नहीं रहा। वास्तव में रात के स्तब्ध अन्धकार के आवरण में तुच्छ और मामूली घटना को बड़ी और कठोर कल्पना करके जिस दुःख और दुश्चिन्ता को भोगा था, आज दिन के प्रकाश में, उसे याद करके मैं मन ही मन लज्जित हुआ और कौतुक भी अनुभव किया। कल की तरह आज उत्सव-समारोह नहीं था, तो भी, दिन-भर बीच-बीच में न्यौते और बिना न्यौते लोगों के भोजन का सिलसिला बराबर जारी रहा। फिर एक बार हम लोग चाय का सरो-सामान लेकर कमरे के फर्श पर आसन लगाकर बैठ गये। शाम का काम-काज समाप्त करके राजलक्ष्मी भी थोड़ी देर के लिए हम लोगों के कमरे में आयी। वज्रानन्द बोले, "स्वागत है, बहिन।" राजलक्ष्मी ने उनकी ओर हँसते हुए देखकर कहा, "मैं समझती हूँ कि अब सन्यासी की देव-सेवा आरम्भ हो गयी है, इसीलिए न इतना आनन्द है!" आनन्द ने कहा, "तुमने झूठा नहीं कहा बहिन, संसार में जितने आनन्द हैं उनमें भजनानन्द और भोजनानन्द ही श्रेष्ठ हैं, और शास्त्र का कथन है कि त्यागी के लिए तो दूसरा ही सर्वश्रेष्ठ है।" राजलक्ष्मी बोली, "हाँ, तुम जैसे सन्यासियों के लिए!" आनन्द ने जवाब दिया, "यह भी झूठ नहीं है, बहिन। आप गृहिणी हैं, इसीलिए इसका मर्म नहीं ग्रहण कर सकीं। तभी तो हम त्यागियों का दल इधर मौज कर रहा है और आप तीन दिन से सिर्फ दूसरों को खिलाने में लगी हैं और खुद उपवास करके मर रही हैं!" राजलक्ष्मी बोली, "मर कहाँ रही हूँ, भाई? दिन पर दिन तो देख रही हूँ, इस शरीर की श्रीवृद्धि ही हो रही है।" आनन्द बोले, "इसका कारण यही है कि वह होने के लिए बाध्यो है। उस बार भी आपको देख गया था, इस बार भी आकर देख रहा हूँ। आपकी ओर देखकर ऐसा नहीं मालूम होता कि कोई संसार की चीज देख रहा हूँ, यह जैसे दुनिया से अलग और ही कुछ है।" राजलक्ष्मी का मुँह लज्जा से लाल हो उठा। मैंने उससे हँसकर कहा, "देखी तुमने अपने आनन्द की युक्ति-प्रणाली?" यह सुनकर आनन्द भी हँसकर बोला, "यह तो युक्ति नहीं,- स्तुति है। भैया, यदि यह दृष्टि होती तो क्यों नौकरी की दरखास्त देने बर्मा जाते? अच्छा बहिन, किस दुष्ट-बुद्धि देवता ने भला इस अन्धे आदमी को तुम्हारे मत्थे मढ़ दिया था? उसे क्या और कोई काम नहीं था?" राजलक्ष्मी हँस पड़ी। फिर अपने माथे पर हाथ ठोककर बोली, "देवता का दोष नहीं है भाई, दोष इस ललाट का है और इनको तो इनका बड़ा भारी दुश्मन भी दोष दे नहीं सकता।" यह कहकर उसने मुझे दिखाते हुए कहा- "पाठशाला में ये थे सबके सरदार। जितना पढ़ाते न थे उससे बहुत ज्यादा मारते थे। उस समय पढ़ती तो थी सिर्फ 'बोधोदय'। पर, पुस्तक का बोध तो क्या होना था, बोध हुआ और एक तरह का। बच्ची थी, फूल कहाँ पाती, जंगली करौंदों की माला गूँथकर इन्हें एक दिन वरमाला पहिना दी। सोचती हूँ उस समय अगर उन फलों के साथ काँटे भी गूँथ देती!" बोलते-बोलते उसका कुपित कण्ठ-स्वर दबी हँसी की आभा से सुन्दर हो उठा। आनन्द बोला, "ओह! कैसा भयानक गुस्सा है!" राजलक्ष्मी बोली, "गुस्सा नहीं तो क्या है? काँटे लाकर देनेवाला कोई और होता तो जरूर गूँथ देती। अब भी पाऊँ तो गूँथ दूँ।" यह कहकर वह तेजी से बाहर जा रही थी कि आनन्द ने पुकारकर कहा, "भागती हो?" क्यों, क्या और कोई काम नहीं है? चाय की प्याली हाथ में लिये उन्हें कलह करने का समय है, मुझे नहीं है।" आनन्द ने कहा, "बहन, मैं तुम्हारा अनुगत हूँ। पर इस अभियोग में शह देने में तो मुझे भी लज्जा का अनुभव होता है। ये मुँह से एक भी बात निकालते, तो इन्हें इसमें घसीटने की चेष्टा भी की जाती; पर एकदम गूँगे आदमी को कैसे फन्दे में डाला जाए? और डाला भी जाए तो धर्म कैसे सहन करेगा?" राजलक्ष्मी बोली, "इसी की तो मुझे सबसे बड़ी जलन है। अच्छा, अब जो धर्म को सहन हो वही करो। चाय बिल्कुतल ठण्डी हो गयी। मैं तब तक एक बार रसोईघर का चक्कर लगा आऊँ।" य
ह कहकर राजलक्ष्मी कमरे के बाहर हो गयी। वज्रानन्द ने पूछा, "बर्मा जाने का विचार क्या अब भी है भाई साहब? लेकिन बहिन साथ हर्गिज नहीं जाँयगी, यह मुझसे कह चुकी हैं।" यह मैं जानता हूँ।" तो फिर?" तब अकेले ही जाना होगा।" वज्रानन्द ने कहा, "देखिए, यह आपका अन्याय है। आप लोगों को पैसा कमाने की जरूरत तो है नहीं, फिर क्यों जाँयगे दूसरे की गुलामी करने?" कम से कम उसका अभ्यास बनाये रखने के लिए!" यह तो गुस्से की बात हुई भाई।" पर गुस्से के सिवाय क्या मनुष्य के लिए और कोई कारण नहीं होता आनन्द?" आनन्द बोला, "हो भी, तो वह दूसरे के लिए समझना कठिन है।" इच्छा तो हुई कि कहूँ, "यह कठिन काम दूसरे करें ही क्यों", पर वाद-विवाद से चीज पीछे कड़वी हो जाती है, इस आशंका से चुप हो गया। इसी समय बाहर का काम निबटाकर राजलक्ष्मी ने कमरे में प्रवेश किया। इस बार वह खड़ी न रहकर भलमनसी के साथ आनन्द के पास स्थिरतापूर्वक बैठ गयी। आनन्द ने मुझे लक्ष्य करके कहा, "बहिन, इन्होंने कहा है कि कम से कम गुलामी का अभ्यास बनाये रखने के लिए इन्हें विदेश जाना चाहिए। मैंने कहा कि यदि यही चाहिए तो आइए मेरे काम में योग दीजिए, विदेश न जाकर देश की गुलामी में ही दोनों भाई जिन्दगी बिता दें।" राजलक्ष्मी बोली, "लेकिन, यह तो डॉक्टरी नहीं जानते आनन्द।" आनन्द बोला, "क्या मैं सिर्फ डॉक्टरी ही करता हूँ? स्कूल पाठशालाएँ भी तो चलाता हूँ और उन लोगों की दुर्दशा आज कितनी ओर से और कितनी अधिक हो रही है, इसे बराबर समझाने की चेष्टा करता हूँ।" पर वे समझते हैं क्या?" आनन्द ने कहा, "आसानी से नहीं समझते। किन्तु, मनुष्य की शुभ इच्छा यदि हृदय से सत्य होकर बाहर निकलती है, तो चेष्टा व्यर्थ नहीं जाती, बहिन।" आनन्द ने पूछा, "सर क्यों हिला दिया?" राजलक्ष्मी ने पहले कुछ हँसने की चेष्टा की, फिर स्निग्ध मधुर कण्ठ से कहा, "देश की दुर्दशा कितनी बड़ी है, यह मैं भी जानती हूँ आनन्द। पर तुम्हारे अकेले की चेष्टा से क्या होगा भाई?" फिर मेरी ओर इशारा करके कहा, "और ये सहायता करने जाँयगे? तब तो हो गया, फिर तो मेरी तरह तुम्हारे दिन भी इन्हीं की सेवा में कटेंगे; और कोई काम न करना होगा।" यह कहकर वह हँस पड़ी। उसको हँसते देख आनन्द भी हँसकर बोला, "तो इनको ले जाने की जरूरत नहीं है बहिन, ये चिरकाल तक तुम्हारी ऑंखों के मणि होकर रहें। पर यह अकेले-दुकेले की बात नहीं है। अकेले मनुष्य की भी आन्तरिक इच्छा-शक्ति इतनी बड़ी होती है कि उसका परिमाण नहीं होता- बिल्कुलल वामनावतार के पाँव की तरह। बाहर से देखने पर छोटा है, पर वही छोटा-सा पाँव जब फैलता है सब सारे संसार को ढँक देता है।" मैंने देखा कि वामनावतार की उपमा से राजलक्ष्मी का चित्त कोमल हो गया है; किन्तु जवाब में उसने कुछ नहीं कहा। आनन्द कहने लगा, "शायद आपकी ही बात ठीक है, मैं विशेष कुछ नहीं कर सकता। लेकिन, एक काम करता हूँ। जहाँ तक हो सकता है, दुखियों के दुःखों का अंश मैं बँटाता हूँ बहिन।" राजलक्ष्मी और भी आर्द्र होकर बोली, "यह मैं जानती हूँ आनन्द। यह तो मैंने उसी दिन समझ लिया था जिस दिन तुम्हें पहले-पहल देखा था।" मालूम होता है कि आनन्द ने इस बात पर ध्याथन नहीं दिया और वह अपनी ही बात के सिलसिले में कहने लगा, "आप लोगों की तरह मुझे भी किसी चीज का अभाव नहीं है। बाप का जो कुछ है वह आनन्द से जीवन बिताने के लिए जरूरत से ज्यादा है, पर मेरा उससे कुछ सरोकार नहीं है। इस दुखी देश में सुखभोग की लालसा भी यदि इस जीवन में रोककर रख सकूँ तो मेरे लिए यही बहुत है।" रतन ने आकर बतलाया कि रसोइए ने भोजन तैयार कर लिया है। राजलक्ष्मी ने उसे आसन तैयार करने का आदेश देकर कहा, "आज तुम लोग भोजन से जल्दी ही निबट लो आनन्द, मैं बहुत थक गयी हूँ।" वह थक गयी थी, इसमें सन्देह नहीं, लेकिन थकने की दुहाई देते उसे कभी नहीं देखा था। हम दोनों चुपचाप उठ बैठे। आज का प्रभात हम लोगों की एक बड़ी भारी प्रसन्नता में से होकर हँसी-दिल्लगी के साथ आरम्भ हुआ था और संध्याझ की मजलिस भी जमी थी। हास-परिहास से उज्ज्वल होकर, किन्तु समाप्त हुई मानो निरानन्द के मलिन अवसाद के साथ। जिस समय हम लोग भोजन करने के लिए रसाईघर की ओर चले उस समय किसी के मुँह से कोई बात नहीं निकली। दूसरे दिन सबेरे वज्रानन्द ने प्रस्थान की तैयारी कर दी। और कभी यदि किसी के कहीं जाने की चर्चा उठती तो राजलक्ष्मी हमेशा आपत्ति किया करती। अच्छा दिन नहीं है, अच्छी घड़ी नहीं है, आदि कारण बतलाकर, आज नहीं कल, कल नहीं परसों, करके बहुत बाधा डालती थी। लेकिन, आज उसने मुँह से एक बात भी नहीं निकाली। विदा लेकर आनन्द जिस समय तैयार हुआ उस समय पास जाकर उससे मीठे स्वर से पूछा, "आनन्द, अब क्या न आओगे भाई?" मैं पास ही था, इसलिए, स्पष्ट देख सका, सन्यासी की ऑंखों की दीप्ति अस्पष्ट सी हो गयी है, किन्तु तत्काल ही आ
त्म-संवरण करके वह मुँह पर हँसी लाते हुए बोला, "आऊँगा क्यों नहीं बहिन, अगर जीवित रहा तो बीच-बीच में उत्पात करने के लिए हाजिर होता रहूँगा।" लेकिन, हम लोग तो जल्द ही चले जाँयगे। जहाँ हम रहेंगे वहाँ आओगे क्या?" हुक्म देने पर आऊँगा क्यों नहीं।" राजलक्ष्मी ने कहा, "आना। अपना पता मुझे लिख दो, मैं तुम्हें चिट्ठी लिखूँगी।" आनन्द ने जेब से कागज-पेन्सिल निकालकर पता लिखा और उसके हाथ में दे दिया। सन्यासी होकर भी दोनों हाथ जोड़कर मस्तक से लगाते हुए उसने हम दोनों को नमस्कार किया और रतन ने आकर उसकी पद-धूलि ग्रहण की। उसे आशीर्वाद दे वह धीरे-धीरे मकान के बाहर हो गया। सन्यासी वज्रानन्द अपना औषधियों का बॉक्स और केनवास का बैग लेकर जिस दिन बाहर गया उस दिन से जैसे वह इस घर का आनन्द ही छीन-छानकर ले गया। यही नहीं, मुझे ऐसा लगा मानो वह उस शून्य स्थान को छिद्रहीन निरानन्द से भर गया। घने सिवार से भरे हुए जलाशय का जल, जो अपने अविश्रान्त चांचल्य के अभिघातों से निर्मल हो रहा था, मानो उसके अर्न्तध्याजन होने के साथ ही साथ लिपटकर एकाकार होने लगा। तो भी, छह-सात दिन कट गये। राजलक्ष्मी प्रायः सारे दिन घर से बाहर रहती है। कहाँ जाती है, क्या करती है, नहीं जानता, उससे पूछता भी नहीं। शाम को जब एक बार उससे भेंट होती है तो उस वक्त वह या तो अन्यमनस्क दिखाई देती है या गुमाश्ताजी साथ होते हैं और काम-काज की बातें होती रहती हैं। अकेले घर में उस 'आनन्द' की बार-बार याद आती है जो मेरा कोई नहीं है। खयाल आता, यदि वह अकस्मात् आ जाय, तो सिर्फ मैं ही खुश होता यह बात नहीं है, बरामदे की दूसरी ओर चिराग की रोशनी में बैठी हुई राजलक्ष्मी भी, जो न जाने क्या करने की चेष्टा कर रही है, मैं समझता हूँ, उतनी ही खुश होती। ऐसा ही लगने लगा। एक दिन जिनके उन्मुख युग्म-हृदय जिस बाहर का सब प्रकार का संस्रव परिहार करके एकान्त सम्मिलन की आकांक्षा से व्याकुल रहते थे, आज टूटने-विच्छिन्न होने के दिन उसी बाहर की उन्हें कितनी बड़ी जरूरत है? ऐसा लगता है कि चाहे कोई भी हो यदि वह एक बार बीच में आकर खड़ा हो जाय, तो मानो जान बच जाय। इस तरह जब दिन कटना मुश्किल हो गया, तब रतन एकाएक आकर उपस्थित हो गया। वह अपनी हँसी दबाने में असमर्थ था। राजलक्ष्मी घर पर थी नहीं, इसलिए उसे डरने की ज़रूरत नहीं थी, तो भी वह एक बार सावधानी से चारों ओर नज़र दौड़ाकर आहिस्ते से बोला, "मालूम होता है आपने सुना नहीं।" मैं बोला, "नहीं, क्या बात है?" रतन बोला, "दुर्गा माता कृपा करें कि माँ की यही बुद्धि अन्त तक बनी रहे। हम सब दो-चार दिन में ही यहाँ से चल रहे हैं।" कहाँ चल रहे हैं?" रतन ने एक बार और दरवाजे के बाहर देख लिया और कहा, "यह तो ठीक-ठीक अब भी नहीं मालूम कर सका हूँ। या तो पटना या काशी और या- लेकिन, इनके अतिरिक्त तो और कहीं माँ का अपना मकान है नहीं।" मैं चुप रहा। इतनी बड़ी बात पर भी मुझे चुप और उत्सुकता रहित देखकर उसे ऐसा मालूम हुआ कि मैं उसकी बात पर विश्वास नहीं कर रहा हूँ, इसीलिए, वह अपने दबे गले की सारी ताकत लगाकर बोल उठा, "मैं सच कह रहा हूँ। हमारा चलना निश्चित है। आः, जान बचे तब तो, है न ठीक?" मैंने कहा, "हाँ।" रतन बहुत खुश होकर बोला, "दो-चार दिन और सबके साथ तकलीफ झेल लीजिए, बस। अधिक से अधिक एक हफ्ते की बात और है, इससे ज्यादा नहीं। माँ गंगामाटी की सारी व्यवस्था कुशारी महाशय के साथ ठीक कर चुकी है। अब सामान बाँध-बूँधकर एक बार 'दुर्गा दुर्गा' कहकर चल देना ही बाकी रहा है। हम सब ठहरे शहर के निवासी, क्या यहाँ हमारा मन कभी लग सकता है?" यह कहकर वह प्रसन्नता के आवेग में उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही बाहर चला गया। रतन को कोई बात अज्ञात नहीं थी। उसकी समझ में मैं भी राजलक्ष्मी के अनुचरों में से एक था, इससे अधिक और कुछ नहीं। वह जानता था कि किसी के भी मतामत का कोई मूल्य नहीं है, सबकी पसन्द और नापसन्द मालकिन की इच्छा और अभिरुचि पर ही निर्भर है। जो आभास रतन दे गया उसका मर्म वह खुद नहीं समझता था, लेकिन, उसके वाक्य का वह गूढ़ अर्थ, देखते ही देखते, मेरे चित्त-पट में चारों ओर से परिस्फुट हो उठा। राजलक्ष्मी की शक्ति की सीमा नहीं है। उस विपुल शक्ति को लगाकर वह संसार में जैसे अपने आपको लेकर ही खेल खेल रही है। एक दिन इस खेल में मेरी ज़रूरत हुई थी, उसकी उस एकाग्र-वासना के प्रचण्ड आकर्षण को रोकने की क्षमता मुझमें नहीं थी। मैं झुककर आया था, मुझे वह बड़ा बनाकर नहीं लाई थी। सोचता था, मेरे लिए उसने अनेक स्वार्थ-त्याग किये हैं; पर आज दिखाई पड़ा कि ठीक यही बात नहीं है। राजलक्ष्मी के स्वार्थ का केन्द्र इतने समय तक देखा नहीं था, इसीलिए ऐसा सोचता आया हूँ। धन, अर्थ, ऐश्वर्य-बहुत कुछ उसने छोड़ा है, लेकिन क्या मेरे ही लिए? इन सबने कूड़े के ढेर की तरह क्या उसका निजी प्रयो
जन का ही रास्ता नहीं रोका है? राजलक्ष्मी के निकट मेरे और मुझे प्राप्त करने के बीच कितना प्रभेद है यह सत्य मुझ पर आज प्रकट हुआ। आज उसका चित्त इस लोक के सब-कुछ पाये हुए को तुच्छ करके अग्रसर होने को तैयार हुआ है। उसके उस पथ के बीच खड़े होने के लिए मुझे स्थान नहीं है। इसलिए, अन्यान्य कूड़े-कचरे की तरह अब मुझे भी रास्ते के एक तरफ अनादर से पड़ा रहना पड़ेगा, चाहे वह कितना ही दुःख दे। पर अस्वीकार करने के लिए मार्ग नहीं है। अस्वीकार किया भी नहीं कभी। दूसरे दिन सबेरे ही जान पाया कि चालाक रतन ने जो तथ्य संग्रह किया था वह गलत नहीं है। गंगामाटी-सम्बन्धी सारी व्यवस्था स्थिर हो गयी है। राजलक्ष्मी के ही मुँह से मुझे इस बात का पता लगा है। प्रातःकाल नियमित पूजा-पाठ करके वह और दिनों की तरह बाहर नहीं गयी। धीरे-धीरे आकर मेरे पास बैठ गयी और बोली, "परसों इसी वक्त अगर खा-पीकर हम सब यहाँ से निकल सकें तो साँईथिया में पच्छिम की गाड़ी आसानी से मिल सकती है, न?" मैं बोला, "मिल सकती है।" राजलक्ष्मी ने कहा, "यहाँ का सब बन्दोबस्त मैं एक तरह से पूरा कर चुकी हूँ। कुशारी महाशय जिस तरह देख-रेख रखते थे, उसी तरह रखेंगे।" मैंने कहा, "अच्छा ही हुआ।" राजलक्ष्मी कुछ देर चुप रही। मालूम होता था कि प्रश्न को ठीक तौर से आरम्भ नहीं कर सकती थी, इसीलिए अन्त में बोली, "बंकू को चिट्ठी लिख दी है कि वह गाड़ी रिजर्व करके स्टेशन पर हाजिर रहेगा। लेकिन रहे तब तो?" मैंने कहा, "जरूर रहेगा। वह तुम्हारा हुक्म नहीं टालेगा।" राजलक्ष्मी बोली, "नहीं, जहाँ तक हो सकेगा टालेगा नहीं, तो भी- अच्छा तुम क्या हमारे साथ नहीं चल सकोगे?" कहाँ जाना होगा, यह प्रश्न नहीं कर सका। सिर्फ इतना ही मुँह से निकला, "अगर मेरे चलने की जरूरत समझो तो चल सकता हूँ।" इसके प्रत्युत्तर में राजलक्ष्मी कुछ न बोल सकी। कुछ देर चुप रहने के बाद सहसा घबराकर बोल उठी, "अरे, तुम्हारे लिए चाय तो अब तक लाया ही नहीं।" मैं बोला, "मालूम होता है वह काम में व्यस्त है।" वास्तव में चाय लाने का समय काफी गुजर चुका था। और दिन होता तो वह नौकरों का ऐसा अपराध कभी क्षमा न कर सकती, बक-झककर तूफान-वर्षा कर देती, लेकिन उस समय जैसे वह एक प्रकार की लज्जा से मर गयी और एक भी बात न कहकर तेजी से कमरे के बाहर हो गयी। निश्चित दिन को प्रस्थान के पहले समस्त प्रजाजन आये और घेरकर खड़े हो गये। डोम की लड़की मालती को फिर एक बार देखने की इच्छा थी, लेकिन, उसने इस गाँव को छोड़कर किसी और ही गाँव में अपनी गृहस्थी जमा ली है, इसलिए नहीं देख सका। पता लगा कि उस जगह वह अपने पति के साथ सुखी है। दोनों कुशारी-बन्धु अपने परिवार सहित रात रहते ही आ गये। जुलाहे का सम्पत्ति-सम्बन्धी झगड़े का निबटारा हो जाने से वे फिर एक हो गये हैं। राजलक्ष्मी ने कैसे यह सब किया इसे विस्तारपूर्वक जानने का कौतूहल भी नहीं था, और न जाना ही। उनके मुँह की ओर देखकर केवल इतना ही जान सका कि झगड़े का अन्त हो गया है और पूर्व-संचित अनबन की ग्लानि अब किसी भी पक्ष के मन में मौजूद नहीं है। सुनन्दा आई और उसने अपने बच्चे को लेकर मुझे प्रणाम किया। कहा, "हम सबको आप जल्दी न भूल जाँयगे, यह मैं जानती हूँ। इसके लिए तो प्रार्थना करना व्यर्थ है।" मैंने हँसकर कहा, "तो मुझसे और किस बात के लिए प्रार्थना करोगी बहिन?" मेरे बच्चे को आप आशीर्वाद दें।" मैं बोला, "यही तो व्यर्थ प्रार्थना है, सुनन्दा। तुम जैसी माँ के बच्चे को क्या आशीर्वाद दिया जाय, यह तो मैं भी नहीं जानता, बहिन।" राजलक्ष्मी किसी काम से पास ही से जा रही थी। यह बात ज्यों ही उसके कानों पड़ी, वह कमरे के अन्दर आ खड़ी हुई और सुनन्दा की ओर से बोली, "इस बच्चे को यह आशीर्वाद दे चलो कि यह बड़ा होकर तुम्हारे ही जैसा मन पाये।" मैंने हँसकर कहा, "बड़ा अच्छा आशीर्वाद है! शायद तुम्हारे बच्चे से लक्ष्मी मजाक करना चाहती है, सुनन्दा।" बात समाप्त होने के पहले ही राजलक्ष्मी बोल उठी, "मजाक करना चाहूँगी अपने ही बच्चे के साथ, और वह भी चलने के समय?" यह कहकर वह क्षण-भर स्तब्ध रहकर बोली, "मैं भी इसकी माँ के समान हूँ। मैं भी भगवान से प्रार्थना करती हूँ कि वे इसे यही दें। इससे बड़ा तो मैं कोई और वर जानती नहीं।" सहसा मैंने देखा, उसकी दोनों ऑंखों में ऑंसू भर आये हैं। और कुछ भी न कहकर वह कमरे से बाहर चली गयी। इसके बाद सबसे मिलकर, ऑंखों में ऑंसू भरे हुए, गंगामाटी से विदा ली। यहाँ तक कि रतन भी फिर-फिरकर ऑंखें पोंछने लगा। जो यहाँ रहने वाले थे उन्होंने हम सबसे फिर आने के लिए अत्यधिक अनुरोध किया और सबने उन्हें फिर आने का वचन भी दिया, केवल मैं ही न दे सका। मैंने ही निश्चित रूप से समझा था कि इस जीवन में अब मेरा यहाँ लौटना सम्भव नहीं है। इसलिए जाते समय इस छोटे-से गाँव को बार-बार फिर-फिरकर देखते समय मन में
केवल यही विचार उत्पन्न होने लगा कि अपरिमेय माधुर्य और वेदना से परिपूर्ण एक वियोगान्त नाटक की यवनिका अभी ही गिरी है; नाट्यशाला के दीप बुझ गये हैं और अब मनुष्यों से परिपूर्ण संसार की सहस्र-विधा भीड़ में से मुझे रास्ते पर बाहर निकलना पड़ेगा। किन्तु, जिस मन को जनता के बीच बड़ी होशियारी से कदम रखने की जरूरत है, मेरा वही मन जैसे नशे की खुमारी से एकदम आच्छन्न हो रहा। शाम के बाद हम सब साँईथिया आ पहुँचे। राजलक्ष्मी के किसी भी आदेश और उपदेश की बंकू ने अवहेलना नहीं की। सब इन्तजाम करके वह स्टेशन के प्लेटफार्म पर खुद उपस्थित था। यथासमय गाड़ी आई और वह सरो-सामान लादकर, रतन को नौकरों के डिब्बे में चढ़ा, विमाता को लेकर गाड़ी में बैठ गया। लेकिन, उसने मेरे साथ कोई घनिष्ठता दिखाने की चेष्टा नहीं की, क्योंकि, अब उसका मूल्य बढ़ गया है; घर-बार रुपये-पैसे लेकर अब संसार में वह विशेष आदमियों में गिना जाने लगा है। बंकू विलक्षण व्यक्ति है। सभी अवस्थाओं को मानकर चलना जानता है। यह विद्या जिसे आती है, संसार में उसे दुःख-भोग नहीं करना पड़ता। गाड़ी छूटने में अब भी पाँच मिनट की देरी है; लेकिन, मेरी कलकत्ते जानेवाली गाड़ी तो आयेगी प्रायः रात के पिछले पहर। एक ओर स्थिर होकर खड़ा था। राजलक्ष्मी ने गाड़ी की खिड़की से मुँह निकालकर हाथ के इशारे से मुझे बुलाया। पास पहुँचते ही कहा, "जरा अन्दर आओ।" अन्दर जाने पर उसने हाथ पकड़कर मुझे पास बिठा लिया और कहा, "तुम क्या बहुत जल्दी ही बर्मा चले जाओगे? जाने के पहले क्या एक बार और नहीं मिल सकोगे?" मैं बोला, "अगर जरूरत हो तो मिल सकता हूँ।" राजलक्ष्मी धीरे से बोली, "संसार जिसे जरूरत कहता है वह नहीं। केवल एक बार और देखना चाहती हूँ। आओगे?" कलकत्ते पहुँचकर चिट्ठी भेजोगे?" बाहर गाड़ी छूटने का अन्तिम घण्टा बज उठा और गार्ड ने अपनी हरी रोशनी बार-बार हिलाकर गाड़ी छोड़ने का संकेत किया। राजलक्ष्मी ने झुककर मेरे पाँवों की धूल ली और मेरा हाथ छोड़ दिया। मैंने ज्यों ही नीचे उतरकर गाड़ी का दरवाजा बन्द किया, गाड़ी रवाना हो गयी। रात अंधेरी थी, अच्छी तरह कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था, सिर्फ प्लेटफार्म के मिट्टी के तेल के लैम्पों ने धीरे-धीरे सरकती हुई गाड़ी की उस खुली खिड़की की एक अस्पष्ट नारी-मूर्ति पर कुछ रोशनी डाली। कलकत्ता आकर मैंने चिट्ठी भेजी और उसका जवाब भी पाया। यहाँ कोई अधिक काम तो था नहीं, जो कुछ था वह पन्द्रह दिन में समाप्त हो गया। अब विदेश जाने का आयोजन करना होगा। लेकिन, उसके पहले वादे के अनुसार एक बार फिर राजलक्ष्मी से मिल आना होगा। दो सप्ताह और भी यों ही बीत गये। मन में एक आशंका थी कि न जाने उसका क्या मतलब हो, शायद आसानी से छोड़ना नहीं चाहे, या इतनी दूर जाने के विरुद्ध तरह-तरह के उज्र और आपत्तियाँ खड़ी करके जिद करे- कुछ भी असम्भव नहीं है। इस समय वह काशी में है। उसके रहने का पता भी जानता हूँ; इधर उसके दो-तीन पत्र भी आ चुके हैं, और यह भी विशेष रूप से लक्ष्य कर चुका हूँ कि मेरे वादे को याद दिलाने के सम्बन्ध में कहीं भी उसने इशारा करने का प्रयत्न नहीं किया है। न करने की तो बात ही है। मन ही मन कहा, अपने को इतना छोटा बनाकर मैं भी शायद मुँह खोलकर यह नहीं लिख सकता कि तुम आकर एक बार मुझसे मिल जाओ। देखते-देखते अकस्मात् मैं जैसे अधीर हो उठा। और इस जीवन के साथ वह इतनी जकड़ी हुई है, यह बात इतने दिन कैसे भूला हुआ था, यह सोचकर अवाक् हो गया। घड़ी निकालकर देखी, अब भी समय है, गाड़ी पकड़ी जा सकती है। तब समान डेरे पर पड़ा रहा और मैं बाहर निकल पड़ा। इधर-उधर फैली हुई चीजों को देखकर मन में आया, रहें ये सब पड़ी हुईं। मेरी जरूरतों को जो मुझसे भी अधिक अच्छी तरह जानती है, उसी के उद्देश्य से-उसी से मिलने के लिए, जब यात्रा करना है, तब यह जरूरतों का बोझा नहीं ढोऊँगा। रात को गाड़ी में किसी तरह नींद नहीं आई, अलस तन्द्रा के झोंकों से मुँदी हुई दोनों ऑंखों की पलकों पर कितने विचार और कितनी कल्पनाएँ खेलती हूई घूमने लगीं उनका आदि-अन्त नहीं। शायद, अधिकांश ही विशृंखल थीं, परन्तु, सभी जैसे मधु से भरी हुईं। धीरे-धीरे सुबह हुई, दिन चढ़ने लगा, लोगों के चढ़ने-उतरने, बोलने-पुकारने और दौड़-धूप करने की हद नहीं, तेज धूप के कारण चारों ओर कहीं भी कुहरे का चिह्न नहीं रहा; पर, मेरी ऑंखें बिल्कुईल वाष्पाछन्न हो रहीं। रास्ते में गाड़ी लेट हो जाने के कारण राजलक्ष्मी के काशी के मकान पर जब मैं पहुँचा तो बहुत देरी हो गयी थी। बैठक के सामने एक बूढ़े से ब्राह्मण हुक्का पी रहे थे। उन्होंने मुँह उठाकर पूछा, "क्या चाहते हैं?" यह सहसा नहीं बतला सका कि क्या चाहता हूँ। उन्होंने फिर पूछा, "किसे खोज रहे हैं?" किसे खोज रहा हूँ, सहसा यह बतलाना भी कठिन हो गया। जरा रुककर बोला, "रतन है क्या?" नहीं, वह बाजार गय
ा है।" ब्राह्मण सज्जन व्यक्ति थे। मेरे धूलि-भरे मलिन मुख की ओर देखकर शायद उन्होंने अनुमान कर लिया कि मैं दूर से आ रहा हूँ, इसलिए दयापूर्ण स्वर में बोले- "आप बैठिए, वह जल्द आएगा। आपको क्या सिर्फ उसी की जरूरत है?" पास ही एक चौकी पर बैठ गया। उनके प्रश्न का ठीक उत्तर न देकर पूछ बैठा, "यहाँ बंकू बाबू हैं?" हैं क्यों नहीं।" यह कहकर उन्होंने एक नये नौकर को कहा कि बंकू बाबू को बुला दे। बंकू ने आकर देखा तो पहले वह बहुत विस्मित हुआ। बाद में मुझे अपनी बैठक में ले जाकर और बिठाकर बोला, "हम लोग तो समझते थे कि आप बर्मा चले गये।" इस 'हम लोग' का क्या मतलब है, यह मैं पूछ नहीं सका। बंकू ने कहा, "आपका सामान अभी गाड़ी पर ही है क्या?" नहीं, मैं साथ में कोई सामान नहीं लाया।" नहीं लाये? तो क्या रात की ही गाड़ी से लौट जाना है?" मैंने कहा, "सम्भव हुआ तो ऐसा ही विचार करके आया हूँ।" बंकू बोला, "तब ठीक है, इतने थोड़े वक्त के लिए सामान की क्या जरूरत!" नौकर आकर धोती, गमछा और हाथ-मुँह धोने को पानी आदि जरूरी चीजें दे गया; पर, और कोई मेरे पास नहीं आया। भोजन के लिए बुलाहट हुई, जाकर देखा, चौके में मेरे और बंकू के बैठने की जगह पास पास ही की गयी है। दक्षिण का दरवाजा ठेलकर राजलक्ष्मी ने अन्दर प्रवेश करके मुझे प्रणाम किया। शुरू में तो शायद उसे पहिचान ही न सका। जब पहिचाना तो ऑंखों के सामने मानो अन्धकार छा गया। यहाँ कौन है और कौन नहीं, नहीं सूझ पड़ा। दूसरे ही क्षण खयाल आया कि मैं अपनी मर्यादा बनाये रखकर, कुछ ऐसा न करके जिसमें कि हँसी हो, इस घर से फिर सहज ही भले मानस की तरह किस तरह बाहर हो सकूँगा। राजलक्ष्मी ने पूछा, "गाड़ी में कुछ तकलीफ तो नहीं हुई?" इसके सिवा वह और क्या पूछ सकती थी? मैं धीरे से आसन पर बैठकर कुछ क्षण स्तब्ध रहा, शायद एक घड़ी से अधिक नहीं और फिर मुँह उठाकर बोला, "नहीं, तकलीफ नहीं हुई।" इस बार उसके मुँह की ओर अच्छी तरह देखा तो मालूम हुआ कि उसने न केवल सारे आभूषण ही उतार कर शरीर पर एक सादी किनारी की धोती धारण कर रक्खी है, बल्कि, उसकी पीठ पर लटकने वाली मेघवत् सुदीर्घ केशराशि भी गायब है। माथे के ऊपर, ललाट के नीचे तक, ऑंचल खिंचा हुआ है, तो भी उसमें से कटे बालों की दो-चार लटें गले के दोनों ओर निकलकर बिखर गयी हैं। उपवास और कठोर आत्म-निग्रह की एक ऐसी रूखी दुर्बलता चेहरे से टपक रही है कि अकस्मात् जान पड़ा कि इस एक ही महीने में वह उम्र में भी मानो मुझसे दस साल आगे बढ़ गयी है। भात के ग्रास मेरे गले में पत्थर की तरह अटकते थे, तो भी, जबर्दस्ती निगलने लगा। बार-बार यही खयाल करने लगा कि इस नारी के जीवन से हमेशा के लिए पुँछकर विलुप्त हो जाऊँ और आज, सिर्फ एक दिन के लिए भी, यह मेरे कम खाने की आलोचना करने का अवसर न पावे। भोजन समाप्त होने के बाद राजलक्ष्मी ने कहा, "बंकू कहता था कि तुम आज रात की ही गाड़ी से वापस चले जाना चाहते हो?" मैंने कहा, "हाँ।" ऐसा भी कहीं होता है! लेकिन, तुम्हारा जहाज तो उस रविवार को छूटेगा।" इस व्यक्त और अव्यक्त उच्छ्वास से विस्मित होकर उसके मुँह की ओर देखा। देखते ही वह हठात् जैसे लज्जा से मर गयी और दूसरे ही क्षण अपने को सँभालकर धीरे से बोली, "उसमें तो अब भी तीन दिन की देरी है?" मैंने कहा, "हाँ पर और भी तो काम हैं।" राजलक्ष्मी फिर कुछ कहना चाहती थी; पर चुप रही। शायद मेरी थकावट, और अस्वस्थ होने की सम्भावना के खयाल से उस बात को मुँह पर न ला सकी। कुछ देर और चुप रहकर बोली, "मेरे गुरुदेव आये हैं।" समझ गया कि बाहर जिस व्यक्ति से पहले-पहल मुलाकात हुई थी वही गुरुदेव हैं। उन्हीं को दिखाने के लिए ही वह एक बार मुझे इस काशी में खींच लाई थी। शाम को उनके साथ बातचीत हुई। मेरी गाड़ी रात को बारह बजे के बाद छूटेगी। अब भी बहुत समय है। आदमी सचमुच अच्छे हैं। स्वधर्म में अविचल निष्ठा है और उदारता का भी अभाव नहीं है। हमारी सभी बातें जानते हैं, क्योंकि, अपने गुरु से राजलक्ष्मी ने कोई बात छिपाई नहीं है। उन्होंने बहुत-सी बातें कहीं। कहानी के बहाने उपदेश भी कम न दिये; पर वे न उग्र थे और न चोट करने वाले। सब बातें याद नहीं हैं, शायद मन लगाकर सुनी भी नहीं थीं; तो भी, इतना याद है कि कभी न कभी राजलक्ष्मी का इस रूप में परिवर्तन होगा, यह वे जानते थे। दीक्षा के सम्बन्ध में भी वे प्रचलित रीति नहीं मानते हैं। उनका विश्वास है कि जिसका पाँव फिसला है, सद्गुरु की, औरों की अपेक्षा, उसी को अधिक आवश्यकता है। इसके विरुद्ध मैं कहता ही क्या? उन्होंने फिर एक बार अपनी शिष्या की भक्ति, निष्ठा और धर्मभीरुता की भूरि-भूरि प्रशंसा करके कहा, "ऐसी स्त्री दूसरी नहीं देखी।" बात वास्तव में सच थी, पर मैं इसे खुद भी उनके कहने की अपेक्षा कम नहीं जानता था। किन्तु, चुप हो रहा। समय होने लगा, घोड़ागाड़ी दरवाजे के स
ामने आकर खड़ी हो गयी। गुरुदेव से विदा लेकर मैं गाड़ी पर जा बैठा। राजलक्ष्मी ने सड़क पर आकर और गाड़ी के अन्दर हाथ बढ़ाकर बार-बार मेरे पाँवों की धूलि अपने माथे पर लगाई, पर मुँह से कुछ भी न कहा। शायद उसमें यह शक्ति ही नहीं थी। अच्छा ही हुआ जो अंधेरे में वह मेरा मुँह नहीं देख सकी। मैं भी स्तब्ध हो रहा, क्या कहूँ, नहीं खोज सका। अन्तिम विदा निःशब्द ही पूरी हुई। गाड़ी चल पड़ी। मेरी दोनों ऑंखों से ऑंसू गिरने लगे। मैंने अपने सर्वान्तःकरण से कहा, "तुम सुखी होओ, शान्त होओ, तुम्हारा लक्ष्य ध्रुव हो, तुम्हारी ईष्या न करूँगा; लेकिन, जिस अभागे ने सब कुछ त्यागकर एक साथ एक दिन अपनी नौका छोड़ दी थी, इस जीवन में उसे अब किनारा नहीं मिलेगा।" गाड़ी गड़गड़ाती हुई रवाना हो गयी। उस दिन की विदा के समय जो सब बातें मन में आई थीं, वही फिर जाग उठीं। मन में आया कि यह जो एक जीवन-नाटक का अत्यन्त स्थूल और साधु उपसंहार हुआ है इसकी ख्याति का अन्त नहीं है। इतिहास में लिखने पर इसकी अम्लान दीप्ति कभी धूमिल नहीं होगी। श्रद्धा और विस्मय के साथ मस्तक झुकाने वाले पाठकों का भी किसी दिन संसार में अभाव न होगा- लेकिन, मेरी आत्म-कहानी किसी को भी सुनाने की नहीं है। मैं चला अन्यत्र। मेरे ही समान जो पाप-पंक में डूबी है, जिसे अच्छे होने का कोई मार्ग नहीं रहा है, उसी अभया के आश्रय में। मन ही मन राजलक्ष्मी को लक्ष्य करके बोला, "तुम्हारा पुण्य-जीवन उन्नत से भी उन्नततर हो, धर्म की महिमा तुम्हारे द्वारा उज्ज्वल से उज्ज्वलतर हो, मैं अब क्षोभ नहीं करूँगा।" अभया की चिट्ठी मिली है। स्नेह, प्रेम और करुणा से अटल अभया ने, बहन से भी अधिक स्नेहमयी विद्रोहिणी अभया ने, मुझे सादर आमन्त्रित किया है। आने के समय छोटे से दरवाजे पर उसके जो सजल नेत्र दिखे थे, वे याद आ गये और याद आ गया उसका समस्त अतीत और वर्तमान इतिहास। चित्त की शुद्धता, बुद्धि की निर्भरता और आत्मा की स्वाधीनता से वह जैसे मेरे सारे दुःखों को एक क्षण में ढँककर उद्भासित हो उठी। सहसा गाड़ी के रुकने पर चकित होकर देखा तो स्टेशन आ गया है। उतरकर खड़े होते ही एक और व्यक्ति कोच-बॉक्स से शीघ्रतापूर्वक उतरा और उसने मेरे पैरों पर पड़कर प्रणाम किया। " कौन है रे, रतन?" बाबू, विदेश में चाकर की जरूरत हो तो मुझे खबर दीजिएगा। जब तक जीवित रहूँगा। आपकी सेवा में त्रुटि न होगी।" गाड़ी की बत्ती की रोशनी उसके मुँह पर पड़ रही थी। मैं विस्मित होकर बोला, "तू रोता क्यों है?" रतन ने जवाब नहीं दिया, हाथ से ऑंखें पोंछकर पाँव के पास फिर झुककर प्रणाम किया और वह जल्दी से अन्धकार में अदृश्य हो गया। आश्चर्य, यह वही रतन है!
मालती बाहर से तितली है, भीतर से मधुमक्खी। उसके जीवन में हँसी ही हँसी नहीं है, केवल गुड़ खा कर कौन जी सकता है! और जिए भी तो वह कोई सुखी जीवन न होगा। वह हँसती है, इसलिए कि उसे इसके भी दाम मिलते हैं। उसका चहकना और चमकना, इसलिए नहीं है कि वह चहकने को ही जीवन समझती है, या उसने निजत्व को अपने आँखों में इतना बढ़ा लिया है कि जो कुछ करे, अपने ही लिए करे। नहीं, वह इसलिए चहकती है और विनोद करती है कि इससे उसके कर्तव्य का भार कुछ हल्का हो जाता है। उसके बाप उन विचित्र जीवों में थे, जो केवल जबान की मदद से लाखों के वारे-न्यारे करते थे। बड़े-बड़े जमींदारों और रईसों की जायदादें बिकवाना, उन्हें कर्ज दिलाना या उनके मुआमलों का अफसरों से मिल कर तय करा देना, यही उनका व्यवसाय था। दूसरे शब्दों में दलाल थे। इस वर्ग के लोग बड़े प्रतिभावान होते हैं। जिस काम से कुछ मिलने की आशा हो, वह उठा लेंगे, और किसी न किसी तरह उसे निभा भी देंगे। किसी राजा की शादी किसी राजकुमारी से ठीक करवा दी और दस-बीस हजार उसी में मार लिए। यही दलाल जब छोटे-छोटे सौदे करते हैं, तो टाउट कहे जाते हैं, और हम उनसे घृणा करते हैं। बड़े-बड़े काम करके वही टाउट राजाओं के साथ शिकार खेलता है और गर्वनरों की मेज पर चाय पीता है। मिस्टर कौल उन्हीं भाग्यवानों में से थे। उनके तीन लड़कियाँ ही लड़कियाँ थीं! उनका विचार था कि तीनों को इंग्लैंड भेज कर शिक्षा के शिखर पर पहुँचा दें। अन्य बहुत से बड़े आदमियों की तरह उनका भी खयाल था कि इंग्लैंड में शिक्षा पा कर आदमी कुछ और हो जाता है। शायद वहाँ की जलवायु में बुद्धि को तेज कर देने की कोई शक्ति है, मगर उनकी यह कामना एक-तिहाई से ज्यादा पूरी न हुई। मालती इंग्लैंड में ही थी कि उन पर फालिज गिरा और बेकाम कर गया। अब बड़ी मुश्किल से दो आदमियों के सहारे उठते-बैठते थे। जबान तो बिलकुल बंद ही हो गई। और जब जबान ही बंद हो गई, तो आमदनी भी बंद हो गई। जो कुछ थी, जबान ही की कमाई थी। कुछ बचा कर रखने की उनकी आदत न थी। अनियमित आय थी, और अनियमित खर्च था, इसलिए इधर कई साल से बहुत तंगहाल हो रहे थे। सारा दायित्व मालती पर आ पड़ा। मालती के चार-पाँच सौ रुपए में वह भोग-विलास और ठाठ-बाट तो क्या निभता! हाँ, इतना था कि दोनों लड़कियों की शिक्षा होती जाती थी और भलेमानसों की तरह जिंदगी बसर होती थी। मालती सुबह से पहर रात तक दौड़ती रहती थी। चाहती थी कि पिता सात्विकता के साथ रहें, लेकिन पिताजी को शराब-कबाब का ऐसा चस्का पड़ा था कि किसी तरह गला न छोड़ता था। कहीं से कुछ न मिलता, तो एक महाजन से अपने बँगले पर प्रोनोट लिख कर हजार दो हजार ले लेते थे। महाजन उनका पुराना मित्र था, जिसने उनकी बदौलत लेन-देन में लाखों कमाए थे, और मुरौवत के मारे कुछ बोलता न था, उसके पचीस हजार चढ़ चुके थे, और जब चाहता, कुर्की करा सकता था, मगर मित्रता की लाज निभाता जाता था। आत्मसेवियों में जो निर्लज्जता आ जाती है, वह कौल में भी थी। तकाजे हुआ करें, उन्हें परवा न थी। मालती उनके अपव्यय पर झुँझलाती रहती थी, लेकिन उसकी माता जो साक्षात देवी थीं और इस युग में भी पति की सेवा को नारी-जीवन का मुख्य हेतु समझती थीं, उसे समझाती रहती थीं, इसलिए गृह-युद्ध न होने पाता था। संध्या हो गई थी। हवा में अभी तक गरमी थी। आकाश में धुंध छाया हुआ था। मालती और उसकी दोनों बहनें बँगले के सामने घास पर बैठी हुई थीं। पानी न पाने के कारण वहाँ की दूब जल गई थी और भीतर की मिट्टी निकल आई थी। मालती ने पूछा - माली क्या बिलकुल पानी नहीं देता? मँझली बहन सरोज ने कहा - पड़ा-पड़ा सोया करता है सूअर। जब कहो, तो बीस बहाने निकालने लगता है। सरोज बी.ए में पढ़ती थी, दुबली-सी, लंबी, पीली, रूखी, कटु। उसे किसी की कोई बात पसंद न आती थी। हमेशा ऐब निकालती रहती थी। डाक्टरों की सलाह थी कि वह कोई परिश्रम न करे और पहाड़ पर रहे, लेकिन घर की स्थिति ऐसी न थी कि उसे पहाड़ पर भेजा जा सकता। सबसे छोटी वरदा को सरोज से इसलिए द्वेष था कि सारा घर सरोज को हाथों हाथ लिए रहता था, वह चाहती थी जिस बीमारी में इतना स्वाद है, वह उसे ही क्यों नहीं हो जाती। गोरी-सी, गर्वशील, स्वस्थ, चंचल आँखों वाली बालिका थी, जिसके मुख पर प्रतिभा की झलक थी। सरोज के सिवा उसे सारे संसार से सहानुभूति थी। सरोज के कथन का विरोध करना उसका स्वभाव था। बोली - दिन-भर दादाजी बाजार भेजते रहते हैं, फुरसत ही कहाँ पाता है। मरने की छुट्टी तो मिलती नहीं, पड़ा-पड़ा सोएगा। सरोज ने डाँटा - दादाजी उसे कब बाजार भेजते हैं री, झूठी कहीं की! 'रोज भेजते हैं, रोज। अभी तो आज ही भेजा था। कहो तो बुला कर पुछवा दूँ?' 'पुछवाएगी, बुलाऊँ?' मालती डरी। दोनों गुथ जायँगी, तो बैठना मुश्किल कर देंगी। बात बदल कर बोली - अच्छा खैर, होगा। आज डाक्टर मेहता का तुम्हारे यहाँ भाषण
हुआ था, सरोज? सरोज ने नाक सिकोड़ कर कहा - हाँ, हुआ तो था, लेकिन किसी ने पसंद नहीं किया। आप फरमाने लगे? संसार में स्त्रियों का क्षेत्र पुरुषों से बिलकुल अलग है। स्त्रियों का पुरुषों के क्षेत्र में आना इस युग का कलंक है। सब लड़कियों ने तालियाँ और सीटियाँ बजानी शुरू कीं। बेचारे लज्जित हो कर बैठ गए। कुछ अजीब-से आदमी मालूम होते हैं। आपने यहाँ तक कह डाला कि प्रेम केवल कवियों की कल्पना है। वास्तविक जीवन में इसका कहीं निशान नहीं। लेडी हुकू ने उनका खूब मजाक उड़ाया। मालती ने कटाक्ष किया - लेडी हुकू ने? इस विषय में वह भी कुछ बोलने का साहस रखती हैं! तुम्हें डाक्टर साहब का भाषण आदि से अंत तक सुनना चाहिए था। उन्होंने दिल में लड़कियों को क्या समझा होगा? 'पूरा भाषण सुनने का सब्र किसे था? वह तो जैसे घाव पर नमक छिड़कते थे।' 'फिर उन्हें बुलाया ही क्यों? आखिर उन्हें औरतों से कोई बैर तो है नहीं। जिस बात को हम सत्य समझते हैं, उसी का तो प्रचार करते हैं। औरतों को खुश करने के लिए वह उनकी-सी कहने वालों में नहीं हैं और फिर अभी यह कौन जानता है कि स्त्रियाँ जिस रास्ते पर चलना चाहती हैं, वही सत्य है। बहुत संभव है, आगे चल कर हमें अपनी धारणा बदलनी पड़े।' उसने फ्रांस, जर्मनी और इटली की महिलाओं के जीवन आदर्श बतलाए और कहा - शीघ्र ही वीमेन्स लीग की ओर से मेहता का भाषण होने वाला है। सरोज को कौतूहल हुआ। 'मगर आप भी तो कहती हैं कि स्त्रियों और पुरुषों के अधिकार समान होने चाहिए।' 'अब भी कहती हूँ, लेकिन दूसरे पक्ष वाले क्या कहते हैं, यह भी तो सुनना चाहिए। संभव है, हमीं गलती पर हों।' यह लीग इस नगर की नई संस्था है और मालती के उद्योग से खुली है। नगर की सभी शिक्षित महिलाएँ उसमें शरीक हैं। मेहता के पहले भाषण ने महिलाओं में बड़ी हलचल मचा दी थी और लीग ने निश्चय किया था, कि उनका खूब दंदाशिकन जवाब दिया जाए। मालती ही पर यह भार डाला गया था। मालती कई दिन तक अपने पक्ष के समर्थन में युक्तियाँ और प्रमाण खोजती रही। और भी कई देवियाँ अपने भाषण लिख रही थीं। उस दिन जब मेहता शाम को लीग के हाल में पहुँचे, तो जान पड़ता था, हाल फट जायगा। उन्हें गर्व हुआ। उनका भाषण सुनने के लिए इतना उत्साह! और वह उत्साह केवल मुख पर और आँखों में न था। आज सभी देवियाँ सोने और रेशम से लदी हुई थीं, मानो किसी बारात में आई हों। मेहता को परास्त करने के लिए पूरी शक्ति से काम लिया गया था और यह कौन कह सकता है कि जगमगाहट शक्ति का अंग नहीं है। मालती ने तो आज के लिए नए फैशन की साड़ी निकाली थी, नए काट के जंपर बनवाए थे। और रंग-रोगन और फूलों से खूब सजी हुई थी, मानो उसका विवाह हो रहा हो। वीमेंस लीग में इतना समारोह और कभी न हुआ था। डाक्टर मेहता अकेले थे, फिर भी देवियों के दिल काँप रहे थे। सत्य की एक चिनगारी असत्य के एक पहाड़ को भस्म कर सकती है। सबसे पीछे की सफ में मिर्जा और खन्ना और संपादक जी भी विराज रहे थे। रायसाहब भाषण शुरू होने के बाद आए और पीछे खड़े हो गए। मिर्जा ने कहा - आ जाइए आप भी, खड़े कब तक रहिएगा? रायसाहब बोले - नहीं भाई, यहाँ मेरा दम घुटने लगेगा। 'तो मैं खड़ा होता हूँ। आप बैठिए।' रायसाहब ने उनके कंधे दबाए - तकल्लुफ नहीं, बैठे रहिए। मैं थक जाऊँगा, तो आपको उठा दूँगा और बैठ जाऊँगा, अच्छा मिस मालती सभानेत्री हुईं। खन्ना साहब कुछ इनाम दिलवाइए। खन्ना ने रोनी सूरत बना कर कहा - अब मिस्टर मेहता पर निगाह है। मैं तो गिर गया। 'देवियो, जब मैं इस तरह आपको संबोधित करता हूँ, तो आपको कोई बात खटकती नहीं। आप इस सम्मान को अपना अधिकार समझती हैं, लेकिन आपने किसी महिला को पुरुषों के प्रति 'देवता' का व्यवहार करते सुना है? उसे आप देवता कहें, तो वह समझेगा, आप उसे बना रही हैं। आपके पास दान देने के लिए दया है, श्रद्धा है, त्याग है। पुरुष के पास दान के लिए क्या है? वह देवता नहीं, लेवता है। वह अधिकार के लिए हिंसा करता है, संग्राम करता है, कलह करता है...' तालियाँ बजीं। रायसाहब ने कहा - औरतों को खुश करने का इसने कितना अच्छा ढंग निकाला। 'बिजली' संपादक को बुरा लगा - कोई नई बात नहीं। मैं कितनी ही बार यह भाव व्यक्त कर चुका हूँ। मेहता आगे बढ़े - इसलिए जब मैं देखता हूँ, हमारी उन्नत विचारों वाली देवियाँ उस दया और श्रद्धा और त्याग के जीवन से असंतुष्ट हो कर संग्राम और कलह और हिंसा के जीवन की ओर दौड़ रही हैं और समझ रही हैं कि यही सुख का स्वर्ग है, तो मैं उन्हें बधाई नहीं दे सकता। मिसेज खन्ना ने मालती की ओर सगर्व नेत्रों से देखा। मालती ने गर्दन झुका ली। खुर्शेद बोले - अब कहिए। मेहता दिलेर आदमी है। सच्ची बात कहता है और मुँह पर। 'बिजली' संपादक ने नाक सिकोड़ी - अब वह दिन लद गए, जब देवियाँ इन चकमों में आ जाती थीं। उनके अधिकार हड़पते जाओ और कहते जाओ, आप तो देवी
हैं, लक्ष्मी हैं, माता हैं। मेहता आगे बढ़े - स्त्री को पुरुष के रूप में, पुरुष के कर्म में रत देख कर मुझे उसी तरह वेदना होती है, जैसे पुरुष को स्त्री के रूप में, स्त्री के कर्म करते देख कर। मुझे विश्वास है, ऐसे पुरुषों को आप अपने विश्वास और प्रेम का पात्र नहीं समझतीं और मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, ऐसी स्त्री भी पुरुष के प्रेम और श्रद्धा का पात्र नहीं बन सकती। खन्ना के चेहरे पर दिल की खुशी चमक उठी। रायसाहब ने चुटकी ली - आप बहुत खुश हैं खन्ना जी! खन्ना बोले - मालती मिलें, तो पूछूँ। अब कहिए। मेहता आगे बढ़े - मैं प्राणियों के विकास में स्त्री के पद को पुरुष के पद से श्रेष्ठ समझता हूँ, उसी तरह जैसे प्रेम और त्याग और श्रद्धा को हिंसा और संग्राम और कलह से श्रेष्ठ समझता हूँ। अगर हमारी देवियाँ सृष्टि और पालन के देव-मंदिर से हिंसा और कलह के दानव-क्षेत्र में आना चाहती हैं, तो उससे समाज का कल्याण न होगा। मैं इस विषय में दृढ़ हूँ। पुरुष ने अपने अभिमान में अपनी दानवी कीर्ति को अधिक महत्व दिया है। वह अपने भाई का स्वत्व छीन कर और उसका रक्त बहा कर समझने लगा, उसने बहुत बड़ी विजय पाई। जिन शिशुओं को देवियों ने अपने रक्त से सिरजा और पाला, उन्हें बम और मशीनगन और सहस्रों टैंकों का शिकार बना कर वह अपने को विजेता समझता है। और जब हमारी ही माताएँ उसके माथे पर केसर का तिलक लगा कर और उसे अपने असीसों का कवच पहना कर हिंसा-क्षेत्र में भेजती हैं, तो आश्चर्य है कि पुरुष ने विनाश को ही संसार के कल्याण की वस्तु समझा और उसकी हिंसा-प्रवृत्ति दिन-दिन बढ़ती गई और आज हम देख रहे हैं कि यह दानवता प्रचंड हो कर समस्त संसार को रौंदती, प्राणियों को कुचलती, हरी-भरी खेतियों को जलाती और गुलजार बस्तियों को वीरान करती चली जाती है। देवियो, मैं आपसे पूछता हूँ, क्या आप इस दानवलीला में सहयोग दे कर, इस संग्राम-क्षेत्र में उतर कर संसार का कल्याण करेंगी? मैं आपसे विनती करता हूँ, नाश करने वालों को अपना काम करने दीजिए, आप अपने धर्म का पालन किए जाइए। खन्ना बोले - मालती की तो गर्दन ही नहीं उठती। रायसाहब ने इन विचारों का समर्थन किया - मेहता कहते तो यथार्थ ही हैं। 'बिजली' संपादक बिगड़े - मगर कोई बात तो नहीं कही। नारी-आंदोलन के विरोधी इन्हीं ऊटपटाँग बातों की शरण लिया करते हैं। मैं इसे मानता ही नहीं कि त्याग और प्रेम से संसार ने उन्नति की। संसार ने उन्नति की है पौरूष से, पराक्रम से, बुद्धि-बल से, तेज से। खुर्शेद ने कहा - अच्छा, सुनने दीजिएगा या अपनी ही गाए जाइएगा? मेहता का भाषण जारी था - देवियो, मैं उन लोगों में नहीं हूँ, जो कहते हैं, स्त्री और पुरुष में समान शक्तियाँ हैं, समान प्रवृत्तियाँ हैं, और उनमें कोई विभिन्नता नहीं है। इससे भयंकर असत्य की मैं कल्पना नहीं कर सकता। यह वह असत्य है, जो युग-युगांतरों से संचित अनुभव को उसी तरह ढँक लेना चाहता है, जैसे बादल का एक टुकड़ा सूर्य को ढँक लेता है। मैं आपको सचेत किए देता हूँ कि आप इस जाल में न फँसें। स्त्री पुरुष से उतनी ही श्रेष्ठ है, जितना प्रकाश अँधेरे से। मनुष्य के लिए क्षमा और त्याग और अहिंसा जीवन के उच्चतम आदर्श हैं। नारी इस आदर्श को प्राप्त कर चुकी है। पुरुष धर्म और अध्यात्म और ॠषियों का आश्रय ले कर उस लक्ष्य पर पहुँचने के लिए सदियों से जोर मार रहा है, पर सफल नहीं हो सका। मैं कहता हूँ, उसका सारा अध्यात्म और योग एक तरफ और नारियों का त्याग एक तरफ। तालियाँ बजीं। हाल हिल उठा। रायसाहब ने गदगद हो कर कहा - मेहता वही कहते हैं, जो इनके दिल में है। ओंकारनाथ ने टीका की - लेकिन बातें सभी पुरानी हैं, सड़ी हुई। 'पुरानी बात भी आत्मबल के साथ कही जाती है, तो नई हो जाती है।' 'जो एक हजार रुपए हर महीने फटकार कर विलास में उड़ाता हो, उसमें आत्मबल जैसी वस्तु नहीं रह सकती। यह केवल पुराने विचार की नारियों और पुरुषों को प्रसन्न करने के ढंग हैं।' खन्ना ने मालती की ओर देखा - यह क्यों फूली जा रही है? इन्हें तो शरमाना चाहिए। खुर्शेद ने खन्ना को उकसाया - अब तुम भी एक तकरीर कर डालो खन्ना, नहीं मेहता तुम्हें उखाड़ फेंकेगा। आधा मैदान तो उसने अभी मार लिया है। खन्ना खिसिया कर बोले - मेरी न कहिए। मैंने ऐसी कितनी चिड़िया फँसा कर छोड़ दी हैं। रायसाहब ने खुर्शेद की तरफ आँख मार कर कहा - आजकल आप महिला-समाज की तरफ आते-जाते हैं। सच कहना, कितना चंदा दिया? खन्ना पर झेंप छा गई - मैं ऐसे समाजों को चंदे नहीं दिया करता, जो कला का ढोंग रच कर दुराचार फैलाते हैं। 'पुरुष कहता है, जितने दार्शनिक और वैज्ञानिक आविष्कारक हुए हैं, वह सब पुरुष थे। जितने बड़े-बड़े महात्मा हुए हैं, वह सब पुरुष थे। सभी योद्धा, सभी राजनीति के आचार्य, बड़े-बड़े नाविक सब कुछ पुरुष थे, लेकिन इन बड़ों-बड़ों के समूहों ने मिल
कर किया क्या? महात्माओं और धर्म-प्रवर्तकों ने संसार में रक्त की नदियाँ बहाने और वैमनस्य की आग भड़काने के सिवा और क्या किया, योद्धाओं ने भाइयों की गर्दनें काटने के सिवा और क्या यादगार छोड़ी, राजनीतिज्ञों की निशानी अब केवल लुप्त साम्राज्यों के खंडहर रह गए हैं, और आविष्कारकों ने मनुष्य को मशीन का गुलाम बना देने के सिवा और क्या समस्या हल कर दी? पुरुषों की इस रची हुई संस्कृति में शांति कहाँ है? सहयोग कहाँ है?' ओंकारनाथ उठ कर जाने को हुए - विलासियों के मुँह से बड़ी-बड़ी बातें सुन कर मेरी देह भस्म हो जाती है। खुर्शेद ने उनका हाथ पकड़ कर बैठाया - आप भी संपादक जी निरे पोंगा ही रहे। अजी यह दुनिया है, जिसके जी में जो आता है, बकता है। कुछ लोग सुनते हैं और तालियाँ बजाते है चलिए, किस्सा खत्म। ऐसे-ऐसे बेशुमार मेहते आएँगे और चले जाएँगे और दुनिया अपनी रफ्तार से चलती रहेगी। बिगड़ने की कौन-सी बात है? 'असत्य सुन कर मुझसे सहा नहीं जाता।' रायसाहब ने उन्हें और चढ़ाया - कुलटा के मुँह से सतियों की-सी बात सुन कर किसका जी न जलेगा! ओंकारनाथ फिर बैठ गए। मेहता का भाषण जारी था.. 'मैं आपसे पूछता हूँ, क्या बाज को चिड़ियों का शिकार करते देख कर हंस को यह शोभा देगा कि वह मानसरोवर की आनंदमयी शांति को छोड़ कर चिड़ियों का शिकार करने लगे? और अगर वह शिकारी बन जाए, तो आप उसे बधाई देंगी? हंस के पास उतनी तेज चोंच नहीं है, उतने तेज चंगुल नहीं हैं, उतनी तेज आँखें नहीं हैं, उतने तेज पंख नहीं हैं और उतनी तेज रक्त की प्यास नहीं है। उन अस्त्रों का संचय करने में उसे सदियाँ लग जायँगी, फिर भी वह बाज बन सकेगा या नहीं, इसमें संदेह है, मगर बाज बने या न बने, वह हंस न रहेगा - वह हंस जो मोती चुगता है।' खुर्शेद ने टीका की - यह तो शायरों की-सी दलीलें हैं। मादा बाज भी उसी तरह शिकार करती है, जैसे, नर बाज। ओंकारनाथ प्रसन्न हो गए - उस पर आप फिलॉसफर बनते हैं, इसी तर्क के बल पर। ओंकारनाथ ने बात पूरी की - जो सत्य से जौ भर भी न टले। खन्ना को यह समस्या-पूर्ति नहीं रूची - मैं सत्य-वत्य नहीं जानता। मैं तो फिलॉसफर उसे कहता हूँ, जो फिलॉसफर हो सच्चा! खुर्शेद ने दाद दी - फिलॉसफर की आपने कितनी सच्ची तारीफ की है। वाह, सुभानल्ला! फिलॉसफर वह है, जो फिलॉसफर हो। क्यों न हो! मेहता आगे चले - मैं नहीं कहता, देवियों को विद्या की जरूरत नहीं है। है और पुरुषों से अधिक। मैं नहीं हता, देवियों को शक्ति की जरूरत नहीं है। है और पुरुषों से अधिक, लेकिन वह विद्या और वह शक्ति नहीं, जिससे पुरुष ने संसार को हिंसाक्षेत्र बना डाला है। अगर वही विद्याऔर वही शक्ति आप भी ले लेंगी, तो संसार मरुस्थल हो जायगा। आपकी विद्या और आपका अधिकार हिंसा और विध्वंस में नहीं, सृष्टि और पालन में है। क्या आप समझती हैं, वोटों से मानव-जाति का 'उद्धार होगा, या दफ्तरों में और अदालतों में जबान और कलम चलाने से? इन नकली, अप्राकृतिक, विनाशकारी अधिकारों के लिए आप वह अधिकार छोड़ देना चाहती हैं, जो आपको प्रकृति ने दिए हैं? सरोज अब तक बड़ी बहन के अदब से जब्त किए बैठी थी। अब न रहा गया। फुफकार उठी - हमें वोट चाहिए, पुरुषों के बराबर। और कई युवतियों ने हाँक लगाई - वोट! वोट! ओंकारनाथ ने खड़े हो कर ऊँचे स्वर से कहा - नारी-जाति के विरोधियों की पगड़ी नीची हो। मालती ने मेज पर हाथ पटक कर कहा - शांत रहो, जो लोग पक्ष या विपक्ष में कुछ कहना चाहेंगे, उन्हें पूरा अवसर दिया जायगा। मेहता बोले - वोट नए युग का मायाजाल है, मरीचिका है, कलंक है, धोखा है, उसके चक्कर में पड़ कर आप न इधर की होंगी, न उधर की। कौन कहता है कि आपका क्षेत्र संकुचित है और उसमें आपको अभिव्यक्ति का अवकाश नहीं मिलता। हम सभी पहले मनुष्य हैं, पीछे और कुछ। हमारा जीवन हमारा घर है। वहीं हमारी सृष्टि होती है, वहीं हमारा पालन होता है, वहीं जीवन के सारे व्यापार होते हैं। अगर वह क्षेत्र परिमित है, तो अपरिमित कौन-सा क्षेत्र है? क्या वह संघर्ष, जहाँ संगठित अपहरण है? जिस कारखाने में मनुष्य और उसका भाग्य बनता है, उसे छोड़ कर आप उन कारखानों में जाना चाहती हैं, जहाँ मनुष्य पीसा जाता है, जहाँ उसका रक्त निकाला जाता है? मिर्जा ने टोका - पुरुषों के जुल्म ने ही उनमें बगावत की यह स्पिरिट पैदा की है। मेहता बोले - बेशक, पुरुषों ने अन्याय किया है, लेकिन उसका यह जवाब नहीं है। अन्याय को मिटाइए, लेकिन अपने को मिटा कर नहीं। मालती बोली - नारियाँ इसलिए अधिकार चाहती हैं कि उनका सदुपयोग करें और पुरुषों को उनका दुरुपयोग करने से रोकें। मेहता ने उत्तर दिया - संसार में सबसे बड़े अधिकार सेवा और त्याग से मिलते हैं और वह आपको मिले हुए हैं। उन अधिकारों के सामने वोट कोई चीज नहीं। मुझे खेद है, हमारी बहनें पश्चिम का आदर्श ले रही हैं, जहाँ नारी ने अपना
पद खो दिया है और स्वामिनी से गिर कर विलास की वस्तु बन गई है। पश्चिम की स्त्री स्वछंद होना चाहती हैं, इसीलिए कि वह अधिक से अधिक विलास कर सकें। हमारी माताओं का आदर्श कभी विलास नहीं रहा। उन्होंने केवल सेवा के अधिकार से सदैव गृहस्थी का संचालन किया है। पश्चिम में जो चीजें अच्छी हैं, वह उनसे लीजिए। संस्कृति में सदैव आदान-प्रदान होता आया है, लेकिन अंधी नकल तो मानसिक दुर्बलता का ही लक्षण है! पश्चिम की स्त्री आज गृह-स्वामिनी नहीं रहना चाहती। भोग की विदग्ध लालसा ने उसे उच्छृंखल बना दिया है। वह अपने लज्जा और गरिमा को, जो उसकी सबसे बड़ी विभूति थी, चंचलता और आमोद-प्रमोद पर होम कर रही है। जब मैं वहाँ की शिक्षित बालिकाओं को अपने रूप का, या भरी हुई गोल बाँहों या अपने नग्नता का प्रदर्शन करते देखता हूँ, तो मुझे उन पर दया आती है। उनकी लालसाओं ने उन्हें इतना पराभूत कर दिया है कि वे अपने लज्जा की भी रक्षा नहीं कर सकती। नारी की इससे अधिक और क्या अधोगति हो सकती है? रायसाहब ने तालियाँ बजाईं। हाल तालियों से गूँज उठा, जैसे पटाखों की लड़ियाँ छूट रही हों। मिर्जा साहब ने संपादक जी से कहा - इसका जवाब तो आपके पास भी न होगा? संपादक जी ने विरक्त मन से कहा - सारे व्याख्यान में इन्होंने यही एक बात सत्य कही है। 'तब तो आप भी मेहता के मुरीद हुए!' 'जी नहीं, अपने लोग किसी के मुरीद नहीं होते। मैं इसका जवाब ढूँढ निकालूँगा, 'बिजली' में देखिएगा।' 'इसके माने यह हैं कि आप हक की तलाश नहीं करते, सिर्फ अपने पक्ष के लिए लड़ना चाहते हैं।' रायसाहब ने आड़े हाथों लिया - इसी पर आपको अपने सत्य-प्रेम का अभिमान है? संपादक जी अविचल रहे - वकील का काम अपने मुअक्किल का हित देखना है, सत्य या असत्य का निराकरण नहीं। 'तो यों कहिए कि आप औरतों के वकील हैं?' 'मैं उन सभी लोगों का वकील हूँ, जो निर्बल हैं, निस्सहाय हैं, पीड़ित हैं।' 'बड़े बेहया हो यार!' मेहता जी कह रहे थे - और यह पुरुषों का षड्यंत्र है। देवियों को ऊँचे शिखर से खींच कर अपने बराबर बनाने के लिए, उन पुरुषों का, जो कायर हैं, जिनमें वैवाहिक जीवन का दायित्व सँभालने की क्षमता नहीं है, जो स्वच्छंद काम-क्रीड़ा की तरंगों में साँड़ों की भाँति दूसरों की हरी-भरी खेती में मुँह डाल कर अपने कुत्सित लालसाओं को तृप्त करना चाहते हैं। पश्चिम में इनका षड्यंत्र सफल हो गया और देवियाँ तितलियाँ बन गईं। मुझे यह कहते हुए शर्म आती है कि इस त्याग और तपस्या की भूमि भारत में भी कुछ वही हवा चलने लगी है। विशेष कर हमारी शिक्षित बहनों पर वह जादू बड़ी तेजी से चढ़ रहा है। वह गृहिणी का आदर्श त्याग कर तितलियों का रंग पकड़ रही हैं। सरोज उत्तेजित हो कर बोली - हम पुरुषों से सलाह नहीं माँगतीं। अगर वह अपने बारे में स्वतंत्र हैं, तो स्त्रियाँ भी अपने विषय में स्वतंत्र हैं। युवतियाँ अब विवाह को पेशा नहीं बनाना चाहतीं। वह केवल प्रेम के आधार पर विवाह करेंगी। जोर से तालियाँ बजीं, विशेष कर अगली पंक्तियों में, जहाँ महिलाएँ थीं। मेहता ने जवाब दिया - जिसे तुम प्रेम कहती हो, वह धोखा है, उद्दीप्त लालसा का रूप, उसी तरह जैसे संन्यास केवल भीख माँगने का संस्कृत रूप है। वह प्रेम अगर वैवाहिक जीवन में कम है, तो मुक्त विलास में बिलकुल नहीं है। सच्चा आनंद, सच्ची शांति केवल सेवा-व्रत में है। वही अधिकार का स्रोत है, वही शक्ति का उद्गम है। सेवा ही वह सीमेंट है, जो दंपति को जीवनपर्यंत स्नेह और साहचर्य में जोड़े रख सकता है, जिस पर बड़े-बड़े आघातों का भी कोई असर नहीं होता। जहाँ सेवा का अभाव है, वहीं विवाह-विच्छेद है, परित्याग है, अविश्वास है। और आपके ऊपर, पुरुष-जीवन की नौका का कर्णधार होने के कारण जिम्मेदारी ज्यादा है। आप चाहें तो नौका को आँधी और तूफानों में पार लगा सकती हैं। और आपने असावधानी की, तो नौका डूब जायगी और उसके साथ आप भी डूब जाएँगी। भाषण समाप्त हो गया। विषय विवाद-ग्रस्त था और कई महिलाओं ने जवाब देने की अनुमति माँगी, मगर देर बहुत हो गई थी। इसलिए मालती ने मेहता को धन्यवाद दे कर सभा भंग कर दी। हाँ, यह सूचना दे दी गई कि अगले रविवार को इसी विषय पर कई देवियाँ अपने विचार प्रकट करेंगी। रायसाहब ने मेहता को बधाई दी - आपने मेरे मन की बातें कहीं मिस्टर मेहता। मैं आपके एक-एक शब्द से सहमत हूँ। मालती हँसी - आप क्यों न बधाई देंगे, चोर-चोर मौसेरे भाई जो होते हैं, मगर यहाँ सारा उपदेश गरीब नारियों ही के सिर क्यों थोपा जाता है? उन्हीं के सिर क्यों आदर्श और मर्यादा और त्याग सब कुछ पालन करने का भार पटका जाता है? मेहता बोले - इसलिए कि वह बात समझती हैं। खन्ना ने मालती की ओर अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से देख कर मानो उसके मन की बात समझने की चेष्टा करते हुए कहा - डाक्टर साहब के यह विचार मुझे तो कोई सौ साल पिछड़े हुए मालूम
होते हैं। मालती ने कटु हो कर पूछा - कौन से विचार? 'यही सेवा और कर्तव्य आदि।' 'तो आपको ये विचार सौ साल पिछड़े हुए मालूम होते हैं। तो कृपा करके अपने ताजे विचार बतलाइए। दंपति कैसे सुखी रह सकते हैं, इसका कोई ताजा नुस्खा आपके पास है?' खन्ना खिसिया गए। बात कही मालती को खुश करने के लिए, और वह तिनक उठी। बोले - यह नुस्खा तो मेहता साहब को मालूम होगा। 'डाक्टर साहब ने तो बतला दिया और आपके खयाल में वह सौ साल पुराना है, तो नया नुस्खा आपको बतलाना चाहिए। आपको ज्ञात नहीं कि दुनिया में ऐसी बहुत-सी बातें हैं, जो कभी पुरानी हो ही नहीं सकती। समाज में इस तरह की समस्याएँ हमेशा उठती रहती हैं और हमेशा उठती रहेंगी। मिसेज खन्ना बरामदे में चली गई थीं। मेहता ने उनके पास जा कर प्रणाम करते हुए पूछा - मेरे भाषण के विषय में आपकी क्या राय है? मिसेज खन्ना ने आँखें झुका कर कहा - अच्छा था, बहुत अच्छा, मगर अभी आप अविवाहित हैं, तभी नारियाँ देवियाँ हैं, श्रेष्ठ हैं, कर्णधार हैं। विवाह कर लीजिए तो पूछूँगी, अब नारियाँ क्या हैं? और विवाह आपको करना पड़ेगा, क्योंकि आप विवाह से मुँह चुराने वाले मर्दों को कायर कह चुके हैं। मेहता हँसे - उसी के लिए तो जमीन तैयार कर रहा हूँ। 'मिस मालती से जोड़ा भी अच्छा है।' 'शर्त यही है कि वह कुछ दिन आपके चरणों में बैठ कर आपसे नारी-धर्म सीखें।' 'वही स्वार्थी पुरुषों की बात! आपने पुरुष-कर्तव्य सीख लिया है?' 'यही सोच रहा हूँ किससे सीखूँ।' 'मिस्टर खन्ना आपको बहुत अच्छी तरह सिखा सकते हैं। ' मेहता ने कहकहा मारा - नहीं, मैं पुरुष-कर्तव्य भी आप ही से सीखूँगा। 'अच्छी बात है, मुझी से सीखिए। पहली बात यही है कि भूल जाइए कि नारी श्रेष्ठ है और सारी जिम्मेदारी उसी पर है, श्रेष्ठ पुरुष है और उसी पर गृहस्थी का सारा भार है। नारी में सेवा और संयम और कर्तव्य सब कुछ वही पैदा कर सकता है, अगर उसमें इन बातों का अभाव है तो नारी में भी अभाव रहेगा। नारियों में आज जो यह विद्रोह है, इसका कारण पुरुष का इन गुणों से शून्य हो जाना है।' मिर्जा साहब ने आ कर मेहता को गोद में उठा लिया और बोले - मुबारक! मेहता ने प्रश्न की आँखों से देखा - आपको मेरी तकरीर पसंद आई? 'तकरीर तो खैर जैसी थी वैसी थी, मगर कामयाब खूब रही। आपने परी को शीशे में उतार लिया। अपनी तकदीर सराहिए कि जिसने आज तक किसी को मुँह नहीं लगाया, वह आपका कलमा पढ़ रही है।' मिसेज खन्ना दबी जबान से बोलीं - जब नशा ठहर जाय, तो कहिए। मेहता ने विरक्त भाव से कहा - मेरे जैसे किताब के कीड़ों को कौन औरत पसंद करेगी देवी जी! मैं तो पक्का आदर्शवादी हूँ। मिसेज खन्ना ने अपने पति को कार की तरफ जाते देखा, तो उधर चली गईं। मिर्जा भी बाहर निकल गए। मेहता ने मंच पर से अपने छड़ी उठाई और बाहर जाना चाहते थे कि मालती ने आ कर उनका हाथ पकड़ लिया और आग्रह-भरी आँखों से बोली - आप अभी नहीं जा सकते। चलिए, पापा से आपकी मुलाकात कराऊँ और आज वहीं खाना खाइए। मेहता ने कान पर हाथ रख कर कहा - नहीं, मुझे क्षमा कीजिए। वहाँ सरोज मेरी जान खा जायगी। मैं इन लड़कियों से बहुत घबराता हूँ। 'नहीं-नहीं, मैं जिम्मा लेती हूँ, जो वह मुँह भी खोले।' 'अच्छा, आप चलिए, मैं थोड़ी देर में आऊँगा।' 'जी नहीं, यह न होगा। मेरी कार सरोज ले कर चल दी। आप मुझे पहुँचाने तो चलेंगे ही।' दोनों मेहता की कार में बैठे। कार चली। एक क्षण बाद मेहता ने पूछा - मैंने सुना है, खन्ना साहब अपनी बीबी को मारा करते हैं। तब से मुझे इनकी सूरत से नफरत हो गई। जो आदमी इतना निर्दयी हो, उसे मैं आदमी नहीं समझता। उस पर आप नारी जाति के बड़े हितैषी बनते हैं। तुमने उन्हें कभी समझाया नहीं? मालती उद्विग्न हो कर बोली - ताली हमेशा दो हथेलियों से बजती है, यह आप भूले जाते हैं। 'मैं तो ऐसे किसी कारण की कल्पना ही नहीं कर सकता कि कोई पुरुष अपने स्त्री को मारे।' 'चाहे स्त्री कितनी ही बदजबान हो?' 'हाँ, कितनी ही।' 'तो आप एक नए किस्म के आदमी हैं।' 'अगर मर्द बदमिजाज है, तो तुम्हारी राय में उस मर्द पर हंटरों की बौछार करनी चाहिए, क्यों?' 'स्त्री जितनी क्षमाशील हो सकती है, पुरुष नहीं हो सकता। आपने खुद आज यह बात स्वीकार की है।' 'तो औरत की क्षमाशीलता का यही पुरस्कार है! मैं समझता हूँ, तुम खन्ना को मुँह लगा कर उसे और भी शह देती हो। तुम्हारा वह जितना आदर करता है, तुमसे उसे जितनी भक्ति है, उसके बल पर तुम बड़ी आसानी से उसे सीधा कर सकती हो, मगर तुम उसकी सफाई दे कर स्वयं उस अपराध में शरीक हो जाती हो।' मालती उत्तेजित हो कर बोली - तुमने इस समय यह प्रसंग व्यर्थ ही छेड़ दिया। मैं किसी की बुराई नहीं करना चाहती, मगर अभी आपने गोविंदी देवी को पहचाना नहीं? आपने उनकी भोली-भाली शांत मुद्रा देख कर समझ लिया, वह देवी हैं। मैं उन्हें इतना ऊँचा स्थान नहीं देना चाहत
ी। उन्होंने मुझे बदनाम करने का जितना प्रयत्न किया है, मुझ पर जैसे-जैसे आघात किए हैं वह बयान करूँ, तो आप दंग रह जाएँगे और तब आपको मानना पड़ेगा कि ऐसी औरत के साथ यही व्यवहार होना चाहिए। 'आखिर उन्हें आपसे जो इतना द्वेष है, इसका कोई कारण तो होगा?' 'कारण उनसे पूछिए। मुझे किसी के दिल का हाल क्या मालूम?' 'उनसे बिना पूछे भी अनुमान किया जा सकता है और वह यह है - अगर कोई पुरुष मेरे और मेरी स्त्री के बीच में आने का साहस करे, तो मैं उसे गोली मार दूँगा, और उसे न मार सकूँगा, तो अपनी छाती में मार लूँगा। इसी तरह अगर मैं किसी स्त्री को अपनी और अपनी स्त्री के बीच में लाना चाहूँ, तो मेरी पत्नी को भी अधिकार है कि वह जो चाहे, करे। इस विषय में मैं कोई समझौता नहीं कर सकता। यह अवैज्ञानिक मनोवृत्ति है, जो हमने अपने बनैले पूर्वजों से पाई है और आजकल कुछ लोग इसे असभ्य और असामाजिक व्यवहार कहेंगे, लेकिन मैं अभी तक उस मनोवृत्ति पर विजय नहीं पा सका और न पाना चाहता हूँ। इस विषय में मैं कानून की परवाह नहीं करता। मेरे घर में मेरा कानून है।' मालती ने तीव्र स्वर में पूछा - लेकिन आपने यह अनुमान कैसे कर लिया कि मैं आपके शब्दों में खन्ना और गोविंदी के बीच आना चाहती हूँ? आप ऐसा अनुमान करके मेरा अपमान कर रहे हैं। मैं खन्ना को अपने जूतियों की नोक के बराबर भी नहीं समझती। मेहता ने अविश्वास-भरे स्वर में कहा - यह आप दिल से नहीं कह रही हैं मिस मालती! क्या आप सारी दुनिया को बेवकूफ समझती हैं? जो बात सभी समझ रहे हैं, अगर वही बात मिसेज खन्ना भी समझें, तो मैं उन्हें दोष नहीं दे सकता। मालती का गला भर्रा गया और उसने मुँह फेर कर रूमाल से आँसू पोंछे। फिर एक मिनट बाद बोली - औरों के साथ तुम भी मुझे...मुझे...इसका दुख है.....मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी। फिर कदाचित् उसे अपनी दुर्बलता पर खेद हुआ। वह प्रचंड हो कर बोली - आपको मुझ पर आक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है, अगर आप भी उन्हीं मर्दों में हैं, जो किसी स्त्री-पुरुष को साथ देख कर उँगली उठाए बिना नहीं रह सकते, तो शौक से उठाइए। मुझे रत्ती-भर परवा नहीं। अगर कोई स्त्री आपके पास बार-बार किसी-न-किसी बहाने से आए, आपको अपना देवता समझे, हर एक बात में आपसे सलाह ले, आपके चरणों के नीचे आँखें बिछाए, आपको इशारा पाते ही आग में कूदने को तैयार हो, तो मैं दावे से कह सकती हूँ, आप उसकी उपेक्षा न करेंगे। अगर आप उसे ठुकरा सकते हैं, तो आप मनुष्य नहीं हैं। उसके विरुद्ध आप कितने ही तर्क और प्रमाण ला कर रख दें, लेकिन मैं मानूँगी नहीं। मैं तो कहती हूँ, उपेक्षा तो दूर रही, ठुकराने की बात ही क्या, आप उस नारी के चरण धो-धो कर पिएँगे, और बहुत दिन गुजरने के पहले वह आपकी हृदयेश्वरी होगी। मैं आपसे हाथ जोड़ कर कहती हूँ, मेरे सामने खन्ना का कभी नाम न लीजिएगा। मेहता ने इस ज्वाला में मानो हाथ सेंकते हुए कहा - शर्त यही है कि मैं खन्ना को आपके साथ न देखूँ। मैं मानवता की हत्या नहीं कर सकती। वह आएँगे तो मैं उन्हें दुरदुराऊँगी नहीं।' 'उनसे कहिए, अपनी स्त्री के साथ सज्जनता से पेश आएँ।' 'मैं किसी के निजी मुआमले में दखल देना उचित नहीं समझती। न मुझे इसका अधिकार है!' 'तो आप किसी की जबान नहीं बंद कर सकती॥' मालती का बँगला आ गया। कार रूक गई। मालती उतर पड़ी और बिना हाथ मिलाए चली गई। वह यह भी भूल गई कि उसने मेहता को भोजन की दावत दी है। वह एकांत में जा कर खूब रोना चाहती है। गोविंदी ने पहले भी आघात किए हैं, पर आज उसने जो आघात किया है, वह बहुत गहरा, बड़ा चौड़ा और बड़ा मर्मभेदी है।
उसके गुरु ने कहा, मैं पागल नहीं हुआ हूं, केवल तुम्हें बताने आया हूं कि मन को कितने ही घिसते रहो, उससे भी आत्मा नहीं मिलेगी। मन से जागो ! मन को घिसते रहो, उससे भी आत्मा नहीं मिलेगी, वह पत्थर घिसना है। मन से जागो! तो अगर आप ध्यान को ऐसा पकड़ लें, तो वह मन के घिसने जैसा हो जाएगा। फिर उसको घिसे जा रहे हैं, उससे कुछ भी नहीं होगा। जागना है! इसलिए मैंने उसे कृत्रिम कहा। हर सीढ़ी कृत्रिम है। इसलिए कृत्रिम है कि अगर सच में ऊपर पहुंच जाना है, तो एक समय तो सीढ़ी पर पैर रखना होता है, फिर दूसरे समय उसे छोड़ देना होता है। अभी मैं परसों यहां से गया, तो किन्हीं मित्र ने कहा कि आपने पहले तो इतना ध्यान को समझाया और फिर आपने यह कह दिया कि इसको भी छोड़ देना पड़ेगा। तो फिर पकड़ें ही क्यों? जैसे मैं आपको एक छत के किनारे कहूं कि अगर आपको छत पर जाना है तो सीढ़ी पर चढ़िए। जब आप सीढ़ी पर चढ़ कर खड़े हो जाएं, तो मैं आपसे कहूं, अब इसको छोड़िए ताकि आप ऊपर जा सकें। तो आप कहेंगे, अगर ऐसे ही इसको छोड़ना ही था तो मुझे चढ़ने को क्यों कहा? मैं नीचे ही खड़ा रहता। सीढ़ी पहुंचा सकती है, दो काम करने पड़ेंगे। सीढ़ी पहुंचाती है, उस पर चढ़िए और उसको छोड़िए। अगर सीढ़ी पर नहीं चढ़े तो भी नहीं पहुंचेंगे, अगर सीढ़ी पर चढ़े और सीढ़ी पर ही पकड़ कर रुक गए तो भी नहीं पहुंचेंगे। मेरी आप बात समझ रहे हैं न? सीढ़ी पहुंचाती है, तो पहुंचाने में उससे दो काम करने होंगे आपको, पहले चढ़ना और फिर उसे छोड़ देना। अन्यथा सीढ़ी दो तरह से रोक लेगी। न चढ़िए तो रोक लेगी और चढ़ कर रुक जाइए उस पर तो रोक लेगी। छत पर पहुंचने के लिए सीढ़ी पर चढ़ना जरूरी है और छत पर पहुंचने के लिए सीढ़ी को छोड़ देना जरूरी है। जो सीढ़ी पर है वह छत पर नहीं है । तो ध्यान को मैंने कृत्रिम कहा इस वजह से कि कहीं उसे सत्य समझ कर मत पकड़ लेना। कोई माध्यम सत्य नहीं होता। उसे कृत्रिम कहा ताकि यह स्मरण रहे कि उसे शुरुआत में पकड़ लेना है और उसे फिर छोड़ देना है। उसकी सार्थकता तब है जब आप पकड़ें और छोड़ दें। अब अनेक लोग हैं, जो इन चीजों को इस भांति पकड़ लेते हैं कि वे उनके प्राण हो जाती हैं। वे उनको पकड़ कर जिंदगी भर बिता देते हैं। उन्होंने खराब कर लिया। वे सीढ़ियां पकड़े बैठे हैं, छत पर पहुंचे नहीं। यानी मेरा कहना यह है, किसी चीज को भी जिसको आप कृत्रिम रूप से आयोजित कर रहे हैं, वह आपका स्वभाव नहीं हो सकता। न ध्यान आपका स्वभाव है। ध्यान भी एक माध्यम मात्र है, आपके ऊपर जो विभाव है उसको अलग करने का। उसे पकड़ लेंगे तो बड़ी गलती हो जाएगी। समझ लीजिए एक आदमी कुआं खोदता है और कुदाली से कुआं खोदता है। तो वह कुदाली से कुआं खोदता है, मिट्टी की पर्तें फेंकता है कुदाली से खोद कर । तो क्या आप सोचते हैं यह कुदाली जो है यही कुआं है? कि जब कुएं को खोद लेगा तो कुदाली को सिर पर रख कर घूमेगा? कुदाली को फेंक देगा। वह तो केवल मिट्टी अलग करने का उपाय था, कुआं खोदने का नहीं, अगर बहुत ठीक से समझिए। कुदाली की वजह से पानी नहीं आया है, कुदाली की वजह से केवल मिट्टी अलग हुई है, पानी तो था। कुदाली की वजह से मिट्टी अलग हुई है, कुदाली की वजह से पानी नहीं आया है, पानी तो था। मिट्टी अलग हो गई, उसके साथ कुदाली भी फेंक देनी पड़ेगी। अगर अब आप कुदाली को पकड़ कर बैठ जाइए, तो फिर आपको पानी नहीं मिलेगा। पहले आप मिट्टी पकड़े बैठे रहे, अब कुदाली पकड़े बैठे हुए हैं। बुद्ध ने कहा, कुछ ऐसे नासमझ हैं, नदी पर बैठ कर नाव में नदी पार करते हैं, फिर नाव को लेकर बाजार में घूमते हैं। वे कहते हैं कि इसने हमको नदी पार करवा दी। तो उन्होंने कहा, अनेक धार्मिक लोग ऐसे हैं जो धर्म को नाव न समझ कर उसको सिर का बोझ समझे हुए हैं। जिस दिन धर्म आपका छूट जाए, उस दिन समझना आप नदी पार हुए और नाव को भी वहीं छोड़ आए। नाव को कहां लिए फिरिएगा? जिसको हम साधना कहते हैं-- साधना सीढ़ी की तरह है, नाव की तरह है, कुदाली की तरह है-वह व्यर्थ हो जाएगी। इसलिए मैं कह रहा हूं वह कृत्रिम है। क्योंकि वह अगर मैं वास्तविक आपसे कहूं, तो फिर उसको छोड़ा आपसे नहीं जा सकेगा। इसे स्मरण रखिए कि जो भी आप साध रहे हैं सब कृत्रिम है। और उसकी उपयोगिता इतनी है कि आपके ऊपर जो कृत्रिम छा गया है उसे वह काट देगा। इससे ज्यादा उसकी उपयोगिता नहीं है। जिस दिन कृत्रिम छंट जाएगा उस दिन वह उतना ही फिजूल है जितना जिसको उसने काटा वह फिजूल है। उसी वक्त उसे भी छोड़ देना है। अगर वह वास्तविक मालूम हुआ और लगा कि वह पकड़े रहना है तो वह बाधा हो जाएगी। रास्ते पर चलते हैं मंजिल पर पहुंचने को; मंजिल पर पहुंच कर रास्ता फिजूल हो जाना चाहिए। अगर रास्ता उस वक्त फिजूल न हो तो आप मंजिल पर नहीं पहुंच पाएंगे। इसलिए मैंने कहा सब रास्ते कृत्रिम हैं। सब रास्ते कृत्
रिम हैं। और आंतरिक जीवन के तो सारे रास्ते कृत्रिम हैं। कृत्रिम हैं कृत्रिम को काटने के लिए, ताकि कृत्रिम जब विलीन हो जाए तो जो वास्तविक है वह उपलब्ध हो जाए। और यह तो आप समझ ही लीजिए, अज्ञान में आप जो भी करेंगे वह कृत्रिम होगा। अज्ञान में आप जो भी करेंगे, जो भी करेंगे वह कृत्रिम होगा। बस उस कृत्रिमता में दो तरह की कृत्रिमताएं हो सकती हैं। एक ऐसी जो अज्ञान को और घनी करती चली जाएं और एक ऐसी जो अज्ञान को कम कर दें। अभी सुबह कोई मुझसे पूछता था कि आप ध्यान को कहते हैं विचार-शून्यता, तो इसमें तो विचार तो हम करते ही रहते हैं कि विचार शून्य हो रहा है या श्वास देख रहे हैं, तो यह सब विचार है। तो मैंने उनसे कहा कि अगर यह भवन है, यह कमरा है, और इस कमरे के बाहर जाना हो, तो मैं आपको कहूंगा, कमरे के बाहर जाने के लिए कमरे के बाहर, जहां कमरा समाप्त हो जाता है, वहां पहुंच जाइए। आप कहेंगे, लेकिन अभी तो आप कहते हैं कमरे के बाहर पहुंच जाइए, लेकिन आप कहते तो हैं कमरे में चलिए। तो कमरे में चलना दो तरह का हो सकता है। एक तो आदमी जो गोल चक्कर इसी कमरे में काटे। वह काटता रहे, काटता रहे। वह भी कमरे में चल रहा है। और एक वह आदमी जो यहां से चले और दरवाजे से बाहर निकल जाए। वह भी कमरे में चल रहा है। एक कमरे में चलना कमरे में ही बनाए रखेगा और दूसरा कमरे में चलना कमरे के बाहर ले जाएगा। कमरे के भीतर दो तरह से चला जा सकता हैः चक्कर में और सीधा। इस कृत्रिम अज्ञान के जीवन में मनुष्य दो तरह के काम कर सकता है। एक ऐसे जिनसे कृत्रिमताएं चक्कर की तरह बनी रहें और एक ऐसे जिनसे कृत्रिमताएं टूट जाएं। जब कृत्रिमता टूट जाए तो आपको पता चलेगाः ध्यान भी कृत्रिमता थी, साधना भी कृत्रिमता थी, तपश्चर्या भी कृत्रिमता थी। छोड़ा, पकड़ा, सब कृत्रिम था। जब आपको वास्तविक उपलब्ध होगा तो आपको पता चलेगा सब कृत्रिम था। लेकिन कुछ कृत्रिमताएं ऐसी थीं जो सहयोगी थीं बाहर लाने को, कुछ कृत्रिमताएं ऐसी थीं जो विरोधी थीं बाहर लाने में और अंदर ले जाती थीं। इसलिए उसको मैंने कृत्रिम कहा है। कृत्रिम का अर्थ यह मत समझ लेना कि वह बेकार है, उसे कुछ करना नहीं है। कृत्रिम का मेरा मतलब यह है कि किसी दिन वह जब बेकार हो जाए तो उसे वास्तविक समझ कर पकड़े मत रह जाना। मगर अगर कृत्रिम से आप यह मतलब लो कि वह बेकार है, जब कृत्रिम है तो अभी से उसको क्या पकड़ना! तो फिर सब बात फिजूल हो जाएगी। जैसा मैंने परसों कहा, हम बच्चे को सिखाते हैंः ग--गणेश का। यह बिल्कुल झूठी बात है, यह बिल्कुल कृत्रिम है। गणेश का ग से क्या वास्ता? और अगर कोई वास्ता है गणेश का ग से, तो गधा का भी उतना ही है । वास्ता क्या है? लेकिन हम उसे एक कृत्रिम बात सिखाते हैंः ग--गणेश का। एक कृत्रिम बात सिखाते हैं ताकि ग उसे पकड़ जाए। अगर वह उसको पकड़ ले और जब भी पढ़े कहीं, तो पहले कहेः ग--गणेश का और तब ग को पढ़े। तो आप पाएंगे इसका दिमाग खराब है। एक कृत्रिमता थी जो सहयोगी थी, वह अब इसके लिए दिक्कत हो गई है, अब यह उसको पकड़े हुए है। वह कृत्रिमता सिखाने के लिए उपयोगी थी, लेकिन सिखाते से ही छूट जानी चाहिए। इशारे छोड़ देने चाहिए जब चीज मिल जाए। इस अर्थ में उसे मैंने कृत्रिम कहा है। इस अर्थ में नहीं कि उसे पकड़ना नहीं है, इस अर्थ में कि पकड़ लेने के बाद स्मरण रखना है कि उसे छोड़ देना है। नहीं तो ध्यान पकड़ जाएगा, वही आपकी पकड़ हो जाएगी, वही आपकी जकड़ हो जाएगी, वह धीरेधीरे आपकी मेंटल हैबिट हो जाएगी और उसमें कोई मतलब नहीं रह जाएगा। सब छोड़ते जाना है जो पकड़ा है हमने, उस घड़ी तक पहुंचने के लिए जब वह मिल जाए जिसको हमने पकड़ा नहीं है, जो हमें पकड़े हुए है। उसको ही, जो हमें धारण किए हुए है, हमने धर्म कहा है। जिसको हम धारण कर रहे हैं, वह धर्म नहीं हो सकता। चाहे आप ध्यान कर रहे हों, चाहे मंदिर जा रहे हों, चाहे कुछ भजन कर रहे हों, चाहे कीर्तन कर रहे हों। ये तो आपने धारण किए हैं, ये धर्म नहीं हो सकते। जो आपको धारे हुए है वह धर्म है। तो जब आप अपने धारण किए हुए सारे वस्त्र छोड़ कर खड़े हो जाएंगे, उस दिन आपको उसका पता चलेगा जिसको आपने धारण नहीं किया, जो आपको निरंतर उपलब्ध रहा है, जो आपका है, जो आपका स्वरूप ध्यान भी आप धारण कर रहे हैं, शांति भी आप धारण कर रहे हैं, साधना भी आप धारण कर रहे हैं, तपश्चर्या भी आप धारण कर रहे हैं। जो आप धारण कर रहे हैं वह सत्य नहीं है, वह केवल जो आपने धारण किया है उस असत्य का विरोध है। वे दोनों असत्य एक-दूसरे को खंडित कर देंगे और तब शेष जो रह जाएगा वह सार्थक होगा, वह वास्तविक होगा। उस वास्तविक की तरफ स्मरण आपको बना रहे, इसलिए मैंने ध्यान को कृत्रिम कहा है। प्रश्नः आपने कहा कि शास्त्रों व धार्मिक ग्रंथों का उपयोग नहीं है; और है तो ज्ञान होने के पश्चात । उस
को स्पष्ट समझाइए। ज्ञान होने के पश्चात तो किसी शास्त्र की जरूरत नहीं है, ऐसी मान्यता है। मैंने कहा परसों आपको कि ज्ञान के पूर्व शास्त्र अर्थहीन हैं। क्योंकि आप उनमें जो भी पढ़ेंगे वह आपका अपना अर्थ होगा, उनका नहीं जिनकी वाणी उन शास्त्रों में संगृहीत है। आप जो भी पढ़ेंगे, अपने को पढ़ेंगे, उन ग्रंथों को नहीं पढ़ेंगे। वह पढ़ ही नहीं सकते। उसे पढ़ने के लिए वही चैतन्य की स्थिति चाहिए, जो उस व्यक्ति की रही होगी जिससे वह वाणी निकली है। कभी भी हम, चेतना की समान स्थिति न हो, तो एक-दूसरे को नहीं समझ पाते। इस जगत में आप इस भ्रम में होंगे कि एक-दूसरे को हम समझते हैं, तो आप गलती में हैं। हममें से कोई एक-दूसरे को नहीं समझता। सबके चैतन्य के तल इतने भिन्न हैं, अंडरस्टैंडिंग संभव ही नहीं हो पाती। हम सबके चैतन्य के स्तर इतने भिन्न हैं, हम एक-दूसरे को समझाने की कोशिश करते हैं, लेकिन आपको ख्याल कभी आया कि कोई किसी से समझता है? कोई किसी से नहीं समझता । समझ ही नहीं सकता कोई किसी से। और समझेगा भी, तो इस भ्रम में न रहे कि उसने दूसरे को समझा, वह अपने तल पर कोई बात समझेगा। इसलिए मैंने कहा कि अगर आप गीता पढ़ें, कुरान पढ़ें, बाइबिल पढ़ें, समयसार पढ़ें, तो आप इस भ्रम में न हों कि समयसार कुंदकुंद ने लिखा, इसलिए आप जो समझ रहे हैं वह कुंदकुंद ने कहा होगा। कुंदकुंद ने क्या लिखा, वह आप नहीं समझ सकते, जब तक कुंदकुंद की चेतना स्थिति आपके भीतर न हो। आप वही समझेंगे जो आप समझ सकते हैं। वह आपका ही समझना होगा, आपका अपना पढ़ना होगा कुंदकुंद में, कुंदकुंद का समझना नहीं या कृष्ण का समझना नहीं। तो मैंने कहा कि आप शास्त्र समझ नहीं सकते जब तक ज्ञान न हो और जब ज्ञान आपको होगा तो आप शास्त्र समझ सकेंगे। तब यह बात भी बिल्कुल सच है कि तब शास्त्र के समझने की जरूरत नहीं रहेगी कोई। जब आपको स्वयं ज्ञान उत्पन्न हुआ तो आपको शास्त्र को समझने की जरूरत क्या रह जाएगी? कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। शास्त्र को समझने की जरूरत आपके लिए बिल्कुल नहीं रह जाएगी। जरूरत का कोई प्रश्न नहीं है न, आपको खुद बोध हो रहा है। लेकिन मैंने कहा, तब शास्त्र पढ़े जा सकते हैं। तब शास्त्र किसलिए पढ़े जाएंगे? तब शास्त्र केवल एक वजह से पढ़े जा सकते हैं। जो आपको उपलब्ध हुआ है वह अनेक लोगों को उपलब्ध हुआ है, आप अकेले नहीं हैं उस सीमा में, उस जगत में, उस प्रदेश में। आप अकेले नहीं हैं, आपकी अनुभूति अपनी अकेली नहीं है। अनेक लोग उस मार्ग पर गए हैं, अनेक लोगों को वह अनुभव हुआ है। उनकी जो वाणी और उनके शब्द जो उपलब्ध हैं, वे उसका इंगित देंगे। उस प्रदेश में आपका पहुंचना अकेला नहीं हुआ है, उस पर अनेक लोग पहुंचे हैं। और वे लोग जो पहुंचे हैं, उनकी गवाही में और उनकी साक्षी में आपके वचन अब होंगे। परंपरा धर्म की ऐसे बनती है! ऐसे नहीं बनती कि आपने शास्त्र पढ़ा और बन गई। परंपरा धर्म की ऐसे बनती है कि आप गवाही देते हैं उनकी । आपका अपना ज्ञान - महावीर की, बुद्ध की और कनफ्यूशियस की गवाही हो जाता है कि ठीक है! मैंने जाना, और मैं जो जान रहा हूं, उन्होंने भी जाना। उनकी आप गवाही देते हैं। और वह गवाही मूल्यवान है। वह मूल्यवान इसलिए है कि उस गवाही के परिणाम में लाखों लोगों को एक सत्य का आभास, एक सत्य का इशारा, एक सत्य की तरफ अंगुली होनी शुरू हो जाती है। इस तरह के गवाह हमारी सदी में कम हो गए हैं। इसलिए महावीर आपको झूठे मालूम पड़ने लगे हैं, इसलिए बुद्ध झूठे मालूम पड़ने लगे हैं। आप श्रद्धा किए चले जाते हैं, लेकिन आपको शक होने लगा है--कि पता नहीं हैं भी या नहीं! एक ईसाई साधु ने गांधीजी के पास कुछ दिनों रहने के बाद लिखा कि पहली दफा गांधी के करीब रह कर मैंने अनुभव किया क्राइस्ट हुए होंगे। उसने लिखाः गांधी के पास रह कर मैंने पहली दफा अनुभव किया क्राइस्ट हुए होंगे, अन्यथा मुझे शक था। अन्यथा मुझे शक था। हमने सुना कि क्राइस्ट को जब सूली दी, तो उन्होंने सूली पर, जब हाथ ठोंक दिए गए उनके कीलों से तब उन्होंने परमात्मा से प्रार्थना की कि हे प्रभु, इन सारे लोगों को माफ कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। हमको शक होता है कि किसी आदमी को कोई सूली देगा और वह यह बात कहेगा। लेकिन अगर हम गांधी को जानते हैं तो गवाही मिल जाएगी कि यह बात ठीक है, इस तरह का आदमी हुआ है। और इस तरह का आदमी हुआ है, तो वे लोग जो कि अभी उस स्थिति में नहीं हैं, उनको यह संभावना फलवती होती है कि हमारे भीतर भी उस तरह की घटना घट सकती है। एक सत्य की संभावना, एक बीज की संभावना फलवती होती है, और कुछ नहीं होता। तो जो ज्ञान को उपलब्ध होता है वह शास्त्रों को केवल इस अर्थ में देख सकता है कि वह गवाही दे सके अपने पीछे की परंपरा की, कि जो हम कहते रहे हैं परंपरा से वह असत्य नहीं है, जो हम जा
नते रहे हैं परंपरा से वह असत्य नहीं है। वह गवाही दे सके, वह साक्षी हो सके अनंत पीछे की परंपरा का। वह वापस उस परंपरा को पुनरुज्जीवन दे सके। वह पुनरुज्जीवित परंपरा उसमें हो जाएगी। जब वह ज्ञान को उपलब्ध होगा, अगर वह महावीर की वाणी से परिचित हुआ, तो उस ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति के माध्यम से वहां महावीर की वाणी फिर से जीवित हो जाएगी। और वह जीवन अर्थपूर्ण होगा। और वह जीवन शास्त्र और आगम को जानने का अर्थ होगा। तो मैंने कहा, आगम को तो नहीं जाना जा सकता, शास्त्र को तो नहीं जाना जा सकता अज्ञान में । ज्ञान में जाना जा सकता है। लेकिन ज्ञान में उसके अपने लिए तो कोई शास्त्र जानने का उपयोग न होगा, लेकिन दूसरों के लिए, जो निकट हैं, चारों तरफ घिरे हैं, उनके लिए वह गवाही और साक्षी हो जाएगा। उपयोगिता शास्त्र की साक्षी की तरह है। उपयोगिता शास्त्र की अध्ययन की तरह नहीं है। मेरी बात आप समझेंगे तो समझ में आएगा कि हम जितने साक्षी कम होते चले जाते हैं, उतना हमारी परंपरा खंडित, धूमिल और धुंधली होती चली जाती है। आपको पक्का विश्वास सच में आता है कि महावीर हुए हैं? आपको सच में विश्वास आता है कि महावीर हुए हैं? आप अपने भीतर बहुत तलाश करेंगे तो आपको शक मिलेगा। शक मिलेगा यह कि ऐसा आदमी कैसे हो सकता है? कि लोग उसको मारते हों, पीटते हों, कि लोग उसके कानों में कीलें ठोंकते हों और उसको कुछ भी न होता हो! आप जरा अपने पर विचार करें तो आपको पता लगेगा या तो महावीर असत्य हैं या आप असत्य हैं। यानी आपके कानों में कोई कीलें ठोंकता है और मारता है और आपको कुछ भी नहीं होता? आपको लगेगा--यह कैसे होगा? तो अब दो ही रास्ते हैं महावीर को असत्य करने के। एक रास्ता तो यह कि कह दें कि वे भगवान थे। यह भी असत्य करने का रास्ता है उनको । कि वे सामान्य आदमी नहीं थे, इसलिए नहीं होता होगा। या कह दें कि उनकी काया बहुत विशिष्ट तरह की थी, तीर्थंकरों की काया बहुत दूसरे ढंग की होती है, उस पर चोट ही नहीं लगती। वह लोह-काया थी या कुछ और थी काया । यूं ये तरकीबें हैं असत्य करने की। आप उनको सामान्य आदमी नहीं मान पाते। और सामान्य नहीं मान पाते... एक तो रास्ता यह है कि कह दें कि भगवान हैं, कह दें कि तीर्थंकर हैं, कह दें कि अवतार हैं, कह दें कि उनकी विशेष काया है, ये एक तरकीबें हैं असत्य करने की। दूसरी तरकीबें ये हैं कि कह दें कि वे ऐतिहासिक पुरुष ही नहीं हैं, ये सब कल्पनाएं हैं, ये सब कहानियां हैं। ये दो तरह की बातें हैं। एक तरह से धार्मिक आदमी असत्य करता है, दूसरी तरह से अधार्मिक आदमी उनको असत्य करता है। ये दोनों असत्य कर रहे हैं। लेकिन आपको बिल्कुल अगर ऐसा लगता हो कि बिल्कुल हमारे जैसे हड्डी-मांस के आदमी थे, तो आपको शक होगा। यह शक आपका तभी मिट सकता है जब कि कुछ लोग जो आपकी सदी में जीवित हैं, जिंदा हैं, हड्डी-मांस के हैं और गवाही दे दें, साक्षी दे दें अपने जीवन से। तो आपको यह शक मिट सकता है। यानी धर्म कभी एक दफा पैदा होकर समाप्त हो गया, ऐसा नहीं है, उसे बार-बार पुनरुज्जीवित होना पड़ता है अलग-अलग लोगों में। तब वह स्पष्ट होता है, तब वह ज्ञात होता है, तब वह जीवित होता है। तो ज्ञान के बाद शास्त्र का उपयोग केवल एक है कि वह आदमी यह कह सके कि जो मैं कह रहा हूं, जो मैं जान रहा हूं, जो शब्द मैं दे रहा हूं, वे शब्द पहले भी दिए गए हैं, वे शब्द पहले भी कहे गए हैं। और अगर आप पढ़ेंगे वाणी, तो महावीर यह नहीं कहते कि मैं जान रहा हूं; महावीर कहते हैं, जो पहले भी जाना गया है वह मैं जान रहा हूं। कृष्ण कहते हैं, जो पहले भी कहा गया है वह मैं कह रहा हूं। बुद्ध कहते हैं, अनंत बुद्धों ने जो कहा है वह मैं कह रहा हूं। वे सारे लोग यह कहते हैं कि जो पहले कहा गया है... । अगर उपनिषद पढ़ते हैं तो आप उसमें बार-बार पाएंगे कि वे कहते हैं, जो पहले जाना गया, जो सनातन से जाना गया वह हम कह रहे हैं। वह उसके कहने में अर्थ है। वे पूरी परंपरा को अपने माध्यम से पुनरुज्जीवित कर रहे हैं। और अपने माध्यम से आपको वे उन अनंत जाग्रत पुरुषों से संयुक्त कर रहे हैं जो पीछे हुए और जो अब आपके लिए धूमिल हो गए हैं। यह तो उपयोग है, वैसे उसके अपने लिए कोई उपयोग नहीं है। वह उपयोग आपके लिए है। शास्त्र मुर्दा है, उसके माध्यम से वह जीवित हो जाएगा। और जो शास्त्र आपको नहीं कह पाया, नहीं समझा पाया, वह उस जीवित व्यक्ति के माध्यम से आपको प्रतीत होगा। यह आप समझते हैं न? महावीर की वाणी समझना एक बात है और महावीर के सान्निध्य में होना बिल्कुल दूसरी बात है। जो वाणी नहीं कह पाती वह सान्निध्य कह पाता है, क्योंकि सान्निध्य कुछ और दिखा देता है जो वाणी कभी नहीं दिखा सकती। बुद्ध जब पहली दफा ज्ञान को उपलब्ध हुए तो वे काशी आए। वे काशी के बाहर एक दरख्त के नीचे ठहरे हुए थे। तब उन्हें क
ोई भी नहीं जानता था, कोई पहचानता नहीं था। वे एक अदना, अनजान, अपरिचित भिखमंगे थे, भिक्षु थे। काशी का नरेश सांझ को बहुत परेशान, चिंतित था, वह अपने रथ पर हवाखोरी को निकला था। वह जब गांव के बाहर गया, सूरज की रश्मियां ढलती थीं, बुद्ध एक दरख्त से टिके हुए बैठे थे, उनके चेहरे पर सूरज का प्रकाश पड़ता था। उसने अपने सारथी को कहा, रोको-रोको! यह आदमी तो कुछ अदभुत है। इतना प्रकाशोज्वल, इतना शांत! इतने संगीत से, इतने आनंद से भरी आंख तो मैंने कभी देखी नहीं! उसने कहा, रोको, थोड़ा इसके पास हो लें। जैसे आप किसी फूल से भरे हुए गंध के बगीचे के करीब से निकलें और आपका मन हो कि थोड़ा इसमें ठहर जाएं। और जैसे आप धूप से तपे हुए निकलें और किसी बड़े बरगद की छाया के नीचे आपका मन हो जाए कि थोड़ी देर इसके पास ठहर जाएं। वैसा उस राजा को हुआ कि इस आदमी के पास थोड़ा रुक लें, वह एक चिंता से विदग्ध था। वह बुद्ध के पास गया और उसने कहा कि मैं इतनी चिंता से भरा हूं और मेरे पास सब कुछ है, और तुम्हारे पास कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता, तुम इतनी शांति से, इतने आनंद से बैठे हो! क्या मैं पूछूं यह कैसे संभव हुआ ? मेरे पास सब कुछ है और मैं तीन दिन से चिंता करता हूं कि आत्मघात कर लूं। तुम्हारे पास कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता और तुम इतने निश्चिंत बैठे हो कि अनंत जन्मों तक भी अगर तुम्हें जीना पड़े, तुम ऐसे ही बैठे जीते रहोगे। और मुझे तो भार हो गया है जीना और खत्म करना चाहता हूं अपने को। बुद्ध ने कहा, एक दिन मेरे पास भी सब कुछ था, लेकिन मेरे भीतर कुछ नहीं था। आज मेरे भीतर कुछ है, बाहर मेरे पास कुछ भी नहीं है। जो मैंने भीतर पा लिया है उससे मैंने जो खोया, वह बिल्कुल नहीं खोया, मैंने सभी पा लिया है। एक दिन मैं तुम्हारी हालत में था, आज मैं इस हालत में हूं। अभी तुम इस हालत में हो, कल चाहो तो इस हालत में हो सकते हो। उसने एक क्षण बुद्ध को देखा। वे जो कह रहे थे उसकी गवाही थी, वे जो कह रहे थे उसके वे स्वयं साक्षी थे। उसने सारथी को पास बुलाया, अपना मुकुट उसको वापस दिया, अपने कपड़े उतार कर दे दिए, उससे कहा, घर सूचना करना कि मैं कुछ और बड़ी संपत्ति की खोज में निकल गया हूं। बुद्ध ने कहा था क्या कुछ? वह तो अपने रास्ते जाता था। बुद्ध ने बुलाया था क्या कुछ ? वह तो अपने रास्ते जाता था। बुद्ध ने कोई आवाज दी थी कि सुनो, कि मैं कुछ समझाऊं? उसने बुद्ध को देखा और वह कुछ शास्त्र जो नहीं कह पाते वह सान्निध्य कह देता है। इसलिए जीवित सत्य जब किसी व्यक्ति को उपलब्ध होता है, उसके आसपास जो लोग उसके जीवन की प्रेरणा से खड़े होते हैं, उनमें तो वास्तविक धर्म होता है। उसके मरने के बाद उसकी वाणी के कारण जो खड़े होते हैं, वे मुर्दा धर्म होते हैं। फिर धर्म मर जाता है, फिर उसमें प्राण नहीं रह जाते। फिर वह शब्द - आधारित होता है, फिर वह सत्य-आधारित नहीं होता। सत्य का अनुभव उसके जीवन के सान्निध्य में संभव हो पाता है। तो मैं शास्त्र का कोई उपयोग साधारण के लिए तो नहीं मानता, बल्कि घातक मानता हूं, उसको नुकसान पहुंच सकता है, लाभ तो नहीं हो सकता। शास्त्र तो बड़ी वसीयत है, इस अर्थ में वसीयत है कि जब आप जानेंगे तब आप पहचानेंगे कि उस सीमा में, उस प्रदेश में आप अकेले नहीं हैं। और तब आप पहचानेंगे कि आप किसी निर्जन वन में नहीं प्रविष्ट कर गए हैं। आपके पहले बहुत जीवित और जागते हुए लोगों की परंपरा है और उनके चरणचिह्न आपको पहचान में आ जाएंगे। शास्त्र उनके चरणचिह्नों को पहचानने के उपाय से ज्यादा नहीं है । पर यह आप शास्त्र पढ़ कर नहीं समझ सकते, यह आप स्वयं को पढ़ कर समझ सकते हैं, स्वयं में उतर कर समझ सकते हैं। किसी को लग सकता है कि मेरी शास्त्रों के प्रति बड़ी श्रद्धा नहीं है। किसी को लग सकता है कि मैं आपको शास्त्रों के विरोध में ले जाने की बात कर रहा हूं। मैं आपको शास्त्रों के विरोध में इसलिए ले जाना चाहता हूं कि आप किसी दिन उस जगह पहुंच जाएं जहां से शास्त्र पैदा होते हैं, जहां शास्त्र बनते हैं। उस चेतना में पहुंच जाएं जहां शास्त्रों का जन्म होता है। और तब आप शास्त्रों को समझ पाएंगे, उसके पहले नहीं समझ पाएंगे। मेरी श्रद्धा बहुत प्रगाढ़ है। वह आप जैसी श्रद्धा नहीं है, मेरी श्रद्धा बहुत प्रगाढ़ है। और उस श्रद्धा के कारण ही आपसे कहता हूं कि शास्त्रों पर बिल्कुल श्रद्धा न करें, स्वयं पर श्रद्धा करें। उसके माध्यम से किसी दिन आप उस जगह पहुंचेंगे जहां शास्त्रों का जन्म हो जाता है। आप शास्त्रों के पढ़ने वाले ही न बने रहें, उनके जन्मदाता बनें। यह संभव है। प्रश्नः आत्मा का दर्शन कौन करता है? स्व का दर्शन स्व कैसे करेगा? यह मूल्यवान है। यह बात ख्याल में आनी बड़ी जरूरी है कि जब हम कहते हैं, आत्मा का दर्शन होता है, तो दर्शन कौन करेगा? दर्शन में तो दो की
जरूरत है। दर्शन में दो की जरूरत है-- जो देखे उसकी और जो दिखाई पड़े उसकी। तो जब हम कहते हैं आत्मा का दर्शन, तो वहां कौन देखेगा और किसको देखेगा? वहां तो एक ही होगा न। जो देख रहा है, वही होगा। तो दिखाई कौन पड़ेगा? तो फिर दर्शन कैसे होगा? यह बात बड़ी अर्थ की है। सच में ही दर्शन शब्द झूठा है। असल में हमारे सब शब्द झूठे हैं, क्योंकि वे दो के लिए बने हैं। ज्ञान कहें तो भी झूठा है, क्योंकि ज्ञान में भी दो चाहिए -- जिसका ज्ञान हो और जिसको ज्ञान हो। दर्शन कहें तो भी दो चाहिए -- जिसका दर्शन हो और जिसको दर्शन हो । अनुभव कहें तो भी दो चाहिए जिसको अनुभव हो और जिसका अनुभव हो। हमारे सारे शब्द दो के लिए बने हैं, क्योंकि हमारा पूरा संसार दो से बना हुआ है। और वहां अकेला रह जाएगा। तो इस दो के लिए बनी हुई जो भी भाषा है वह वहां बिल्कुल ही अपर्याप्त है। बिल्कुल अपर्याप्त है। इसलिए अगर बिल्कुल ठीक उसके संबंध में कुछ कहना हो, तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। उस आत्म-अनुभव के लिए अगर बिल्कुल ठीक से कुछ कहना हो, तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि हमारे सब शब्द अधूरे पड़ जाएंगे और झूठे पड़ जाएंगे। कोई भी शब्द उसे पूरी तरह प्रकट नहीं करेगा। इसलिए जिन्होंने जाना है उन्होंने कहा कि उस संबंध में हम कुछ भी नहीं कह सकते हैं । फिर, कह तो नहीं सकते, उस तरफ इशारा कैसे करें? तो इन्हीं शब्दों से काम चलाने की कोशिश करते हैं और इन्हीं शब्दों में उस बात को रखने की कोशिश करते हैं जो कि नहीं कही जा सकती। तो उसको हम दर्शन कहते हैं, इस शर्त के साथ कि वहां कोई दृश्य नहीं है। इस शर्त के साथ हम उसको दर्शन कहते हैं, वहां कोई दृश्य नहीं है, वहां केवल द्रष्टा मात्र रह गया है। और वह द्रष्टा मात्र किसी को देख नहीं रहा, क्योंकि देखेगा वहां कौन? वह द्रष्टा मात्र किसी को भी नहीं देख रहा है। तो उसे कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा है। वहां वह अकेला जो शेष रह गया है। तो वह जो उसकी दर्शन की क्षमता थी, वह जो देखने की क्षमता थी, वह जो जानने की क्षमता थी, वह जो बोध की क्षमता थी, वह जो अनुभव की क्षमता थी, वह क्षमता तो मौजूद है, वह कहीं गई नहीं। वह क्षमता अब किसी को भी नहीं जान रही है। इस घड़ी में उसके भीतर क्या होगा? समझ लें यहां एक दीया जले। दीया जले तो दीये का प्रकाश पड़ेगा दीवालों पर, दीवालें दिखाई पड़ेंगी। दरख्तों पर, तो दरख्त दिखाई पड़ेंगे। लेकिन क्या आप सोचते हैं-- दरख्त और दीवालें न रह जाएं तो दीया बुझ जाएगा? एक दीया यहां जले, उसका प्रकाश पड़े दीवालों पर, तो दीवालें दिखाई पड़ेंगी। दरख्तों पर पड़े, तो दरख्त दिखाई पड़ेंगे। लेकिन आप कल्पना करें कि दरख्त और दीवालें नहीं रह गईं, तो क्या दीया बुझ जाएगा? क्या दीया इसलिए जलता था कि दरख्त हैं और दीवालें हैं। दरख्तों के, दीवालों के होने से दीये के जलने का क्या वास्ता? दरख्त और दीवालें थीं तो दीये के प्रकाश में दिखाई पड़ती थीं, अगर वे न होंगी तो क्या होगा? दीया अकेला जलेगा। वह किसी को प्रकाशित नहीं करेगा, बस केवल प्रकाशित रह जाएगा। कोई उसमें दिखाई नहीं पड़ेगा, लेकिन अंधेरा थोड़े ही हो जाएगा। यह आप फर्क समझ रहे हैं न? कोई दिखाई नहीं पड़ेगा, लेकिन अंधेरा थोड़े ही हो जाएगा, दीया जलेगा। अब इस दीये के जलने में जब कोई प्रकाशित नहीं हो रहा, तो क्या होगा? दीया अकेला प्रकाशित होता रहेगा। यानी जब कोई प्रकाशित नहीं हो रहा तब भी दीया तो प्रकाशित होता ही रहेगा। उस दीये का जो प्रकाशन है, वैसे ही, आत्मा जब किसी को नहीं जानती, तब वह केवल अपने को ही जानती रह जाती है। यह जानना शब्द बहुत ठीक नहीं है। कोई शब्द ठीक नहीं है। लेकिन बस वह अकेली अपने को ही प्रकाशित करती रह जाती है। इसलिए हम उसे स्व-पर-प्रकाशक कहते हैं। उससे दूसरे पर प्रकाश पड़ता है, दूसरी चीजें देखी जाती हैं, जब कोई चीज मौजूद नहीं रह जाती तो वह स्वयं को जानती है। स्वयं को जानने का मतलब आप समझ लेना । जानना उस अर्थ में नहीं जैसे हम दूसरी चीजों को जानते हैं। जानना इस अर्थ में कि जब कुछ भी जानने को नहीं रह जाता, तो भी ज्ञान तो जलता रह ही जाता है। वह ज्ञान का दीया तो बना ही रह जाता है। उस अनुभव को, उस प्रतीति को, उस साक्षात को जो भी शब्द आप देना चाहें दे सकते हैं। सब शब्द झूठे हैं, एक सुविधा यह है। इसलिए कोई भी शब्द दे दें, कोई दिक्कत नहीं है। उसे कोई साक्षात कहता है, कोई उसे अनुभव कहता है, कोई उसे दर्शन कहता है, कोई प्रतीति कहता है, कोई प्रत्यक्ष कहता है। कोई भी शब्द दे दें, उन सब शब्दों में एक समानता है कम से कम कि वे सब झूठे हैं, वे कामचलाऊ हैं, वे इशारा करते हैं। और इसलिए उनमें कोई झंझट नहीं, कोई शब्द आप दे सकते हैं। एक ही सुविधा है कि वे सब झूठे हैं, यह उनमें समानता है। सारे धर्मों ने जो इशारे किए हैं वे स
ब इशारे इस अर्थ में झूठे हैं, क्योंकि वे शब्दों में किए गए हैं। और कोई शब्द उसे ठीक से प्रकट करने में समर्थ नहीं है। लेकिन आप समझ सकते हैं, इशारा समझ सकते हैं। शब्द को पकड़ लें तो नहीं समझ पाएंगे, अगर शब्द के इशारे को समझ लें तो शब्द पीछे छूट जाएगा और इशारा समझ जाएंगे। इसलिए सारा धर्म जो है वह सिंबालिक है, प्रतीकात्मक है। और उसकी बात सब पैरेबेल्स में, कथाओं में और कहानियों में कही गई है। उसको सीधे-सीधे कहने का कोई भी उपाय नहीं है। अब जैसे मैंने यही कहा, यह एक प्रतीक हुआः एक दीया जलता है, चीजें दिखाई पड़ती हैं। फिर चीजें मौजूद नहीं हैं तो दीये का क्या होगा? दीया जलेगा। तब सिर्फ दीया ही दिखाई पड़ेगा वहां। और कुछ नहीं होगा। उसी भांति आत्मा दूसरों को जानती है। जब वह किसी को भी नहीं जानेगी, तब उसके जानने का क्या होगा? वह जानने का दीया जलता रहेगा। वह जानने के दीये का जो अनुभव होगा उसके लिए कोई शब्द रास्ता नहीं है कहने का। लेकिन कुछ होगा जो बहुत अभूतपूर्व है। क्योंकि जो दूसरे को जान सकता था, यह असंभव है कि वह अपने को न जान सकता हो । जो दूसरे को जान सकता था, यह असंभव है कि वह अपने को न जान सकता हो। जो दूसरे को देखता था, यह असंभव है कि वह स्वयं को न देख सकता हो। क्योंकि जो स्वयं को न जान सकता हो वह दूसरे को जान ही कैसे सकता है ? इसलिए उस क्षण घटना घटेगी एक ऐसे ज्ञान की जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय एक होगा, दो नहीं होंगे। एक ऐसे दर्शन की जहां देखने वाला और दिखाई पड़ने वाला एक होगा और दो नहीं होंगे। उस घड़ी में, उस घड़ी में कोई शब्द नहीं है--साक्षात है। उस घड़ी में कोई शब्द नहीं है -- अनुभूति है। इसलिए, अभी मुझसे एक और प्रश्न पूछा-आत्मा क्या है? तो मैं समझता हूं इसमें उसका उत्तर भी होगा। उसे कहने का कोई उपाय नहीं है। जो भी कहा जा सके वह आत्मा नहीं होगा। वह केवल इशारा होगा। उसे जाना जा सकता है, कहा नहीं जा सकता है। और आप जान लेंगे, तो जिन्होंने कहा है उनके इशारे आपकी समझ में आ जाएंगे। और आप नहीं जानेंगे, तो उनके शब्द आपकी पकड़ में होंगे, उनसे कुछ जानना नहीं होगा। एक प्रश्न और हैः क्या यह सच है कि ब्रह्म को जानना ब्रह्म हो जाना है? मैं समझता हूं आपको समझ में आया होगा। उसे बिना हुए नहीं जाना जा सकता । वही एक तत्व है जिसे बिना हुए नहीं जाना जा सकता । ज्ञान और हो जाना वहां एक ही बात है। वहां होने में और ज्ञान में फासला नहीं हो सकता है। एक प्रश्न हैः आत्मज्ञान पाना मुश्किल नहीं है तो वह ज्ञान बहुत कम लोगों ने क्यों पाया? सामान्य व्यक्ति उसे क्यों नहीं पा सकता है? आत्मा को पाना तो सरल है, इसका अर्थ यह नहीं है कि उसे सभी लोग पा लेंगे। आत्मा को पाना सरल है, इसका केवल इतना ही अर्थ है कि जो भी पाना चाहते हैं वे अवश्य पा लेंगे। जब तक हम पाना नहीं चाहते तब तक हमारे ऊपर उस ज्ञान को कोई थोपेगा नहीं। हम सामान्यतया कुछ और पाना चाहते हैं। हम सारी चीजें पाना चाहते हैं और इसलिए उनको पाने में लगे रहते हैं और आत्मा को नहीं पा सकते हैं। लेकिन जो उस दिशा में चलेगा वह अवश्य पा लेता है। सरल का मतलब इतना है कि जो उस दिशा में चलेगा, जो उन्मुख होगा, कठिन नहीं है, असंभव नहीं है। और जिन थोड़े से लोगों ने पाया, वे इस बात की गवाही हैं कि कोई दूसरा आदमी पा सकता है। इस जमीन पर अगर एक भी आदमी ने कभी आत्मा पाई है तो कोई भी दूसरा आदमी पा सकता है। क्योंकि दो आदमियों की शक्ति में, सामर्थ्य में, कितना ही भेद हो, बहुत भेद नहीं है। और उस सत्य को पाने के लिए कोई भी भेद नहीं है, क्योंकि वह समान रूप से सबको उपलब्ध है। सरलता का मतलब यह है, वह पाई जा सकती है, वह संभावना है, वह सरल संभावना है। नहीं पाते अधिक लोग, यह बिल्कुल दूसरी बात है। रात को चांद निकलता है, मैं नहीं समझता कितने लोग देखते हैं? रात को रोज चांद निकलता है, कितने लोग देखते हैं, यह मैं नहीं समझता। लेकिन चांद को देखना कठिन नहीं है । अब अगर आप यह कहें कि चांद को देखना जरूर कठिन होगा, क्योंकि पांच लाख लोग रहते हैं एक गांव में तो पांच भी तो नहीं देखते, तो मैं आपको क्या कहूंगा? मैं कहूंगा, चांद को देखना तो सरल है, अब यह बिल्कुल दूसरी बात है कि आप कुछ और देख रहे हैं और नहीं देखना चाहते, न देखें। कल हम झील पर गए, वहां झील पर बैठे थे। अब जरूरी नहीं है कि झील पर हम बैठे थे तो हमने झील देखी हो। हममें बहुत थे जिन्होंने झील नहीं देखी। जो झील पर थे, लेकिन झील को नहीं देखा। जो बिल्कुल झील पर खड़े थे, लेकिन झील को नहीं देखा। मैंने देखा वे वहां भी बात कर रहे हैं, वे वहां भी चिंतन में लगे हैं, वे वहां भी कुछ चर्चा में लगे हुए हैं, वे वहां हैं ही नहीं, वे बंबई में हैं या कहीं और हैं। तो अब झील को देखना कठिन तो बिल्कुल नहीं था, उस झील के बिल्कुल
किनारे खड़े थे, लेकिन वे वहां मौजूद ही नहीं थे, वे कहीं और थे। उन्होंने झील को नहीं देखा। एक मेरे मित्र थे, उनको लेकर एक जगह दिखाने गया। नाव में यात्रा की। वे स्विटजरलैंड की बातें करते रहे। वे स्विटजरलैंड रहे कुछ दिन, वहां की झीलों की बात करते रहे, मैं सुनता रहा। फिर कश्मीर की झीलों की बात करते रहे, वह भी मैं सुनता रहा। उस झील पर जिस पर हम थे, उन्होंने उसको बिल्कुल नहीं देखा। फिर लौटने लगे, रास्ते में मुझसे बोले, बड़ी सुंदर झील थी । मैंने कहा, अभी तक मैं आपसे कुछ नहीं बोला, लेकिन अब इस झूठ को आप न बोलें तो अच्छा। वह झील सुंदर थी या नहीं थी, इससे आपको क्या मतलब ? आपने उसे देखा भी नहीं। आप वहां थे ही नहीं! आप स्विटजरलैंड में रहे होंगे उस वक्त, कश्मीर में रहे होंगे, यह हो सकता है। उस झील पर नहीं थे जहां मैं आपके साथ था, आप मेरे पास नहीं थे। जिस नाव पर हम बैठे थे उस पर आप बिल्कुल नहीं थे। वहां आप अनुपस्थित थे। और तब मैं अब यह भी जानता हूं कि जब आप स्विटजरलैंड की झीलों में रहे होंगे तो वहां भी आप उपस्थित नहीं रहे होंगे। और मैं यह भी जानता हूं कि जब आप कश्मीर की झीलों में रहे होंगे, वहां भी उपस्थित नहीं रहे होंगे। आप ही तो थे मेरे साथ अभी। तो आप कृपा करके, इस झील में आपका साथ देख कर मैं जान गया हूं कि उन झीलों के बाबत भी आपकी जो राय है वह झूठी होगी। आपने उनको देखा नहीं। देखना तो बड़ी सरल बात थी, लेकिन देख कम ही लोग पाएंगे। और उसका कारण यह नहीं है कि बात कठिन है इसलिए कम लोग देख पाएंगे; उन्होंने देखना ही नहीं चाहा, वे कहीं और ही देखते रहे। सच में आप अगर देखना चाहते हैं तो कठिनाई बिल्कुल नहीं है। अगर पूरी तरह देखना चाहते हैं तो इसी क्षण देखना हो जाएगा। क्योंकि रोकने को कौन है वहां सिवाय आपके ? वहां कोई है ही नहीं। यानी कोई चीजें ऐसी होती हैं जिनको पाने में कोई फासला तय करना होता है। अब अगर मुझे बंबई जाना है तो इसी क्षण नहीं जा सकता, बीच में टाइम गिरेगा। लेकिन मुझे अपने को जानना है तो इसमें तो टाइम के गिरने की कोई वजह नहीं है, क्योंकि मैं वहां मौजूद हूं। अगर मैं परिपूर्ण प्रगाढ़ता में जानना चाहता हूं तो इसी क्षण जान सकता हूं। लेकिन हम जानना कब चाहते हैं! आप इस भ्रम में पड़ जाते होंगे अक्सर कि हम आत्मा को जानना चाहते हैं। आप जानना आत्मा को बिल्कुल नहीं चाहते। मैं एक जगह था। एक साधु वहां लोगों को समझाते थे कि तुम्हारे पास यह जो संपत्ति है, यह सब एक दिन मौत आएगी, तुमसे छिन जाएगी। इसमें कोई सार नहीं है, यह तो मरने के पहले सब छिन जाएगी, नश्वर है। तो तुम आत्मा को जरूर जान लो, वह तुम्हारे साथ रहेगी। तब उनके भक्त जो सुने होंगे, अगर वे आत्मा को जानना चाहें तो आप सोचते हैं वे आत्मा को जानना चाहते हैं? बिल्कुल भी नहीं। वे एक ऐसी संपत्ति चाहते हैं जो मरने के बाद भी साथ रहे। वे उसी संपत्ति को जिसे वे जिंदगी भर इकट्ठा करते रहे हैं, उसी तरह की कोई स्थायी संपत्ति चाहते हैं जो मरने के बाद भी साथ चली जाए। वे आत्मा को नहीं जानना चाहते हैं। आप साधुओं को समझाते हुए सुनेंगेः आत्मा अमर है। आपके मन में होता है आत्मा को जानें। इसलिए नहीं कि आप आत्मा को जानना चाहते हैं; केवल इसलिए कि आप मौत से डरते हैं। आप मृत्यु से डरे हुए हैं और चाहते हैं कि कोई ऐसी तरकीब हो कि मरें न। शरीर का बहुत उपाय करेंगे, लेकिन आखिर में जानते हैं कि वह मर जाएगा, रोज उसको मरते देखते हैं, फिर भी उपाय जारी रखेंगे। लेकिन एक यह भी आखिर-आखिर में लगेगा कि यह आत्मा भी जान ही लो, कम से कम इससे मरना बच जाएगा। आप आत्मा को नहीं जानना चाहते हैं, आप मृत्यु से डरते हैं केवल। और उस डर से आपमें आत्मा की चाह पैदा होती है, वह वास्तविक नहीं है, झूठी है। वास्तविक चाह मौत से बचने की है। और आत्मा को वह जानेगा जो मरने को राजी हो । अब यह दिक्कत है। आपकी जो आत्मा को जानने की चाह है, मौत के भय से उठी है। और आत्मा को वह जानेगा जो मरने को राजी हो । और आपमें इसलिए चाह उठी है कि यह संपत्ति यहीं चूक जाएगी। मैं उनके साधु के बाद ही बोलता था, तो मैंने कहा, अगर समझ लीजिए यह संपत्ति आपके साथ जा सके, तो फिर आपको आत्मा की कोई जरूरत है? तो आप कहेंगे, फिर क्या जरूरत है! और अगर मैं आपको कहूं कि आपका शरीर अमर हो सके, आप में से कोई आत्मा को चाहता है? आप कहेंगे, फिर फिजूल, कौन बकवास करे। यानी आप असली में चाहते क्या हैं? आप संपत्ति... यह संपत्ति आपको काफी नहीं लगती। जो कम लोभी हैं वे बेचारे इसी संपत्ति में तृप्त हो जाते हैं। जो ज्यादा लोभी हैं वे ऐसी संपत्ति चाहते हैं कि साथ चली जाए। जो बेचारे कम मौत से डरे हैं वे इसी शरीर पर तृप्त हो जाते हैं। जो मौत से ज्यादा डरे हैं वे आत्मा को भी पाना चाहते हैं। आत्मा से आपका कोई मतलब नहीं है ।
तो जितनी आकांक्षा दिखती है लोगों में आत्मा को जानने की, यह आत्मा को जानने की नहीं है। इसे समझ लें ठीक से। यह किन्हीं और चीजों से एस्केप है, पलायन है। आप सत्य के जिज्ञासु नहीं हैं, आप केवल सुरक्षा के खोजी हैं। एक सिक्योरिटी खोज रहे हैं। आत्मा हमें मिल जाएगी तो अच्छा होगा। वही आदमी जो बैंक बैलेंस में सिक्योरिटी खोजता था, वही आदमी पुण्य में खोज रहा है। कोई भेद नहीं है। जो सोचता था बहुत धन वहां जमा होगा तो ठीक रहेगा। वह इससे भी डरा हुआ है कि कुछ पुण्य भी जमा हो, वहां कुछ दिक्कत न हो। वह वही आदमी जो बैंक में पैसा जमा करता था, वही आदमी पुण्य के खाते में भी पुण्य जमा करना चाहता है। यह वही आदमी है, इसमें कोई फर्क नहीं है, यह बिल्कुल वही आदमी है। और यह वही वृत्ति है, इसमें कोई भेद नहीं है। आत्मा को जानने से इसका कोई मतलब नहीं है। आत्मा को जानना आपके इन कारणों से नहीं होता; आत्मा को जानने की प्यास किसी और ही दूसरी से पैदा होती है। वह आपकी सुरक्षा और बचाव नहीं है। वह आपका इस बात का बोध कि जो कुछ भी मेरे चारों तरफ है, जिस दिन आपको यह बोध होता है कि मेरे चारों तरफ जो कुछ है और जो कुछ मैं कर रहा हूं वह बिल्कुल ही अर्थहीन है। उसमें आपको कहीं कोई सार्थकता नहीं दिखाई पड़ती। चौबीस घंटे का, जन्म से लेकर मृत्यु तक का जीवन जब आपको बिल्कुल व्यर्थ दिखाई पड़ता है, जब आपको उसमें कोई सार्थकता नहीं दिखाई पड़ती। तो उस व्यर्थता के बीच, जब यह सब दुख दिखाई पड़ता है और इस दुख के बीच, और जब यह सब संताप दिखाई पड़ता है, इस संताप के बीच आपके भीतर ऐसा होता है कि या तो मैं इस जीवन को समाप्त कर दूं जो कि बिल्कुल व्यर्थ है और या फिर उसको जान लूं जिसमें कोई सार्थकता हो । जो आदमी जीवन में घबड़ा कर उस सीमा पर पहुंच गया हो जहां आत्मघात कर सकता हो, वह आदमी केवल आत्मसाधना में लग सकता है। यानी उस बिंदु पर जहां स्युसाइड होता है, उसी बिंदु पर साधना भी शुरू होती है। उसी बिंदु पर, जहां आदमी इतनी ज्यादा अर्थहीनता अनुभव करता है कि सब व्यर्थ है और उसे ऐसा लगता है कि इस जीवन में कोई भी अर्थ नहीं, उस क्षण वह आत्मसाधना में संलग्न हो सकता है। उस वक्त उसमें एक प्यास पैदा होती है कि वह जान ले कि अगर भीतर कुछ और है जिसमें कोई अर्थ है तो ठीक है, अन्यथा समाप्त कर दे। उसके पहले नहीं। आप तो इसी जीवन को प्रोलांग करना चाहते हैं, तो आत्मा को खोजते हैं। वह इस जीवन को बिल्कुल व्यर्थ जान लेता है, तो आत्मा को जान पाता है। आप इसी जीवन को प्रोलांग करना चाहते हैं। अभी मैं एक गांव से निकला। एक जगह रुका था तो एक महिला ने मुझे लाकर एक किताब भेंट की। उसके ऊपर लिखा थाः अगर आपके पास मकान नहीं है तो मकान की व्यवस्था है। अगर आपके पास बगीचे नहीं हैं तो बगीचे की व्यवस्था है। तो मैं हैरान हुआ कि वह क्या है? ऊपर उसके शीर्षक था, मैंने अंदर देखा, तो उसमें लिखा हैः प्रभु के राज्य में... वह किसी ईसाई का प्रचार था... उसमें लिखा थाः प्रभु के राज्य में सुंदर बगीचे हैं, सुंदर मकान हैं, बड़ा स्वस्थ जीवन है, वहां कोई बीमारी नहीं होती, वहां कोई परेशानी नहीं होती। अगर आप ऐसा जीवन चाहते हैं तो प्रभु ईसा को स्वीकार करिए। अब यह जिन लोगों के पास मकान नहीं हैं; या हैं, बहुत अच्छे नहीं हैं; या बहुत अच्छे हैं, तो किसी के पास कितना ही अच्छा हो उसको और अच्छा चाहिए; उसे वहां एक जिंदगी मरने के बाद भी कायम रखनी है। इसी जिंदगी को आगे कायम रखना है। इस आकांक्षा से जो धर्म के पीछे जाता है वह धार्मिक कभी नहीं हो जिसे यह जिंदगी अर्थहीन हो गई, जिसे यह जिंदगी दुख हो गई, इस जिंदगी में जिसे कोई अर्थ नहीं खोजे मिलता, यहां से लेकर वहां तक यह बिल्कुल व्यर्थ कथा मालूम होती है, उसको एक बोध पकड़ेगा--कि या तो मैं जान लूं कि कुछ सार्थकता भीतर हो तो उसको जान लूं और अन्यथा तोड़ दूं इस सूत्र का... दोस्तोवस्की के एक उपन्यास में उसका एक पात्र परमात्मा से कहता है कि हे परमात्मा, मैं नहीं जानता कि तू कहीं है। लेकिन अगर तू कहीं है, तो मैंने सुना है तू सर्वशक्तिमान है, तो इतनी कृपा कर कि मुझे जीवन से वापस ले ले। अगर तू है और सर्वशक्तिमान है, तो मैं एक ही बात में तेरी सर्वसत्ता का प्रत्यक्ष पाना चाहता हूं, मुझे जीवन से वापस ले ले। यह जीवन बिल्कुल मूढ़तापूर्ण है, इसमें कहीं भी कोई सार और अर्थ नहीं है। जिस दिन आपको ऐसा साक्षात होगा, इसी जीवन को आगे चलाने का नहीं, मृत्यु के बाद बच जाने का नहीं, बल्कि इसका कि यह जीवन इतना व्यर्थ है कि मृत्यु कल हो तो आज ही क्यों नहीं हो जाती ! इसमें अर्थ कहां है? जिस दिन मृत्यु आपको इसी क्षण हो और कोई बाधा न मालूम हो और लगे कि सब व्यर्थ है, उस क्षण आपके भीतर एक बिंदु पर आप खड़े होंगे, जहां आप पहली दफा उस प्यास को अनुभव करेंगे जो सार
्थकता की खोज की है, जो मीनिंग की खोज की है। मीनिंग ही आत्मा है, वह अर्थ ही आत्मा है। और तब आप भीतर प्रविष्ट होंगे। जब तक आप बाहर जीवन को समझते हैं, इसमें आशा है किसी तरह के सुख के मिलने की, तब तक आत्मा की आपमें जानने की प्यास पैदा नहीं होती। जब तक आपको लगता है कि बाहर की दौड़ में कहीं सुख मिल सकता है--यहां या कि स्वर्ग में या कि मोक्ष में-- जब तक आपको लगता है कि कहीं बाहर सुख मिल सकता है, तब तक आप आत्मा को नहीं खोजेंगे। जिस दिन आपको लगेगा बाहर सुख है ही नहीं, यह इतना स्पष्ट होगा कि इसमें कोई शक न रह जाएगा कि बाहर सुख है ही नहीं - - न इस जमीन पर, न स्वर्ग में, न मोक्ष में-- बाहर नहीं, बाहर की धारणा आपकी खंडित हो जाएगी, उस दिन आप इतने प्यास से भरेंगे और आप पाएंगे कि वह मिल गया, वह भीतर है। आत्मा को जानना तो सरल है, आत्मा को चाहना थोड़ा कठिन है। अंत में आपसे इतना कहूं, आत्मा को जानना तो बहुत सरल है, आत्मा को चाहना कठिन है। आत्मा का जानना तो एक क्षण में हो जाता है, आत्मा की चाह जन्म-जन्मांतर के बाद आती है। तो जिनको मिल जाता है इसलिए नहीं कि उन्होंने बड़ी मेहनत की जानने के लिए। न, वह पाने के लिए लंबी यात्रा किए- - वह आकांक्षा, वह अभीप्सा, वह प्यास । प्यासे हम नहीं हैं, तो फिर कोई मायने नहीं है। हम चलेंगे, बातें करेंगे, वह नहीं मिलेगा। प्यासे अगर हम हैं तो इसी क्षण मिल जाएगा। पाना सरल है, जानना सरल है, आकांक्षा आपमें है या नहीं, यह आप निर्णय कर लें। यह निर्णय कोई दूसरा नहीं कर सकता। महावीर यह कह सकते हैं--पाना सरल है, स्वभाव है। बुद्ध यह कह सकते हैं--पाना सरल है, स्वभाव है। क्राइस्ट कह सकते हैं कि प्रभु का राज्य बिल्कुल हाथ के करीब है, बढ़ाओ और पा लो। लेकिन वे इतना ही कह सकते हैं। वे, आप चाहें, ऐसा कुछ भी नहीं कर सकते। यानी मेरा मतलब यह है कि आपको यह बताया जा सकता है कि यह पानी है, कृपा करके चाहें तो पी लें, बड़ा सरल है। पानी तक आपको पहुंचाया जा सकता है, लेकिन प्यास कोई दूसरा आपमें पैदा नहीं कर सकता। आपको पानी में डुबकियां दिलाई जा सकती हैं, लेकिन प्यास आपमें कोई पैदा नहीं कर सकता। प्यास आप पैदा करेंगे, पानी निकट है। प्यास न हो तो आप पानी के किनारे खड़े रहें, वह बहुत दूर है, अनंत दूरी पर है। प्यास जितनी है, पानी उतना निकट है; और प्यास जितनी कम है, पानी उतना दूर है। प्यास अगर परिपूर्ण है तो तृप्ति उसी क्षण हो जाएगी। इसलिए फासला हो सकता है। लेकिन कठिन नहीं है, इसे स्मरण रखें। ( प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं । ) समाधि का अर्थ ही यह होता है जिससे चित्त की समस्त अशांति का समाधान हो गया। जिसे वे लगाते होंगे वह समाधि नहीं है, वह केवल जड़मूर्च्छा है। जो चीज लगाई जा सकती है वह समाधि नहीं है, वह केवल जड़मूर्च्छा है। वह अपने को बेहोश करने की तरकीब है। ट्रिक सीख गए होंगे, और तो कुछ नहीं। तो वह ट्रिक अगर सीख ली जाए तो कोई भी आदमी उतनी देर तक बेहोश रह सकता है, उतनी देर उसे कुछ पता नहीं होगा। अगर आप उसको मिट्टी में दबा दें तो भी कुछ पता नहीं होगा। उस वक्त श्वास भी बंद हो जाएगी और सब चेतन कार्य बंद हो जाएंगे। उसको लोग समाधि समझ लेते हैं। वे उसको समझ लेते हैं वह तो ठीक है, लेकिन दूसरे भी समझ लेते हैं कि वह समाधि है। समाधि के नाम पर एक मिथ्या, जड़अवस्था प्रचलित हुई है। जिसका समाधि से, धर्म से कोई संबंध नहीं है। जो बिल्कुल मदारीगिरी है। समाधि कोई ऐसी चीज नहीं जिसको आप लगाते हैं और जिसमें से निकल आते हैं। समाधि उत्पन्न हो जाए तो वह आपका स्वभाव होती है। इसलिए न आप उसको लगा सकते हैं, न उसके बाहर निकल सकते हैं, न उसके भीतर जा सकते हैं। समाधि जो है वह लगाने और निकलने की चीज नहीं है। जैसे स्वास्थ्य है। अब आप स्वस्थ हैं तो कोई बताइएगा कि हम एक घंटे भर के लिए स्वस्थ हुए जाते हैं और फिर हम अस्वस्थ हो जाएंगे। हम स्वास्थ्य लगाए लेते हैं और फिर हम न लगाएंगे। जैसा स्वास्थ्य है न, स्वास्थ्य तो देह का है, वह आंतरिक चित्त का स्वास्थ्य है, वहां एक दफा स्वास्थ्य प्राप्त हो जाए, तो वह सतत आपके साथ होता है, उसके बाहर आप नहीं हो सकते। तो समाधि में भीतर तो जा सकते हैं, समाधि के बाहर कभी नहीं आ सकते । आज तक कोई आदमी तो समाधि के बाहर नहीं आया। लेकिन जिसको हम समाधि जानते हैं उसमें भीतर-बाहर दोनों हो जाता है आना-जाना। वह आना-जाना कुछ भी नहीं है, वह मूर्च्छा है। आप मूर्च्छित कर लेते हैं, फिर होश में आ जाते हैं। उस आदमी में आप कुछ भी न पाएंगे, जो बहत्तर घंटे नहीं, कितने ही घंटे लगाता हो। उसके जीवन में कुछ भी नहीं होगा। समाधि से हम धीरेधीरे चमत्कार में पतित हो गए हैं और उसको मदारीगिरी बना लिया है। समाधि का वह लक्षण नहीं है। एक ईसाई फकीर हुआ, साधु था, वह अपने एक शिष्य के साथ
एक यात्रा पर था। उसने... रास्ते में पानी पड़ा, अंधेरी रात, वे रास्ता भटक गए... उसने अपने शिष्य से पूछा, शिष्य का नाम लियो था, उसने लियो, तुम परम धर्म क्या समझते हो? क्या बीमारों को छूकर ठीक कर देना, या कि अंधों की आंख पर हाथ रख कर आंखें ठीक कर देना, या कि मुर्दों को छूकर जिला देना, क्या तुम इसे सिद्धि समझते हो? उस लियो ने कहा, सिद्धि तो मालूम होती है। उसके गुरु ने कहा, लेकिन मैं इसे सिद्धि नहीं समझता। हम तो इसे ही सिद्धि समझते हैं। हम तो ईसा का इसीलिए मूल्य समझते हैं कि उन्होंने किसी की आंख छू दी और वह उसकी आंख ठीक हो गई, और किसी मुर्दे को छू दिया और वह जिंदा हो गया। अगर ये सिद्धियां नहीं हैं, तो फिर ईसा में क्या मूल्यवान रह जाएगा? उसने कहा, समय आया तो मैं बताऊंगा कि सिद्धि क्या है। वे रात दो बजे एक गांव में पहुंचे, उन्होंने एक सराय का दरवाजा खटखटाया। वे दोनों फकीर, नंगे आदमी, फटे कपड़े, कीचड़ में भिड़ गए, पानी से भीगे हुए, दो बजे अंधेरी रात दरवाजा खटखटाया। खिड़की से झांक कर पहरेदार ने देखा और उसने कहा, भिखमंगो, भाग जाओ! यहां अब इस रात, इतनी देर, स्थान नहीं मिलेगा। लियो गुस्से में आ गया और उसने कहा, तुमने कहा भिखमंगे! हम भिखमंगे नहीं हैं, हम साधु हैं। उसका गुरु चुपचाप खड़ा रहा। उसने दरवाजा बंद कर दिया पहरेदार ने। उन्होंने फिर दस्तक दी। अब की बार वह और गुस्से में आया। उन्होंने कहा कि क्षमा करें, रात ठहर जाने दें। अब हम इतनी रात किसको जगाएं? लेकिन उसने कहा, भाग जाओ, अन्यथा मैं डंडा लेकर आता हूं! अब रात दुबारा परेशान मत करना। पर मजबूर थे, फिर उन्होंने तीसरी बार दस्तक दी, पानी जोर से गिर रहा था। अब की बार वह डंडा लेकर आया और उसने इन दोनों पर चोट की। उसने लियो पर भी चोट की, उसके गुरु पर भी चोट की। लियो गुस्से में आ गया, उसने डंडा उठा लिया। उसके गुरु पर चोट की, उसके सिर से खून बहता था और उसने कहा, लियो देखो, मैं समाधि में हूं, मैं सिद्धि में हूं। उसने कहा, देखो, अगर तुम्हारे मन में इस आदमी के अपमान करने पर अपमान न हुआ हो, अगर तुम्हारे मन में इसके मारने पर चोट न लगी हो, अगर इसके दुतकारने पर तुम्हारे मन में कोई तरंग न उठी हो, तो सिद्धि है। तुम अंधों की आंखें जिला दो, मुर्दों को जिला दो, बीमारों को ठीक कर दो, उससे कोई वास्ता नहीं। उससे धर्म का कोई वास्ता नहीं है। उससे साइंस का वास्ता हो सकता है। जिस समाधि की आप बात कह रहे हैं, उससे साइंस का वास्ता हो सकता है। आज नहीं कल साइकोलाजी उसके बाबत सब जान लेगी, समझ लेगी। लेकिन उसका अध्यात्म से कोई वास्ता नहीं है। वह ट्रिक है दिमाग की, उसे कल साइकोलाजी समझ लेगी, जान लेगी कि ये-ये करने से ऐसा हो जाता है। लेकिन उससे कोई वास्ता नहीं है। धर्म का और समाधि का वास्ता तो वहां है जब आपके भीतर इतना चित्त समाधान को उपलब्ध हुआ है कि बाहर की कोई तरंगें उसे विक्षुब्ध नहीं कर पातीं। सबसे बड़ा चमत्कार वह आदमी है कि जिसे तुम जब बाहर से चोट करो तो जिसके भीतर कोई चोट न पहुंचे। और सबसे चमत्कार वह आदमी है जिसको बाहर से तुम मार भी डालो तो जिसके भीतर मृत्यु का भाव भी पैदा न हो। वह समाधि के परिणाम में वह घटना घटती है। यानी समाधि एक अवस्था है। एक क्रिया नहीं है जिसके भीतर गए और लौट आए। एक अवस्था है चित्त के समाधान की। और उस पर अगर ध्यान रहा तो ठीक, अन्यथा ये जो इस तरह की बातें सारे मुल्क में चलती हैं, इस मदारीगिरी ने भारत के धर्मों को, भारत के योग को सारी दुनिया में अपमानित किया है। सारी दुनिया में अपमानित किया है। और पश्चिम से जो लोग आते हैं, वे इसी तरह की बातें देख कर लौट जाते हैं और समझते हैं यह अध्यात्म है। और वे महावीर और बुद्ध और इन सबके बाबत भी यही ख्याल बनाते हैं, ये भी इसी तरह के मदारी रहे होंगे। अगर भारत को अपने धर्मों की वापस सुरक्षा करनी है और उन्हें पुनर्जन्म देना है, तो इस तरह की तथाकथित झूठी बातें-- जिनका समाधि से, योग से, धर्म से कोई संबंध नहीं है -- हमें बंद करनी चाहिए। ये सब मदारीगिरियां हैं। इससे कोई वास्ता नहीं है । कुछ और आपके रहे प्रश्न, उनको कल हम विचार करेंगे।
प्रथम नक्सल मानता हूँ । पर निराला ब्राह्मण थे, यह बात हमें नहीं भूलनी चाहिए, मनुवादी संस्कारों की जकड़न के कारण उन्होंने कुछ प्रतिक्रियावादी कविताएँ अवश्य लिखीं । जैसे- वर दे वीणा वादिनी वर दे या फिर राम की शक्तिपूजा । ऐसी कविताएँ निराला की लाल नक्सली चादर पर पुरातनपंथी बदनुमा धब्बे हैं । पर मैं उदारमना हूँ । मनुवाद की जलती भट्टी से खुद बाहर निकला हूँ और इसलिए निराला का कन्फ्यूजन समझ सकता हूँ । मुझे लगता है हमें निराला की इन छोटी मोटी ग़लतियों को माफ करना चाहिए और उनकी मूल नक्सली पहचान पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए । हमारी मुहब्बत वैसे ही परवान चढ़ती जा रही थी जैसा मुहब्बतों के परवान चढ़ने का दस्तूर है । आप शीरीं फ़रहाद को ही देख लीजिए । या फिर लैला मजनूँ, सोहनी महीवाल या अंग्रेज़ी का शौक हो तो रोमियो जूलियट । जमाने बदले पर मुहब्बतों के परवान चढ़ने का मंज़र न बदला । ऊपरी तौर तरीके भले ही बदले हों, कोई अंदरूनी बदलाव न आया । उस जमाने में नायिका बुर्के में होती थी अब बिकिनी में है पर है तो नायिका ही । और नायक पहले दर बदर गली गली, जंगल पहाड़ भटकता था अब क्लब दर क्लब भटकता है । ग़ौर से देखिए तो कुछ खास फ़र्क़ नहीं है। । हाँ, हमारे मामले में खतरे कम थे । गर्दन कटने के आसार न थे । हाल में भी आपने देखा ऋषि कपूर के जालिम बाप ने कैसे ऋषि कपूर को पुश्तैनी जायदाद से बेदख़ल किया और बेटे और उसकी गर्ल फ्रेंड के पीछे गुंडे छोड़ दिए । पर हमारी मुहब्बत में गुंडों का खतरा नहीं था । क्योंकि हमारी मुहब्बत कायदे से नायिका के माँ बाप की सहमति बल्कि उनके मूक इशारे पर ही पैदा ली थी, पनप रही थी । मेरे मां बाप का कोई ठिकाना न था । वे गवई गँवार थे, उन्हें पता न था, पता होता तो भी उन्हें पता होने न होने का कोई मतलब न था । वे पीछे छूट गए थे, मैं बहुत आगे चला आया था । हमारी मुलाक़ातों के दौरों का कोई हिसाब न था । कभी लाइब्रेरी में, कभी किसी नाटक में, कभी छात्रसंघ की बैठक में, कभी नाटक कम्पनी में, एक दो बार तो एक नए नए उभरे फ़िल्मी सितारे के संग एक फ़ाइव स्टार रेस्टराँ में । आपको तो पता ही है कि रक्तिमा की प्रगतिशील सिनेमा में बहुत रुचि थी । कई दफ़ा हम संग संग पितृसत्ता उखाड़ फेंकने की नीयत से की गई नारीवादी गोष्ठियाँ में भी गए । नारीवादी सभा में रक्तिमा की भागीदारी का जलवा देखते ही बनता था । अक्सर वह फर्रीटेदार अंग्रेज़ी में जोशीले तरीके से फ़्रांसीसी क्रांति, ज्याँ पॉल सार्त्र और सिमोन द बेवुआर की बातें उद्धृत करती और मैं ताकता रहता । लाल कुरती और नीली जीन्स में माथे पर बड़ी लाल बिंदी लगाए जब वह मंच पर चढ़ती तो लोग अवाक होकर उसे देखते । उसका सुंदर गोरा चेहरा क्रांतिकारी आवेश से लाल हुआ दमकता, माथे पर कभी पसीने की नन्हीं नन्हीं बूंदें तेज रोशनी में चमकतीं और लोग मंत्रमुग्ध हुए तालियाँ बजाने लगते । मुझमें कभी हीनता और कभी गर्व का भाव जगता । धीरे धीरे मैं भी नारीवादी होता जा रहा था और मुझे लग रहा था कि पितृसत्ता भी बुर्जुवा सामंतवाद के शोषणतंत्र का ही एक अंग है और यदि सर्वहारा का अधिनायकत्व स्थापित करना है तो हमें पितृसत्ता को उखाड़ने पर भी जोर देना होगा । मुझे अपने पिता के बारे में कभी खीज होती तो कभी गुस्सा चढ़ता । मुझे लगता पिता लोग सब सड़ गए मुझे अब विश्वास हो चला था कि हमें पुराने सड़े गले समाज के सारे चिन्ह जला कर राख करने होंगे, परम्पराओं को गहरे कुएं में डुबा देना होगा । इस तरह कि उनकी कोई स्मृति तक न बचे । हमें झाड़ झंखाड़ साफ करने में पूरी ताकत लगानी होगी । मुरव्वत से काम न चलेगा । सारी वर्जनाएं निर्ममता से काट फेंकनी होंगी । फिर जमीन समतल कर उस पर हमें नए सर्वहारावादी समतावादी समाज की चमकती अट्टालिका की बुनियाद रखनी होगी । वैसे ही जैसे हमारे लोग रूस, चीन और क्यूबा में पहले ही करीब करीब रख चुके थे । स्टूडेंट्स फेडरेशन की राजनीति में मेरी लोकप्रियता बढ़ती चली जा रही थी । अब पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो लगता है कि मेरी लोकप्रियता के इस तरह लगातार बढ़ते चले जाने में जाने अनजाने रक्तिमा की भूमिका भी रही होगी । रक्तिमा सुंदर थी, स्मार्ट थी, फ़र्राटे से अंग्रेज़ी बोलती थी, प्रगतिशील लोगों में उसका उठना बैठना था और वह नारीवाद के नए युवा आंदोलन की महत्वपूर्ण अगुआ और करीब करीब बुद्धिजीवी भी मानी जाने लगी थी । जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र समाज में मेरी लोकप्रियता बढ़ती चली जा रही थी, रुकने का नाम न लेती थी । थोड़े दिनों में ही छात्रसंघ के चुनाव होने वाले थे । लोग मेरे और रक्तिमा दोनों के नाम संभावित प्रत्याशियों के तौर पर लेने लग गए थे । मेरा नाम अध्यक्ष के लिए और रक्तिमा का नाम उपाध्यक्ष के लिए । रक्तरंजित सर और रुधिरवर्णा मैडम - दोनों मेरे और रक्तिमा क
े सम्बंधों को लेकर उत्साहित दिखते थे । वे जुबान से कुछ कहते तो नहीं थे पर उनकी आँखें बोलती थीं । एक अनीश्वरवादी वैज्ञानिक सोच वाले प्रगतिशील व्यक्ति के लिए यह कहना उचित तो नहीं पर यदि आप अन्यथा न लें तो मैं कहूँ कि मेरी और रक्तिमा की जोड़ी शायद ऊपरवाले ने सेट की थी । परफेक्ट सेटिंग रही । हमारी ख़ुशियाँ अंतहीन थीं । हमारे पाँव जमीन पर न थे, हमारे केश हवाओं के संग अठखेलियाँ खेलते थे । रक्तिमा के ही नहीं, मेरे चेहरे पर भी एक अद्भुत कांति छा गई थी । इसीलिए मैं कहता हूँ कि संसार में सिर्फ शोषण ही नहीं है, सौंदर्य भी है । पर ऐसा कहते हुए मैं डरता हूँ कि प्रगतिशील समाज में मैं में कहीं बुर्जुआ रूपवादी न ठहरा दिया जाऊँ और मेरे कैरियर का भट्ठा बैठ जाय । मैं वैसे सावधान टाइप का आदमी हूँ, हर जगह ऐसी बातें नहीं कहता । पर आपसे खुल गया हूँ, इसलिए हल्का सा खतरा ले रहा हूँ । वे भारतीय राजनीति में भारी उथल पुथल के दिन थे । जयप्रकाश नारायण का आंदोलन चरम सीमा पर था । रक्तरंजित सर का मानना था कि जयप्रकाश सीआइए के एजेंट थे और साम्राज्यवादी ताक़तों के इशारे पर काम कर रहे थे । वैसे तो इंदिरा गांधी भी बुर्जुवा थीं पर समाजवादी रूस से उनका दोस्ताना था, उनकी कुछ नीतियाँ प्रगतिशील थीं । हमारे जैसे बहुत सारे प्रगतिशीलों का मानना था कि समतावादी प्रगतिशील समाज की स्थापना में इंदिरा गांधी हमारे लिए मददगार सीढ़ी बन सकती थीं । हमारे लिए पूँजीवादी शक्तियों से जूझना सबसे बड़ी प्राथमिकता थी । इसलिए इंदिरा के हाथ मज़बूत करना हमारा समाजवादी दायित्व था । हमने इस दायित्व का लगनपूर्वक पालन किया । कुछ यूँ कि अक्सर तो कांग्रेस के छात्र संगठन में और हमारे स्टूडेंट्स फेडरेशन में कुछ खास फ़र्क़ न दिखता । बल्कि कुछ लोग तो मजाक में कहते कि स्टूडेंट्स फेडरेशन और सीपीआई वाले तो कांग्रेसियों से भी बढ़ कर कांग्रेसी हो गए हैं । भले ही यह बात मजाक में कही जाती रही हो पर पर इसमें कुछ सच्चाई थी । हमारा दोस्ताना जो इतना अटूट हो गया था । हम पवित्र प्रगतिशील प्रेम के बंधन में बंध गए थे । इधर हमारी मुहब्बत कुलाँचे मारती जा रही थी और भविष्य में विवाह की संभावनाएँ हौले हौले दस्तक देने लगी थीं, उधर भारत के राजनीतिक पटल पर भूचाल सा आ गया था । बूढ़े जयप्रकाश ने इंदिरा गांधी की लम्बी नाक में दम कर दिया था । इंदिरा जी को लगा कि कहीं सीआइए वाले जयप्रकाश के माध्यम से देश की जनवादी प्रगतिशील राजनीति की गाड़ी पटरी से न उतार दें और फिर देश प्रतिक्रियावादी पूँजीवादी शक्तियों के चंगुल में न फँस जाय । पर इंदिरा तो इंदिरा थीं । उन्होंने तत्काल सीआइए और उसके षडयंत्र से निपटने की योजना बनाई । रातोंरात आपातकाल लगाया और लाखों प्रतिक्रियावादियों को जेल में ठूंस दिया । देश एक बहुत बड़े षडयंत्र से बच गया । कई नासमझ भोले भाले लोग कहते हैं कि बिना मुक़दमे के लाखों राजनीतिक कार्यकर्ताओं को अनिश्चित काल के लिए कारागार में बंद करना, लिखने पढ़ने पर रोक लगाना ये अलोकतांत्रिक हरकतें हैं । इंदिरा जी का संजय को देश के नए उदीयमान सूरज की तरह आगे करना भी कइयों को नागवार गुज़रा । इस विषय पर मुझमें, रक्तिमा, रक्तरंजित सर और रुधिरवर्णा मैडम में कभी चाय पर और कभी लंच पर अक्सर गर्मागर्म बहस होती थी । हम इस नतीजे पर पहुँचे थे कि इंदिराजी पर अलोकतांत्रिक और वंशवादी होने का आरोप लगाने वालों की राजनीतिक समझ, खास तौर पर जनवादी राजनीति की समझ, कच्ची है । इन्होंने कॉमरेड लेनिन और स्टालिन के जीवन से कुछ नहीं सीखा । यदि कॉमरेड लेनिन ज़ार के बच्चों को देखकर पिघल जाते, भावुकता में बह जाते तो आदर्श समतामूलक समाज की स्थापना कैसे होती ? आदमी की नजर लक्ष्य पर स्थिर होनी चाहिए, खर पतवार पर नहीं । खर पतवार हटेगा तभी तो नया सुंदर समाजवादी महल बन सकेगा । जब जनवाद का बिरवा नाजुक हो और उसे पूँजीवादी और साम्राज्यवादी आँधियाँ घेर लें तो बाग के माली का कर्तव्य क्या है ? पौधे को कँटीले तार के ऊँचे घेरे से घेर कर सुरक्षित करना और अपने बेटे बेटी के हाथों उसकी सुरक्षा की जिम्मेवारी सौंपना । वे डंडा लेकर पहरा देते रहें ताकि आँधियाँ उसे उखाड़ न सकें, बकरियाँ उसे चर न सकें । इंदिरा जी यही तो कर रही थीं। इसमें उनका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ न था । वंशवाद में तो खैर उनकी कोई रुचि थी ही नहीं । संजय का इस्तेमाल वे लोकतंत्र के बिरवे की रक्षा करने के लिए कर रही थीं । सजग माताएँ सदा से यही करती आई हैं । इसी दौरान एक खबर आई जिसने मुझे थोड़ा विचलित कर दिया । मेरा पुराना दोस्त चंदन जेल चला गया था । हालाँकि चंदन संघी था और उसका जेल जाना उचित ही था पर चंदन मेरा मित्र भी था, इसलिए जनवाद के प्रति मेरी सम्पूर्ण प्रतिबद्धता और पूँजीवादी शक्तियों से सम्पूर्ण घृणा के बावजूद दिल
में हल्का सा दर्द उठा । मुझे लगता है मेरे अंदर पुराने सामंतवादी संस्कारों के कुछ अंश शेष रह गए थे जिसके कारण मुझे ऐसा महसूस हुआ होगा । मैंने बहुत विचार किया तो मुझे लगा कि मेरी वैचारिक प्रतिबद्धता में कुछ कमजोरी रह गई थी जिसे मेहनत करके मुझे दुरुस्त करना चाहिए । पर चंदन था तो बचपन का साथी । मैंने उसे लम्बा पत्र लिख कर समझाने की कोशिश की । मैंने लिखा कि पूँजीवाद के दिन जाने को हैं और नूतन जनवादी प्रगतिशील समाज का सूर्य पूर्व दिशा में कभी भी उगने वाला है जिसकी उजास भरी ऊष्मा में हम सब सुख और चैन का समतावादी जीवन जीने वाले हैं । ऐसे में हम सबका उत्तरदायित्व है कि हम आँखें खोलें और इस नए उगते सूर्य का स्वागत करें । यही हमारे और हमारे पुरखों के प्रतिक्रियावादियों पापों का सम्यक प्रायश्चित होगा । मैंने उसे कहा कि वह सुधर जाए, अपने किए के लिए सरकार से माफी माँगे और स्टूडेंट्स फेडरेशन की सहायता ले और मेरी तरह अपने कैरियर को तेज रफ्तार से सरपट दौड़ा दे । इसी में भलाई है और यही उचित मार्ग है । जनवादी आंदोलन में इंदिराजी की भूमिका के महत्व को हमारे कुछ सरल वामपंथी समझ न पाए । वे शुद्धतावादी थे, भारतीय समाज और राजनीति की जटिलताओं की उनकी समझ कच्ची थी । इस बात में तो कोई मतभेद न था कि इंदिरा बुर्जुवा थीं पर उनकी समझ में यह बात न आई कि यही बुर्जुवा ताक़त समाजवादी समाज के निर्माण में आवश्यक औज़ार की तरह इस्तेमाल की जा सकती थी । साधन और साध्य का आवश्यक भेद न समझने के कारण यह कन्फ्यूजन फैला था । इंदिरा हमारे लिए साधन थीं । उनके ज़रिए हम पूँजीवादी ताक़तों को पछाड़ सकते थे और प्रगतिशील ताक़तों को मज़बूत करने का रास्ता खोल सकते थे । इस काम में इंदिरा हमारी मददगार हो सकती थीं । एक बार हमारा लक्ष्य प्राप्त हो जाता तो हम इंदिरा को किनारे कर सच्चे समाजवाद के प्रशस्त पथ पर प्रयाण कर सकते थे । पर वामपंथियों में में कुछ भोले भाले लोग यह बात समझ न सके । हद तो तब हुई जब अपनी मूर्खता में उन्होंने इंदिरा के विरुद्ध साम्राज्यवादी शक्तियों के बने गठबंधन का सहयोग किया । यह आत्मघाती मूर्खता थी । पर इतिहास बताता है कि क्रांति के पथ पर ऐसी मूर्खताएं होती रहती हैं । रूस में भी हुई थीं । सच्चे क्रांतिकारी को ठंढे दिमाग से वैज्ञानिक तरीके से इन ऐतिहासिक प्रवृत्तियों का अध्ययन वैसे ही करना चाहिए जैसे कोई रसायनशास्त्री परख नली में किसी रसायन का अध्ययन करता है । समाजशास्त्र और रसायनशास्त्र में कोई मूल भेद नहीं, दोनों प्राकृतिक नियमों के तहत चलते हैं । एक अच्छा वैज्ञानिक गणित के फ़ार्मूलों की तरह पहले से बता सकता है कि कि इस प्रक्रिया में कौन कौन से चरण कब और कैसे आएंगे । बस आपके पास वैज्ञानिक आंख होनी चाहिए । वैसी जैसी कार्ल मार्क्स के पास थी । उनकी आँखों में संसार के भविष्य का नक़्शा वैसे ही स्पष्ट रहा जैसे आज के जमाने में गूगल मैप में आपके गंतव्य का नक़्शा स्पष्ट रहता है । जैसा कि मैंने पहले कहा विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में मेरा, और रक्तिमा का भी, रुतबा बढ़ता चला गया था । छात्र संघ के चुनावों में अभी देर थी पर कॉमरेडों ने मुझे स्टूडेंट्स फेडरेशन का सचिव बना दिया था । इस बात से रक्तिमा और उसके माता पिता बहुत खुश थे । उन्हें लगता था कि मेरे उन्नत भविष्य की खिड़कियाँ खुलती चली जा रही हैं । मुझे तमाम धरनों और बैठकों में शामिल होने के लिए बुलावा आता जहां मैं जोशीले भाषण देता । इधर मैंने कुछ कविताएँ भी लिखी थीं जिनकी बहुत तारीफ हुई थी । रक्तरंजित सर ने कहा था कि मेरे तेवर जनवादी कवि के हैं और यदि मैं ऐसी ही कविताएँ लिखता रहा और मैंने इस दिशा में मेहनत की तो मैं इस क्षेत्र में काफी आगे जा सकता था । वे मुझे अपने संग प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठी में भी ले गए और प्रतिष्ठित साहित्यकारों से मेरा उदीयमान जनवादी कवि के रूप में परिचय कराया । कई लोगों ने तो यहाँ तक कहा कि जनवादी कविता का भविष्य मेरे जैसे संभावना से भरे कवियों के हाथों में सुरक्षित है । जब मैंने पहली बार यह प्रशंसा सुनी तो मुझ पर नशा सा छा गया । मुझे लगा कि जब मुक्तिबोध मेरी उम्र के रहे होंगे तब शायद उनको भी ऐसी प्रशंसा सुनने को न मिली हो । मेरा सिर अपने भविष्य के बारे में सोच सोच कर नशे में डूबता सा जाता था । मैं कहाँ से कहाँ आ गया था । उन दिनों प्रोफेसर नूरुल हसन देश के शिक्षामंत्री थे । एक महान शिक्षाविद के तौर पर देश में उनकी ख्याति थी । हालांकि कहने को तो वे कांग्रेसी थे पर उनका एक पैर कभी कभी कम्युनिस्ट पार्टी में भी रहता था । वैसे भी कांग्रेस और सीपीआई में बहुत प्यार मुहब्बत, भाईचारे का रिश्ता था । कभी कभी तो यह बताना मुश्किल होता था कि कौन कांग्रेसी है और कौन कम्युनिस्ट या फिर कि कौन कितनी मात्रा में क
म्युनिस्ट है और कितनी मात्रा में कांग्रेसी । उन्हीं दिनों एक दिन अचानक शिक्षा मंत्रालय से मेरे छात्रावास के पते पर वह पत्र आया । मेरी खुशी और आश्चर्य का अंत न था । अपने सुनहरे भविष्य के बारे में मेरा विचार और पुख्ता हुआ । शाम को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में बोलीविया की अंदरूनी राजनीति के बारे में डिनर पर गोष्ठी थी । मैं वहाँ यह पत्र लेकर पहुँचा । रक्तिमा और उसके माता पिता वहां मौजूद थे । मॉस्को में अंतर्राष्ट्रीय प्रगतिशील युवा सम्मेलन हो रहा था । भव्य आयोजन की तैयारी थी । उसी के तहत सोवियत संघ की सरकार ने संसार की तमाम सरकारों से प्रतिनिधिमंडल भेजने का आग्रह किया था । और फिर भारत तो मित्र देश था, प्रगतिशील तो खैर था ही । भारत से बीस युवाओं का प्रतिनिधिमंडल जाना था । उसके लिए अनुदान शिक्षा मंत्रालय के सांस्कृतिक आदान प्रदान बजट के मद से आना तय हुआ था । सांस्कृतिक आदान प्रदान वैश्विक मैत्री के निर्माण की सीढ़ी रही है । जब तक लोग, विशेष कर युवा, एक दूसरे से मिलेंगे नहीं, विचारों का आदान प्रदान नहीं करेंगे, सांस्कृतिक समझ नहीं विकसित करेंगे, विश्व शांति और मैत्री का बिरवा धरती से कैसे फूटेगा ? इसी अभियान के तहत युवाओं के नाम चुने गए थे । जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय तो था ही, वहाँ के कुलपति ने मुझे मेधावी नवजात प्रगतिशील बुद्धिजीवी की संज्ञा देते हुए मेरे नाम की सिफारिश की थी जो मंज़ूर हो गई थी । सच कहूँ तो मैं आश्चर्यचकित था क्योंकि कुलपति से मेरी कभी मुलाक़ात हुई नहीं थी, वे पता नहीं कैसे मुझे जानते थे । रक्तरंजित सर का उनके यहाँ आना जाना था पर उस बात का इससे क्या वास्ता ? मुझे भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया था । हमारी यात्रा में सिर्फ दो हफ्ते बाकी थे । मुझे "दक्षिण एशिया में सर्वहारा संघर्ष की दिशा और आधुनिक हिंदी साहित्य" विषय पर पर्चा पढ़ने के लिए कहा गया था । यदि मैं कहता हूँ कि मेरे पाँव धरती पर न थे तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है । आप एक क्षण के लिए कल्पना करिए कि जिस शख्स ने भभुआ, मुज़फ़्फ़रपुर और दिल्ली के बाहर कभी कदम न रखा हो, जिसने हवाई जहाज की शक्ल न देखी हो, उसे यदि सरकारी ख़र्चे पर मॉस्को यात्रा का निमंत्रण आए तो उसे कैसा लगेगा ? दिल पर हाथ रखकर आप खुद ही बताइए आप मेरी अवस्था में होते तो आपको कैसा लगता ? अब आप यह समझ लीजिए कि मैं होशो हवास में न था । मैं जब इंडिया इंटरनैशनल सेंटर की तरफ बढ़ा तो मुझे रास्ते में चलते हुए लड़के, लड़कियाँ, बसें और ऑटो न दिखे । उस समय मेरी स्थिति ऐसी थी कि मैं सड़क हादसे का शिकार हो सकता था । मेरे बाल हवा में उड़ते थे और मस्तिष्क धरती छोड़ कर किसी और दुनिया में सैर करने चला गया था । बस यह समझिए कि मैं बदहवास था, एक अजीबोगरीब नशे में था । किसी तरह हाँफता हुआ मैं इंडिया इंटरनैशनल सेंटर पहुँचा । मुझे देर हो गई थी । मैं पसीना पोंछते हुए धीरे से बिना आवाज किए पीछे की सीट पर बैठा । मैंने नजर घुमाई तो आगे की पंक्ति में रक्तिमा और उसके माता पिता को बैठे हुए देखा । रक्तिमा ने एक बार पीछे मुड़कर देखा, उसकी आंखों से मेरी आँखें मिलीं । वह हल्के से मुस्कुराई और एक क्षण बाद ही मेरे चेहरे का भाव देख कर हैरान सी दिखी। एयरकंडीशन्ड हॉल में मेरे माथे का पसीना चूता ही जा रहा था, रुकने का नाम न ले रहा था । मैं बार बार रूमाल से पसीना पोंछता गया । फिर मैंने हलक में अंटका थूक घोंटा और हल्की सी संभ्रांत खंखार निकाल कर गला साफ किया । मेरे बगल में बैठे एक अधेड़ सज्जन और उनके संग बैठी महिला ने मुड़ कर अजीब सी नजर से मुझे देखा । मंच पर खड़े एक दुबले पतले सज्जन जो सफेद कुर्ते और नीली जीन्स में थे और जिनकी आँखों के नीचे चश्मा लटक गया था, बोलीविया के बारे में कुछ बोल रहे थे । पर मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था । अंत में मुझसे रहा नहीं गया । मैं उठ कर गुसलखाने चला गया । वैसे मुझे तलब नहीं लगी थी । वहाँ जा कर मैंने ढेर सारी गहरी सांसें लीं, झूठमूठ में पेशाब किया, ठंढे पानी से चेहरा धोया और वहाँ रखे पेपर टॉवेल से पोंछ लिया । तब जा कर मेरी जान में जान आई, मैं स्थिर हुआ और धीमें क़दमों से वापस हॉल में लौट कर अपनी सीट पर बैठ गया । तब तक कुर्ते और जीन्स वाले सज्जन का व्याख्यान समाप्त हो चुका था और गहरे लाल रंग की साड़ी में थुलथुल सी दिखती एक साँवली प्रौढ़ा ने जिनके माथे पर बड़ी लाल बिंदी चमक रही थी, मंच संभाल लिया था । अब आपसे क्या छुपाना कि चे ग्वेवारा का अनुयायी होते हुए भी उस समय मुझे बोलीविया और लैटिन अमेरिका के सर्वहारा संघर्ष की बातें समझ में नहीं आ रही थीं । मैं तो बस गोष्ठी के समाप्त होने की प्रतीक्षा कर रहा था । कब विदुषी महिला का भाषण समाप्त हो और मैं रक्तिमा तक
यह समाचार पहुँचाऊँ । पर दिल में एक हल्की सी कचोट भी थी । काश, रक्तिमा भी मेरे साथ इस यात्रा पर चलती । पर मुझे इस बात का अहसास था कि आदमी जो चाहे वह सब नहीं हो सकता और यह भी कि लालच बुरी बला है और संतोष परम धन है । बहरहाल भाषण समाप्त हुआ और लोग बगल के हॉल में डिनर के लिए बढ़े । काफी लोग थे । मैं उन्हें तीर की तरह चीरता हुआ आगे बढ़ा । मैंने झुक कर सर और मैडम का अभिवादन किया और शिक्षा मंत्रालय से मिला पत्र कांपते हाथों से रक्तिमा के हाथों में दिया । रक्तिमा को समझ में नहीं आया कि मैं किस बात के लिए हड़बड़ाया हूँ, मेरा चेहरा अजीब सा क्यों हुआ है । उसकी शक्ल पर हैरानगी का भाव था । वैसे भी मेरी अजीबोगरीब हरकतों के कारण रक्तिमा मुझे बुद्धू समझती थी और मुझपर हँसती थी । पर उसकी हँसी में दुलार और चोन्हां का भाव रहता था । जब वह वैसे हँसती और अजीब सी नज़रों से मुझे देखती तो मैं शर्मा जाता । वे जहां खड़े थे, वहाँ रोशनी कुछ कम थी । रक्तिमा पत्र ले कर किनारे रोशनी के नीचे चली गई । वह लिफ़ाफ़ा खोल रही थी और मैं उसका चेहरा देख रहा था । अचानक उसके चेहरे पर हर्ष और आश्चर्य का मिला जुला भाव उतरा और वह चहकती हुई वहाँ आ गई जहां हम खड़े थे । उसने मुझे बधाई देते हुए अपना हाथ बढ़ाया जिसे मैंने सकुचाते हुए अपने हाथ से मिलाया । फिर रक्तिमा ने वह पत्र अपने पिता की ओर बढ़ा दिया । रक्तरंजित सर ने पत्र सरसरी नजर से पढ़ा । उनके चेहरे के भाव में कोई परिवर्तन नहीं आया । उन्होंने डिनर की टेबुल की तरफ बढ़ने का इशारा किया जहां भाँति भाँति के व्यंजन और पेय हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे । रक्तरंजित सर ने पत्र पढ़ने के बाद मैडम की ओर बढ़ाया । मैडम पढ़ कर खुश हुईं और उन्होंने मुझे बधाई दी । खाना बड़ा लज़ीज़ था । पुलाव, नान, कोफ़्ता, मुर्ग़ मुसल्लम, फ्रूट क्रीम और दो तीन तरह की वाइनें । भोजन के बाद हम लौट गए । रक्तरंजित सर ने अपनी कार में मुझे छात्रावास तक छोड़ दिया । रात मैं ठीक से सोया । सुबह तक खुमार काफी हद तक उतर चुका था और मेरा दिमाग हल्का लग रहा था । नहा धो कर मैं निकला तो हिन्दी विभाग में उधर दूर से आती रक्तिमा दिख गई । नीली जीन्स और सफेद कमीज में काला धूप का चश्मा लगाए किसी फिल्म की हीरोइन से कम नहीं लग रही थी । मैंने हाथ से इशारा कर बुलाया और हम कैंटीन में बैठ गए । मैंने कॉफी ऑर्डर की । मैंने उसके भी मेरे संग मॉस्को जाने की बात उठाई । रक्तिमा ने कहा कि कितना अच्छा होता यदि ऐसा हो पाता पर मुश्किल यह आ गई कि मेरी रूस यात्रा के हफ्ते भर बाद ही रक्तिमा को नारीवाद पर हो रहे एक युवा सेमिनार में भाग लेने के लिए क्यूबा जाना था । इसलिए दोनों को एडजस्ट करना मुश्किल होता । फिर उसने बताया कि पिछले साल ही एक युवा सम्मेलन में वह मॉस्को और पीटर्सबर्ग हो आई थी । इधर उधर से पता लगा कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से मॉस्को की इस कॉन्फ्रेंस के लिए एक और छात्र का चुनाव हुआ था - मेघनाद तिवारी । रूसी भाषा में कोई साल से एम फ़िल का छात्र था । बिहार का रहने वाला था। मेरी उससे कभी मुलाकात नहीं हुई थी । मैं यात्रा की तैयारियों में लग गया । जल्दी जल्दी तीन सूट सिलवाए । पैसे नहीं थे और इतनी जल्दी घर से आ नहीं सकते थे । दोस्तों से उधार ले कर काम चलाया । पिताजी को तार कर दिया । वे दो सप्ताह कैसे बीते हैं मैं बताऊँ तो किस तरह बताऊँ । दोस्तों की बधाइयों का सिलसिला, पर्चा लिखने की तैयारियाँ, मॉस्को शहर के बारे में जानकारियाँ एकत्र करना, कायदे के कपड़े सिलवाना । सबसे बड़ी दिक्कत गर्म कोट की थी । मैंने मॉस्को की हाड़कंपाऊ बर्फ़ीली सर्दियों के बारे में सुन रखा था । लोग भाँति भाँति की सलाह देते । किसी ने कहा यहाँ मॉस्को की सर्दियों के लायक कोट नहीं मिलेगा, वहीं मॉस्को में ख़रीदना । पर उसके लिए पैसे कहाँ से आते ? मेरे पास उधार लेकर कुछ पैसे हो गए थे, पर रुपए तो मॉस्को में चलते नहीं । और विदेशी मुद्रा के नियम बहुत कड़क थे । रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया को दरख्वास्त दो तो दस डॉलर मिलते थे । अब आप बताइए दस डॉलर में कहां और कैसा कोट मिलता कहते हैं न कि संसार में कोई ऐसी समस्या नहीं जिसका समाधान न हो । बस आँख खोलने की देर है । जैसे अब इसी गरीबी, शोषण और असमानता को देखिए । कितना आसान समाधान निकल आया कि नहीं मार्क्सवाद के रूप में । हुआ यह कि जाने के दो दिन पहले ही शिक्षा मंत्रालय से एक रजिस्टर्ड पत्र आया । संयोग से मैं कमरे में ही था वरना बहुत गड़बड़ हो जाती । पत्र के साथ पांच सौ अमरीकी डॉलर का ड्राफ्ट था जो कि शिक्षा मंत्रालय ने रास्ते के जेब खर्च के लिए अनुदान के तौर पर भेजा था । मेरी खुशी का ठिकाना न रहा । मैं अब मालामाल था । कोट वाली समस्या भी हल हो गई । स्टूडेंट्स फेडरेशन की बैठक में बात उठी तो एक सज्जन
ने जो पहले रूस जा चुके थे और जिनके पास कायदे का गरम कोट था, अपना कोट मुझे उधार देने का ऑफ़र किया । बस, अब तो सब बात बन गई । पर्चा भी जाने के एक दिन पहले लिख कर तैयार हो गया । मेरी अंग्रेज़ी थोड़ी ढीली थी । आपको तो पता ही है मैं पास विदाउट इंगलिश होते होते बचा था । पर रक्तिमा तो कॉन्वेंट में पढ़ी थी, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती थी, मैंने उसे दिखाया । बेचारी ने काट कूट कर ठीक किया और पर्चे की दो कायदे से टाइप की हुई प्रतियाँ मुझे ला कर दीं । मेरा हृदय रक्तिमा के प्रति न सिर्फ प्रेम बल्कि आभार से भर उठा । मैं आँखें मल मल कर समाजवाद और नारीवाद के प्रति उसकी लगन, उसकी प्रतिबद्धता को देखता और अचरज से भर उठता । ऊपर से मेरे लिए उसका प्रेम बढ़ता ही चला जा रहा था, कहीं किसी कमी का कोई चिन्ह कम से कम मुझे तो नहीं दिखा । मुझे अक्सर लगा कि अमर प्रेम शायद इसी को कहते होंगे । फिर वह दिन आया जब हमें मॉस्को के लिए निकलना था । मेघनाद तिवारी से मेरी मुलाक़ात पहले ही हो चुकी थी । मेघनाद मुझसे उम्र में काफी बड़े थे । उनकी हल्की सी तोंद थी । औसत लम्बाई, आबनूस की तरह गहरा सांवला रंग, गोल चेहरा, घुंघराले बाल, चमकती हुई, सामने वाले को घूरती हुई सी आँखें । मेघनाद भी बिहार के रहने वाले थे । पटना विश्वविद्यालय से पढ़ कर आए थे । रूसी भाषा में शोध कर रहे थे । मेघनाद अक्सर चुस्त पतलून और आधी बाँहों की कमीज पहनते जिनके बटन बहुत टाइट थे और अक्सर जब बटन खिंच जाते तो छाती के काले बाल झलकते । मेघनाद को पसीना बहुत निकलता था और उनके पसीने की गंध आम आदमी के पसीने की गंध जैसी न थी, उसकी तासीर दूसरी थी । शिष्टाचारवश लोग उनके पास खड़े तो होते पर बहुत देर तक टिक न पाते, किसी न किसी बहाने दूर खिसक जाते । प्रतिनिधिमंडल में अठारह और लोग थे । उनसे वहीं हवाई अड्डे पर ही मुलाक़ात हुई । इनमें से आठ लड़कियाँ थीं । अधिकांश बंगाल और केरल के थे । हमने एक दूसरे से परिचय कर लिया । मेरे पास सामान काफी था । लोगों ने खाने पीने के बारे में डरा दिया था । इसलिए एहतियातन मैंने अचार, मठरी, लिट्टी और चोखा पैकेट्स में भर कर सूटकेस में रख लिया था । परदेस है - पता नहीं वहाँ क्या खाने को मिले न मिले । थोड़ा बहुत देसी सामान रहेगा तो राहत रहेगी । पर लिहाज और संकोच के मारे मैंने यह बात किसी को बताई नहीं थी । हमें अफ़ग़ान एयरलाइंस से काबुल होते हुए मॉस्को जाना था । उन दिनों अफगानिस्तान सोवियत खेमे में था और वहाँ समाजवादी शासन था । हमारा चेक इन हो गया, सेक्योरिटी वग़ैरह से निकल कर कर हम बीस लोग विमान के गेट बाहर प्रतीक्षा में बैठ गए । थोड़ी देर में ही घोषणा हुई : "अफ़ग़ान एयरलाइंस से काबुल होते हुए मॉस्को जाने वाले यात्री कृपया विमान की ओर प्रस्थान करें" मेरा दिल धड़का, मैंने आखिरी बार दिल्ली के शौचालय का इस्तेमाल किया और हल्की सी घबराहट और उत्तेजना के मिले जुले भाव से विमान की ओर प्रस्थान किया । मुझे बार बार यह बताना अच्छा नहीं लगता कि इसके पहले हवाई जहाज में बैठने की तो दूर, मैंने नज़दीक से कभी हवाई जहाज देखा तक न था । मैं हक्का बक्का था, आँखें फाड़ फाड़ कर देख रहा था । मैं कन्धे पर अपना झोला लिए जहाज के दरवाजे में जैसे ही घुसा, उस अफ़ग़ान परिचारिका ने मुगले आज़म फिल्म में मधुबाला या अनारकली के अंदाज में झुक कर मुझे सलाम किया । मेरी तो जान ही निकल गई । मैंने भी उसी अंदाज में झुक कर उसके सलाम का जवाब दिया । पता नहीं वह विमान परिचारिका थी या फ़िरदौस से उतरी कोई हूर ! मैंने कभी स्वप्न तक न देखा था कि एक दिन ऐसा आएगा जब मैं हूरों से मिलूँगा । और यहाँ एक तो क्या एक दर्जन हूरें थीं । हूरों का मेला सा सजा था । अब आप यह समझ लीजिए कि मेरी साँस रुक गई, दिल की धड़कन बंद हो गई, जान निकल गई, होश गुम हो गया । फिर एक ब एक होश आया तो मैंने खुद को आगे से पाँचवीं पंक्ति में खिड़की के पास वाली सीट पर बैठा हुआ पाया । मेरा झोला शायद परिचारिका ने ऊपर के खाते में रख दिया था । अच्छा हुआ उसने ऐसा किया वरना मेरी पोल ही खुल जाती । उसका हृदय अवश्य कोमल और प्रेमपूर्ण रहा होगा । मुझसे तो वह खाता खुलता नहीं, बेइज्जती अलग से होती । मेरे बगल में ही मेघनाद तिवारी की सीट थी । अचानक मेघनाद सर ने दायीं तरफ मुँह मोड़ा और उनकी बाईं काँख से बदबुओं का रेला मेरी नाक की तरफ आया । मैं हूरों के देस से जमीन पर आ गया था । ऊपर सामने विमान की छत के पास स्क्रीन पर रोशनी में इबारत चमक रही थी : कृपया अपनी सीट बेल्ट बाँध लें । अब मैं चक्कर में पड़ा । मैंने अग़ल बगल आगे पीछे झाँक कर देखने की कोशिश की कि लोग सीट बेल्ट कैसे बाँधते हैं । करते करते मैंने सीट बेल्ट बाँधना सीख लिया । कहते हैं न कि आदमी मेहनत करे तो क्या न सीख ले । अब मैं आराम से बैठ गया । मै
ंने इधर उधर देख कर बहुत कुछ सीखा । जैसे कि सीट की दाईं तरफ का बटन जोर से दबाओ तो सीट पीछे झुक जाती है, दूसरा बटन दबाओ तो रोशनी होती है और हूर आपकी खबर लेने आती है । पर अभी विमान खड़ा था और लोगबाग अपनी अपनी सीटों पर बैठने का काम कर रहे थे । मित्रों, मैं कोई भी बात सच्चाई से बताने में झिझकता हूँ । क्या पता लोगबाग अर्थ का अनर्थ करें, बात का बतंगड़ बनाएं, राई का पहाड़ करें । कोई ठिकाना नहीं है । ठीक है कि मैं गवई गँवार हूँ, पर इतना सीधा भी नहीं हूँ । मैंने भी शहर देखा है । जैसे अब यही बात देखिए, कुछ पाठकों को ग़लतफ़हमी हो है सकती है कि पहले मेरा रूपमती स्त्रियों से पाला नहीं पड़ा होगा । ठीक है मैं भभुआ से मुजफ्फरपुर होता हुआ यहाँ आया हूँ पर अब तो दिल्ली में भी मैंने काफी अरसा बिताया है । आप जिसे लुटियन्स दिल्ली बोलते हैं, उसकी झाँकी भी देखी है । और जहां तक रूपमती स्त्रियों का प्रश्न है, मैंने भी पर्दे पर ही सही डिम्पल, ज़ीनत और परवीन को देखा था । और फिर दूर क्यों जाऊँ, रक्तिमा और रक्तिमा की मम्मी क्या रूपमती नहीं थीं ? पर झूठ कैसे बोलूँ । इन अफ़ग़ान हूरों के आगे भारतीय रूपमतियां फीकी पड़ गईं । गेहुआं रंग, चेहरे पर चमकता फ़िरदौसी नूर । भारतीय स्त्रियों की तरह कुपोषण की शिकार नहीं लगती थीं, हृष्ट पुष्ट सलोनी देह । बड़ी बड़ी स्वप्निल आँखें, रेशम की तरह चमकते बाल । ऊपर से उनके परिधान ! कौन न मोहित हो जाय । हल्के क्रीम रंग के स्कर्ट पर गहरे लाल रंग का ब्लाउज और सिर को क़रीने से ढंकता हुआ चाँदी की तरह चमकता सफेद हिजाब । जब वे बोलतीं तो कानों में शहद घुलने लगता । मैं तो जैसे किसी दूसरे लोक में आ गया । कठिनाई बस यह आ गई कि मेरे पास सौंदर्य के वर्णन का सलीक़ा नहीं है । यह तो बस किसी कवि या सौंदर्यशास्त्री के वश की बात है । वैसे यह सच है कि मैंने भी कुछ कविताएँ लिखी थीं और मैं कवि बनने की ओर बढ़ता जा रहा था, पर मेरी कविताएँ प्रगतिशील थीं, जनवादी थीं । आपको तो पता ही है जनवादी साहित्य में रूपवाद का निषेध है । लब्बोलुबाब यह कि मैं सौंदर्य के सागर में हिलोरें ले रहा था । बस यही मेघनाद तिवारी की दिक्कत बीच में आ गई थी । अब सब यात्री अपनी अपनी सीटों पर कायदे से बैठ गए थे । लाउडस्पीकर पर सुरक्षा के बारे में सूचना दी गई - बारी बारी से पहले पश्तो, फिर हिंदी और अंत में अंग्रेज़ी में । फिर एक परिचारिका ने विमान के बीच में खड़े होकर दुर्घटना की स्थिति में हमें किस दरवाजे से कूदना चाहिए, ऊपर से गिरते ऑक्सीजन मास्क का प्रयोग कैसे करना चाहिए - आदि पर डिमांस्ट्रेशन दिया । मैं पहली बार हवाई जहाज में बैठा था डर गया । फिर हवाई जहाज के सब दरवाजे बंद कर दिए गए, परिचारिकाओं को सीटों आदि को ठीक से जाँचने का निर्देश हुआ और विमान का इंजिन घुड़घुड़ाया । थोड़ी देर तक इंजिन घुड़घुड़ाता रहा । फिर बहुत धीमी गति से, साइकिल से भी धीमी गति से, रनवे पर चलने लगा । धीरे धीरे उसने रफ्तार पकड़ी, पहियों के टार्मैक पर रगड़ने से विमान में थोड़ा हड़हड़ हुआ और मैं अपनी कुर्सी के हत्थों को दोनों हाथों से कस के पकड़ कर बैठा रहा । रफ्तार बढ़ती गई । अब हमारा जहाज करीब करीब रनवे के अंत तक पहुँच ही रहा था कि अचानक जमीन से उठ गया । यह मेरे लिए रोमांचकारी अनुभव था । मेरे मुँह से चीख निकलने ही वाली थी । नहीं निकली वरना कितनी भद्द मचती । विमान धीरे धीरे आसमान में उठने लगा । और मेरा भाग्य तो देखिए, मुझे खिड़की के किनारे वाली सीट मिली थी । सुबह के कोई दस बजे थे । आसमान साफ था, सूरज की गर्म रोशनी हर तरफ भरी थी । विमान की खिड़की से रोशनी मेरे चेहरे पर गिरती और चमकती । मैंने खिड़की से झाँक कर नीचे देखा । मैंने ऐसा नजारा न देखा था । नीचे हमारा दिल्ली शहर सूरज की रोशनी में नहाया चमचम चमकता मुस्कुरा रहा था । मुझे दिल्ली शहर पहले कभी इतना सुंदर न दिखा था । एक भी गंदी नाली का पता न था । सड़कों पर छोटी छोटी बच्चों के खिलौनों जैसी गाड़ियाँ रेंगती थीं । मकानों और सड़कों के बीच में पेड़ थे । इतने पेड़ हमारी दिल्ली में हैं- मुझे न पता था । कैसा सुहावना मंज़र था । धूप और हवा का खेल चलता तो सारा शहर वैसे झिलमिल करता जैसे बचपन में हाथ से बनाए कैलिडोस्कोप में चूड़ियों के टुकड़े झिलमिलाते थे । मैंने दोनों हाथ जोड़कर खिड़की के बाहर दिख रहे अपने शहर को प्रणाम किया । मेघनाद तिवारी ने मुझे गुस्से और अचरज के मिले जुले भावों से भरी आँखों से घूरा । देखते देखते हमारा हवाई जहाज ऊँचे, और ऊंचे आसमानों में उड़ता चला गया । ऐसा अद्भुत दृश्य था कि मेरी नजर खिड़की से हटती न थी । मेरा प्यारा शहर दिल्ली लगातार छोटा होते हुए अंत में आँखों से ओझल हुआ । धुनी रुई के फाहों से सफेद मुलायम बादलों ने अचानक जहाज को छोपा । जहाज कभी उन बाद
लों के ऊपर चला जाता और बादलों पर धूप बरसती, कभी हम बादलों के बीच से गुज़रते और फिर कभी बादलों के नीचे आ जाते । कुछ यूँ कि जैसे गली के छोटे बच्चे आइस पाइस का खेल खेल रहे हों । धूप खिड़की के रास्ते मेरी देह पर कभी तेज झरती और मैं गर्माहट के रोमांच से कांप उठता तो कभी मंद पड़ जाती और मुझे हल्की सी सिहरन होती । मैंने खिड़की से नजर हटा कर सामने देखा तो सीट बेल्ट बाँधने का साइन जा चुका था । पर दुबारा बाँधने में दिक्कत हो और भद्द मचे इस भय से मैं सीट बेल्ट बाँधे रहा । तभी हमारे बगल से गुज़री एक परिचारिका मेरी तरफ देख कर हल्के से मुस्कुराई और मेरा दिल धक से रह गया । अब सोचता हूँ तो लगता है दिल्ली शहर से विदा होते हुए खिड़की से भावपूर्ण नज़रों से छूटते हुए दिल्ली शहर को देखना और हाथ जोड़ कर प्रणाम करना एक मूर्खतापूर्ण हरकत थी जिस पर कायदे से मुझे लज्जित होना चाहिए । कामरेड मेघनाद की आँखों में मेरी इस हरकत के लिए जो हिकारत का भाव था - गलत न था । सर्वहारा समाज के प्रगतिशील क्रांतिकारी कार्यकर्ता से इस तरह के दक़ियानूसी पुरातनपंथी व्यवहार की अपेक्षा नहीं की जाती । प्रगतिशील समाज यथार्थ की नींव पर खड़ा है, उसमें इस तरह की लिजलिजी भावुकता के लिए कोई जगह नहीं । जो लोग ऐसी छोटी बातों पर भावुकता के शिकार होंगे वे बुर्जुआ ताक़तों से क्या ख़ाक लड़ेंगे ? पर आप सुधी पाठक हैं । मुझे पता है आपका व्यवहार मेरे प्रति संवेदना से भरा होगा, मैत्रीपूर्ण होगा । आप मुझे अवश्य सफाई का मौका देंगे । बात यह थी कि मेरे पुरातनपंथी मनुवादी संस्कार कमजोर तो हो गए थे, पर पूरी तरह गए नहीं थे । प्रगतिशीलता के बाड़ में मैं अभी नन्हा चूज़ा था, फुदकना सीख
उसने कहा कि मुझे रोना आ रहा है इसलिए रो रहा हूं। क्या रोने के लिए भी कारण चाहिए? कि मुझे पक्का कारण मिल जाए तब मैं रोऊं? न, मुझे रोना आ रहा है तो मैं रो रहा हूं। और मुझे पीड़ा हो रही है तो मैं पीड़ा झेल रहा हूं। और फिर जिसको प्रेम किया था, उसकी विदा में मैं नहीं रोऊंगा तो कौन रोएगा? और मैं उसकी आत्मा के लिए नहीं रो रहा--आत्मा की आत्मा जाने। वह शरीर भी बहुत प्यारा था और वैसा शरीर अब दुबारा नहीं होगा। और अभी थोड़ी देर में हम इसे जला आएंगे। लेकिन मैंने उनसे प्रेम का आनंद लिया था, अब प्रेम विदा हो गया है, तो अब उसकी काली छाया कौन भोगेगा? तुम? मुझे भोगनी पड़ेगी। लेकिन तुम यह मत सोचना कि मैं दुखी हूं। असल में अगर हम बहुत ख्याल से देखें तो खुद दुख में दुख नहीं है। दुख के अस्वीकार में ही दुख है। स्वयं दुख में क्या दुख हो सकता है। मैं रो रहा हूं, यह उतना ही रिलैक्सिंग हो सकता है जितना हंसना भी न हुआ हो। स्वयं दुख में कोई दुख नहीं है । और दुख का अपना सुख है, सुख का अपना दुख है। लेकिन हम स्वीकार नहीं करते। सुख को हम स्वीकार कर लेते हैं इसलिए दुख नहीं मालूम पड़ता। और दुख को हम अस्वीकार करते हैं इसलिए दुख मालूम पड़ रहा है। वह जो अस्वीकृति है, वह दंश ले आती है। लेकिन अगर जीवन स्वीकृत है... स्वीकार करे लें तो सुख मिल सकता है। लेकिन जब तक हम चुनाव कर रहे हैं; हम कहते हैं, यह हां और यह नहीं, तब तक हम पूरी जिंदगी को जीने के लिए राजी नहीं है। हम कहते हैं, हम जिंदगी में चुनाव करेंगे। इतनी जिंदगी को जीएंगे, इतनी जिंदगी को इंकार करेंगे। इसलिए मेरा कहना है कि टोटल की स्वीकृति नहीं है। और जहां समग्र की स्वीकृति नहीं है, वहां हम कभी समग्र को उपलब्ध भी नहीं हो सकते, और समग्र के साथ भी पूरे नहीं हो सकते। वहां हम खंड-खंड ... और जब समग्र की स्वीकृति बाहर न होगी तो हमारे भीतर भी खंड हो जाएंगे। इसको ध्यान में रखना जरूरी है। अगर मैंने कहा कि मुझे प्रकाश स्वीकार है अंधेरा स्वीकार नहीं है, तो ऐसा नहीं है कि बाहर की पृथ्वी पर जहां प्रकाश होगा वह मुझे स्वीकृत होगी और अंधकार होगा उस... । मेरे घर में भी दो हिस्से हो जाएंगे, तो मेरे घर में भी जो हिस्सा अंधेरे में पड़ जाता होगा वह अस्वीकार हो जाएगा और जो प्रकाश में पड़ता होगा वह स्वीकृत हो जाएगा। मेरे शरीर में भी दो हिस्से हो जाएंगे, जहां अंधकार पड़ता होगा अस्वीकार हो जाएगा। मेरी आत्मा में भी दो हिस्से हो जाएंगे, जहां अंधकार पड़ता होगा अस्वीकृत हो जाएगा जहां प्रकाश पड़ता होगा... तो मैं सारे जगत को आरी से लेकर दो में काट दूंगा। उसमें मैं भी करूंगा, उसमें मैं नहीं बच सकता। क्योंकि सारे जगत का बहुत छोटा सा रूप मैं भी हूं। उसमें मैं भी दो हिस्सों में कट जाऊंगा। वह जो मेरा कटा हुआ हिस्सा है वह तड़फेगा, वह चिल्लाएगा, उसे दबा कर रखना पड़ेगा, उसे मिटा कर रखना पड़े, मिट सकता नहीं, क्योंकि वह मैं ही हूं। उसकी छाती पर बैठे रहना पड़ेगा कि कहीं वह निकल कर बाहर न आ जाए तो मैं एक उपद्रव में पड़ जाऊंगा। जीवन एक उपद्रव बन जाएगा। बन गया है क्योंकि हम उसे पूरा स्वीकार करने को राजी नहीं हैं। हम स्वीकार हमेशा करते हैं। हम झूठ बोलते हैं जब हम कहते हैं कि हम स्वीकार नहीं कर रहे, मतलब... नहीं, नहीं, एक्सेप्ट करना पड़ता है। इसमें ही फर्क हम... हमारे शब्दों में सारी कठिनाई जो है वह यह है, आप जो कहते हैं कि सी ड.ज एक्सेप्ट, तो एक्सेप्टेंस नहीं है। हमें स्वीकार करना पड़ता है। क्योंकि जो है वह है हमारे अस्वीकार से वह मिटता नहीं। लेकिन हमें स्वीकार करना पड़ता है, जब करना पड़ता है तो दंश आ जाता है, तो पीड़ा आ जाती है। पीड़ा जो है वह हमारे स्वीकार करने की चेष्टा में है। जैसे कि आज मां मर गई है, तो कोई कह रहा है कि शरीर कितने वक्त निकलेगा? मां शरीर थी, इसे हमने जिंदगी भर स्वीकार न किया। मां को तो हम बिल्कुल आत्मा ही मान कर चल रहे हैं। उसे शरीर मान कर चलना तो बहुत मुश्किल है। तो जिंदगी भर अस्वीकार किया कि मां शरीर थी। पत्नी शरीर हो सकती है, मां तो शरीर होती नहीं। लेकिन मां शरीर है, मां भी शरीर है। और भी कुछ होगी, शरीर भी है ही। पर उसका शरीर होना हमने कभी स्वीकार नहीं किया था, वह मरने पर ही इन्हें प्रकट होगा। क्योंकि तब कुछ उपाय न रह जाएगा और। हम स्वीकार करते हैं, करना पड़ता है, लेकिन यह मैं नहीं कह रहा हूं कि करना पड़े। मैं यह कह रहा हूं कि ऐसा करना पड़े, मैं यह कह रहा हूं कि मौका ही क्यों आए कि करना पड़े, हम सदा स्वीकार में ही जीएं तो करना पड़ने का कोई सवाल ही नहीं आता, तब ऐसा न होगा कि मां आज मर गई है। न, तब मुझे बहुत दिन पहले से लगना शुरू होता है कि मां मर रही है। और तब मां मर रही है ऐसा मैंने बहुत दिनों से जाना होता और तब मैं इस ढंग से जीया होता
कि मां मर रही है लेकिन मैं बिल्कुल नहीं जीया । अभी एक घंटे पहले तक मां नहीं मरी थी, तक तक मैं मान कर चल रहा था कि मां जिंदा है। और जो जिंदा के साथ व्यवहार करना चाहिए, वह कर रहा था। अब मां मर गई है, तो वह सब व्यवहार मैंने बदल दिया है। हो सकता है घंटे भर पहले धन के लिए उससे लड़ रहा था और घंटे भर पहले पत्नी के लिए उससे लड़ रहा था और घंटे भर पहले उसको घर से निकाल देने के लिए तैयार था, और घंटे भर बाद छाती पीट कर रो रहा हूं। नहीं, लेकिन अगर स्वीकृति पूरी होती तो मैं रोज ही जानता कि मां मर रही है। मैंने, ये, ये दो हिस्से न होते, तब ऐसे कि एक दिन मां जिंदा थी और एक दिन मर गई, ऐसा हिस्सा करना मुश्किल है। ऐसा मैं रोज जानता। और जब मां रोज मर रही हो, तब शायद मां से लड़ना बहुत मुश्किल हो जाए। लड़ने की सुविधा बन गई, क्योंकि मैंने मां कभी मरेगी, अभी जिंदा है। अभी एक मेरे परिचित थे एक मित्र । उनकी कोई पांच-छह साल पहले शादी हुई। प्रोफेसर थे यूनिवर्सिटी में। और लड़की भी प्रोफेसर थी। कोई चार-पांच साल ही साथ थे। तो शादी जब हुई तब भी वे मेरे पास आए थे कि मैं परेशानी में पड़ गया हूं, क्योंकि वे हिंदू और ब्राह्मण और वह पारसी थी लड़की। तो पिता राजी नहीं थे। बहुत पुराना ऑर्थाडाक्स परिवार था। तो मैंने उनसे यह कहा कि तुम यह ठीक से समझ लेना कि तुम लड़की से शादी कर रहे हो, कहीं पिता के विरोध से तो शादी नहीं कर रहो हो, इतना भर सोच लेना। नहीं तो तुम पीछे बहुत मुश्किल में पड़ जाओगे। नहीं, उन्होंने कहा, आप क्या बात करते हैं। पिता के विरोध से क्या लेना-देना है? मुझे तो, उस लड़की के बिना मैं जी नहीं सकता। लड़की के मां-बाप का भी विरोध था। मैंने उस लड़की को भी कहा, वे दोनों ही मुझसे परिचित हैं, उससे भी मैंने कहा कि तू लड़के से शादी कर रही है न, अपने मां-बाप के विरोध से तो नहीं? उसने कहाः आप कैसी बात करते हैं, मां-बाप से विरोध का इससे क्या लेना-देना? और शादी के दो महीने बाद ही बात साफ हो गई। क्योंकि वह शादी के बाद तो विरोध खतम हो गया, कोई मतलब न रहा विरोध का। जैसे ही विरोध समाप्त हुआ वैसे ही उन दोनों को पता चला कि वे तो बहुत दूर हैं, कहीं पास नहीं हैं। वे तो उन दोनों के खिंचाव में, धक्के में, रेस्सिटेंस में, रिबेलियन में वे पास थे। वह सब खतम हो गया, तो वे दूर होने शुरू हो गए। और एक साल भर बाद एकदम फासले पर हो गए। और वह इतना कठिन हो गया जीना कि उस लड़के ने शराब पीना शुरू कर दिया और कुछ भी करना शुरू कर किया, और पांच साल बाद मर ही गया, हार्ट अटेक से मरा, पूरा स्वस्थ आदमी था। जब वह मरा उसके पहले उसकी पत्नी ने उसने मुझसे न मालूम कितनी दफा कहा कि हम तलाक करें कि क्या करें कि क्या न करें? उसकी पत्नी एकदफा मुझसे कह गई कि हम दो में से कोई एक मर जाए तो अच्छा है। फिर वह मर गया। जब वह मर गया तो वह पत्नी इतनी आई रोई, इतना शोरगुल मचाया। मैंने कहाः तू किसलिए रोती है? तू जो चाहती थी वह हो गया। तू रोती किसलिए है, तूझे खुश होना चाहिए। तो एकदम चौंकी... आप क्या कहते हैं? मैंने कहा कि मैं वही कहता हूं कि तूने मुझसे खुद कहा था कि ये मर जाए तो अच्छा है। उसने कहाः वह मैंने क्रोध में कह दिया होगा। मैंने कहाः अभी तू जो रही है, यह दुख में रो रही होगी, कल यह दुख चला जाएगा, फिर ? वह क्रोध में था, वह क्रोध में चला गया। यह कल दुख में चला जाएगा। उसने कहाः यह कभी नहीं जा सकता दुख मेरा। कि हम सदा ही ऐसा सोचते हैं, हम सोचते हैं, प्रेम कभी नहीं जा सकता, वह भी चला जाता है। हम सोचते हैं, दुख नहीं जा सकता, वह भी चला जाता है। हम सोचते हैं, सुख नहीं जा सकता, वह भी चला जाता है। उसने कहाः कभी नहीं जा सकता, अब जिंदगी भर इस दुख में दुखी रहूंगा। तो ठीक है, लेकिन कभी में याद रखना इस बात को । यदि तू कह ले, कहने लगे कि वह मैंने दुख में कह दिया, तब फिर बड़ा मुश्किल है कि तू कभी बोली है कि नहीं, कभी तू क्रोध में बोलती है, कभी तू प्रेम में बोलती है। जब प्रेम में हम बोलते हैं, तो हम कहते हैं, हम जिंदगी भर साथ रहेंगे, सच में हम प्रेम में बोल रहे हैं? दो दिन बाद जब प्रेम नहीं रहेगा, तो हम कहेंगे, वह प्रेम में बोल दिया था, उसमें कोई मतलब न रहा। और हम भी कभी बोले हैं। उसने कहा कि नहीं, यही मैं खुद बोल रही हूं। आप कैसी बातें कर रहे हैं? मेरे पति मर गए हैं और आप इस तरह की बातें कर रहे हैं, मैं इतनी दुखी हूं। तो शाश्वत क्या होगा? शाश्वत कुछ भी नहीं है। परिवर्तन ही शाश्वत है। शाश्वत की आकांक्षा ही हमारा भ्रम है। पता नहीं कि छुटकारा हो। मैं कहता नहीं कि छुटकारा हो, क्योंकि यह छुटकारे की बात भी हमारे किसी दुख के क्षण में हो जाती है। जब हम आनंद के क्षण में होते हैं तब हम जोर से पकड़ लेना चाहते हैं। छुटकारा - वुटकारा बिल्कुल न
हीं चाहते। विषाद के क्षण में छुटकारा बोलने लगते हैं। जब विषाद का क्षण होता है, हम कहते हैं, छुटकारा कैसे हो? असफलता का क्षण होता है, कहते हैं, छुटकारा हो कैसे हो? सफलता के क्षण में, आनंद के क्षण में हम कहते हैं, कैसे सदा बंधे रहे, छुटकारा कभी न हो। नहीं, मैं यह कह रहा हूं कि यह समझना पड़ेगा कि आपकी ये सब आवाजें सब आपकी हैं। ये सब आवाजें इकट्ठी आपकी हैं। ये छुटकारे की आवाज भी आपकी है और ये सदा बंधे रहने की आवाज भी आपकी है। ये सब आवाजें आपकी हैं। ये जिंदा रहने की आवाज भी आपकी है और कल मरने की इच्छा भी हो सकती है, वह भी आपकी है। ये सब विरोधी सब आपकी हैं। और इसमें कोई भी एक आपकी नहीं है, ये सब आपकी हैं। हम क्या करते हैं, जब एक आवाज होती है तब हम उसके साथ आइडेंटिफाइड करते हैं कि यह मैं हूं। जब मैं दुख में होता हूं तो मैं कहता हूं ऐसा मैं जिंदगी भर दुखी रहूंगा, अब मैं कभी सुखी नहीं हो सकता। यह दुख बोल रहा है, यह मैं नहीं बोल रहा हूं। यह मुझ पर छाया हुआ दुख का क्षण बोल रहा है। जब मैं सुख में होता हूं, तब मैं दूसरी बात बोलूंगा । प्रेम में कुछ और बोलूंगा, क्रोध में कुछ और बोलूंगा। ये सब मेरी आवाजें हैं। लेकिन इनमें से कोई आवाज मैं नहीं हूं। हमारी गलती है कि हम हरेक आवाज को जब वह हमारे ऊपर होती है हम कहते हैं मेरी आवाज। उसे हम कहते हैं, यह मेरी आत्मा है इस वक्त, मेरा सेल्फ है। इसमें कोई हमारा सेल्फ नहीं जैसे नदी बह रही है, वह एक वृक्ष के नीचे से गुजरती है, तो उसकी वृक्ष की पराछाई बनती है उसमें, नदी उस वक्त सोच सकती है कि मैं वृक्ष हूं, और वह सोच भी नहीं पाई है कि बह गई और एक चट्टान के पास से गुजर गई, और चट्टान की छाया बन रही और नदी सोचती है कि मैं चट्टान हूं, और वह सोच भी नहीं पाई कि वह बह गई, और अब वह बादलों के नीचे से गुजर रही है और बादलों की छाया बन रही है और नदी सोचती है कि मैं बादल हूं, और एक पक्षियों की कतार निकल गई उसकी छाती पर से और चमक गई और उसने सोचा कि मैं पक्षी हूं। न, इनमें से कोई भी नदी एक नहीं है । तो नदी क्या है? हां, नदी सारे बहाव का जो भी प्रतिफलन है, उस सबका जोड़ है। इस सबका एक अर्थ में वह उस चट्टान से भी एक है जो उसमे झलक गई है, उस वृक्ष से भी जिसने उसमें फूल गिरा दिए और पक्षियों की उस कतार से भी जो उसके ऊपर से पार हुई है। उस सूरज से भी, उस पृथ्वी से भी, उस रेत से भी, और उस आदमी से भी जो उसमें स्नान कर गया और उस बांसुरी बजाने वाले से भी जिसने गीत गाया, वह नदी उन सबसे एक है। और जिस दिन नदी समग्र की एकता को जान पाएगी, उस दिन नदी की फिर कोई आकांक्षा नहीं है कि ऐसा ही हो । क्योंकि तब वह जानती है कि ऐसा ही होने का मतलब मरना होगा। अगर वह ऐसा सोचेगी कि वृक्ष ही मैं हो जाऊं तो फिर चट्टान न हो सकेगी। और फिर पक्षियों की कतार न हो सकेगी। और फिर गिरता हुआ फूल न हो सकेगी, बांसुरी की आवाज न हो सकेगी, फिर रेत और सागर, यह सब कुछ भी न होगा, फिर बादल और सूरज यह कुछ भी न होगा, फिर वह चट्टान ही हो जाएगी, फिर वह नदी न रह जाएगी। जिस दिन नदी ऐसा समझ ले कि वह यह अनंत प्रवाह के बीच आए सभी प्रतिबिंब है वह, सभी प्रतिबिंबों से, तब बहाव सहज हो जाएगा, तब कहीं ठहरने का सवाल नहीं। इसका मतलब यह नहीं है कि तब वह झाड़ की तरफ देखेगी नहीं। न, जब गुजरती होगी तो पूरी तरह देख लेगी और बहुत प्रेम से देख लेगी, क्योंकि हो सकता है दुबारा गुजरना न हो। मतलब यह नहीं है कि वह आंख बंद कर लेगी कि अब झाड़ से क्या मतलब हमें जब हम झाड़ नहीं हैं। जब हम चट्टान नहीं हैं हमें चट्टान से क्या मतलब । वह जो मैं फर्क कर रहा हूं, वैराग्य की भाषा हमें सिखाती है कि जब तुम चट्टान से गुजर ही जाना है, तो चट्टान से क्या मतलब । मोह मत बांधो। यह सब होने पर भी नदी भी है, वृक्ष होने पर, बादल होने पर, पक्षी होने पर वह नदी भी है। यह जो हम कहते हैं कि नदी भी है, इसका मतलब कुछ ऐसा हो जाता है कि अगर इस सबको हम निकाल लें तो भी नदी होगी। नहीं, ऐसी कोई नदी नहीं होगी। हां, मैं नहीं हूं। ( प्रश्न का ध्वनिमुद्रण स्पस्ट नहीं । ) अगर हम सब निकाल लें तो कुछ भी न होगा वहां। वह सबके ही प्रवाह के जोड़ में ही घटी घटना है। वह एक संहार है जैसा बुद्ध कहते हैं कि वह एक संहार है। वह बहुत चीजों का जोड़ है। ऐसी बहुत चीजों का जो हमें पता भी न हो वे भी उसमें जुड़ी हो सकती हैं। उसमें परमात्मा और मोक्ष और निर्वाण और जो हमें पता भी न हो, उनके भी प्रतिबिंब उसमें बन रहे होंगे, वे भी जुड़े हो सकते हैं। लेकिन नदी है... सबसे अलग करके आइसोलेटिड कहीं भी नहीं है। आइसोलेशन में कोई एंटीटी नहीं है। और वह हमारा पक्का भ्रम है। वह भी हमारा शाश्वत का भ्रम है, क्योंकि हम कहते हैं चट्टान तो बीत जाएगी, रेत तो बीत जाएगी। आज तट है कल तट न
हीं होगा, आज वृक्ष हैं कल वृक्ष नहीं होगा। आज एक बांसुरी बजाने वाला है, कल नहीं होगा। मुझे तो होना चाहिए, जब कुछ भी नहीं होगा तब भी मुझे तो होना चाहिए। जब बिल्कुल कुछ नहीं होगा मोक्ष होगा, तब भी मुझे तो होना चाहिए। सब शून्य होगा फिर भी मैं तो रहूंगा। वह भी हमारी... जीवन में हम पराजित हो गए हैं शाश्वत को पाने से, तो हमने जीवन में शाश्वत की तो खोज छोड़ दी, अब अपने में ही शाश्वत को पकड़ लिया। तो मैं तो शाश्वत हूं। न होगा प्रेम शाश्वत, जाने दो; न होंगे फूल शाश्वत, जाने दो, लेकिन मैं, मैं तो शाश्वत हूं। लेकिन शाश्वत की आकांक्षा क्या? शाश्वत का प्रयोजन क्या? शाश्वत होने का मतलब क्या? असल में होना ही, होना मात्र ही परिवर्तन है। होने का अर्थ भी परिवर्तन में है। सच तो यह है कि है, इस जैसी कोई चीज नहीं है होना । होने जैसा है कुछ। पहली दफा बर्मी भाषा में बाइबिल का अनुवाद किया, तो शब्द उनको बड़े कठिनाई के पड़ गए। गॉड इ.ज, यह कैसे अनुवाद करें। ईश्वर है, क्योंकि बुद्ध के प्रभाव में जहां-जहां भाषाएं विकसित हुई हैं वहां... नहीं है। वहां टेबल है ऐसा कहना भी ठीक नहीं, वहां टेबल हो रही है। उस भाषा का जो रूप होगा वह ऐसा ही होगा, क्योंकि टेबल है यह भी ठीक नहीं है। बच्चू भाई हैं यह ठीक नहीं है, बच्चू भाई हो रहे हैं। नदी है बहाव, और है का मतलब है ठहराव । ये कंट्राडिक्ट्री ट्रम्स हैं। नदी है, यह शब्द उपयोग करना ही गलत है। नदी का मतलब ही है कि जो है कभी नहीं, सदा हो रही है। किसी क्षण भी जिसको हम नहीं पकड़ पाएंगे। हां, सदा प्रवाह में है, सदा होने में ही है। और है कि स्थिति में कभी भी नहीं आती। यह जो ख्याल में हमारे आ जाए, तो फिर भीतर भी शाश्वत की आकांक्षा नहीं है, बाहर भी नहीं है । तब ही हम जिसको एक्सेप्टेंस कह रहे हैं, वह फलित होगा, फिर हमें करना नहीं पड़ेगा, फिर कोई उपाय नहीं है। फिर ठीक है फिर नदी जानती है कि चट्टान झलकेगी और फिर नहीं भी झलकेगी। बांसुरी सुनाई पड़ेगी फिर नहीं भी सुनाई पड़ेगी। तट मिलेगा और छूटेगा भी। ये दोनों तो स्वीकृत हैं और यह नदी का होना ही हो गया। इसलिए अब इस होने में उसे कोई विरोध भी नहीं है। तट आता है तो प्रेम है, तट विदा हो जाता है तो दो आंसू भी गिरते होंगे और वह बह जाती होगी। इतनी सरलता से अगर हमें सब दिखाई पड़ने लगे, तो वह जो आप पूछते हैं कि हम कैसे जीएं, वह सवाल गलत है। कैसे जीने में सदा हम जीवन पर अपने को थोपने की आकांक्षा लिए हैं। नदी नहीं पूछती कि कैसे हम बहें? बहती है क्योंकि बहना नदी का होना है। यह नहीं पूछने का सवाल है कि हम कैसे? आदमी पूछता है कि हम कैसे जीएं? यानी वह यह कहता है कि जीवन पर्याप्त नहीं है। हमें उसे ढंग देना होगा, व्यवस्था देनी होगी, मार्ग देना होगा, लक्ष्य देना होगा, उद्देश्य देना होगा, और हम बड़े खुश होते हैं। अगर कोई आदमी हमको ऐसा मिलता है जो लक्ष्य दे सकता है, उद्देश्य दे सकता है, कह सकता है वहां पहुंचो, यह पाओ, यह करो, हम बड़े प्रसन्न होते हैं। हम कहते हैं यह आदमी है इसके पीछे चलने जैसा है। सब गुरु इसी भांति पैदा हुए । उन्होंने कहा कि ऐसे जीयो। उन्होंने बताया कि यह ढंग है जीने का। जिंदगी के ऊपर भी कुछ थोपो और ढांचा बनाओ और वह सब ढांचे हमें दुख में डाल देंगे। इससे निष्क्रियता नहीं आ जाएगी? हां, हमेशा हमें लगता है ऐसा, पर मेरा ख्याल यह है कि इससे सक्रियता सहज होगी सिर्फ, निष्क्रियता नहीं आ जाएगी। क्योंकि निष्क्रियता भी गलत सक्रियता का परिणाम है, रिएक्शन है। यानी एक आदमी बहुत दौड़ा, इतना दौड़ा कि थक कर गिर पड़ा, लेकिन एक आदमी धीरे-धीरे चला, इतना चला कि कभी थका नहीं, कभी गिरा नहीं। और मेरा मानना है कि वह जो बहुत दौड़ा है पीछे पड़ जाएगा, और वह जो बहुत धीमे चला है और कभी नहीं दौड़ा और कभी सक्रिय नहीं मालूम पड़ा, बहुत सीघ्र आगे निकल जाएगा। क्योंकि कभी भी दौड़ इतनी नहीं कि निष्क्रियता में ले जाए, असल में दौड़ की अति निष्क्रियता में ले जाती है। तो जो मैं कह रहा हूं, उससे गति धीमी होगी, निष्क्रिय नहीं। लेकिन सहज सक्रियता होगी, सहज और सरल हो जाएगी। और कोई भाग नहीं रह जाएगी। लेकिन अंततः अगर हिसाब-किताब कभी कोई करने बैठेगा, तो दौड़ने वाले पीछे पड़ जाएंगे और यह जो सहज धीरे चले थे बहुत आगे निकल जाएंगे। मैं एक कहानी कहता रहा हूं । कोरिया में एक वृद्ध भिक्षु एक नदी पार कर रहा है एक नाव से। वह उसके साथ एक युवा भिक्षु है। और नदी के पार पहुंच कर जैसे ही नाव बांधी है मांझी ने, तो उन्होंने उस बूढ़े से पूछा है कि गांव कितना दूर है, क्योंकि हमने सुना है कि सूरज ढ़लते ही गांव का द्वार बंद हो जाएगा और सूरज ढल रहा है। कितनी दूर है? हम पहुंच पाएंगे कि नहीं? उसने नाव बांधते हुए कहा, कि धीरे गए तो पहुंच भी सकते हो। धीरे का मतलब
संतोष तो नहीं? न, बिल्कुल नहीं। मेरा मतलब जल्दी मत निकलाना। संतोष से बिल्कुल नहीं। न, संतोष से बिल्कुल नहीं। उस बूढ़े मांझी ने कहा कि धीरे गए तो पहुंच भी जाओगे! अब ऐसे पागल की बात कौन सुने। उन्होंने सोचा कि पागल, इसकी बात में पड़े तो गए, क्योंकि जब यह कहता है धीरे गए तो पहुंच भी जाओगे! तो भागे, फिर उन्होंने उससे पूछा भी नहीं। सांझ हो रही है, सूरज ढला जा रहा है। वे तेजी से भाग रहे हैं, क्योंकि द्वार बंद हो गया तो जंगल में रह जाना पड़ेगा। पहाड़ी रास्ता है, फिर सूरज एकदम ढलने के करीब हो गया है। तब वे और तेजी से भागे। फिर वह बूढ़ा गिर गया और उसके घुटने टूट गए और लहू बह रहा है, उसकी सब किताबों के पन्ने बिखर गए हैं जो वह सिर पर लिए था। फिर वह मांझी पीछे से गीत गाता हुआ आ रहा है, वह पास खड़े होकर खड़ा हो जाता है। और उसने कहाः मैंने कहा था, क्योंकि मेरा बहुत दिन का अनुभव है। रोज ही सांझ यहां कोई उतरता है और रोजी ही कोई मुझसे पूछता है कि कितनी दूर है, पहुंच जाएंगे न सूरज ढलते? तो मेरा निरंतर का अनुभव यह है कि जो धीरे जाते हैं वे पहुंच भी जाते हैं। रास्ता बहुत बीहड़ है, जो तेजी से जाते हैं अक्सर गिर जाते हैं। लेकिन मेरी बात उस वक्त ठीक नहीं लगती, क्योंकि उन्हें यह लगता है कि धीरे गए तो कैसे पहुंचेंगे? क्योंकि हमारा पहुंचने का ख्याल ही तेज जाने वाले से जुड़ा हुआ है। लेकिन कुछ मुकाम ऐसे भी हैं जहां धीरे जाने से पहुंचते हैं। और कुछ मुकाम ऐसे हैं जहां जाने से कभी पहुंचते ही नहीं, जहां न जाने से ही पहुंच जाते हैं। पर उन मुकामों का हमें कोई पता नहीं। सक्रियता जो है वह आपकी चेष्ठा नहीं है, सक्रियता आपके भीतर शक्ति का सहज प्रकटन है। आपकी चेष्टा नहीं है, आप अपनी चेष्टा से सक्रिय नहीं हैं। और अगर आप बिल्कुल सहज हो जाते हैं तो आपके भीतर की जो शक्ति है वह आपको सक्रिय रखेगी। लेकिन वह सक्रिय होना उतना ही होगा जितनी शक्ति होगी, उससे ज्यादा कभी नहीं होगा। इसलिए रिएक्शन की निष्क्रियता कभी भी नहीं आएगी। इसलिए कभी थकेंगे नहीं। क्योंकि थकने के पहले शक्ति वापस लौट जाएगी। चेष्टा तो उसमें है नहीं, जितना है उतना है, उतना आप करते हैं श्रम, थक जाते हैं, विश्राम पर चले जाते हैं, फिर सुबह उठ आते हैं, फिर काम करते हैं, फिर विश्राम पर चले जाते हैं। और चूंकि कहीं पहुंचना नहीं है इसलिए जल्दी का कोई सवाल नहीं है। जहां हम हैं वहां जितनी देर रहें, फिर जितनी देर जहां होंगे वहां होंगे। जो मैं कह रहा हूं वह यह कह रहा हूं कि जिंदगी की अपनी सक्रियता है, आपको उसे देने की जरूरत नहीं। और आदमी ने जितनी सक्रियता दी, उसमें सिर्फ बीमारी है। सिर्फ बीमारी लाई है, उससे चित्त रुग्ण हुआ है, विक्षिप्त हुआ है, परेशान हुआ है और कुछ भी नहीं हुआ। आदमी के द्वारा लाई गई सक्रियता के दो परिणाम हैंः या तो सक्रियता इतनी बढ़ जाती है कि रुग्ण और विक्षिप्तता हो जाती है, या सक्रियता का अंतिम फल एकदम सब निष्क्रियता में परिवर्तित हो जाता है कि आदमी निढाल होकर पड़ जाता है कि अब कुछ भी नहीं करने को है, कुछ नहीं करना है। ये दो ही फल हो सकते हैं। लेकिन सहज सक्रियता बिल्कुल और बात है। उसका मतलब यह है कि जितना होता है होता है, जितना चलते हैं चलते हैं और थक जाते हैं तो विश्राम करते हैं, फिर चलते हैं फिर विश्राम करते हैं। न कहीं पहुंचने की जल्दी है, न कहीं से भागने की जल्दी है। भोगी को कहीं पहुंचने की जल्दी है, त्यागी को कहीं से भागने की जल्दी है। और इसलिए दोनों बड़ी तेजी में सक्रिय हैं। भोगी कहता है, वहां पहुंचना है-- वह बड़ा मकान बना लेना है, वह बड़ी कार ले लेनी है, वह बड़ा पद ले लेना है। और त्यागी कहता है-- इस मकान से जितनी दूर भाग जाएं भाग जाएं, इस कार से जितनी दूर निकल जाएं, निकल जाना है, कहीं ऐसा न हो कि मन लोलुपता से भर जाए और गाड़ी में बैठ जाएं, तो भाग जाना है। वे दोनों भाग रहे हैं। तो धार्मिक आदमी मैं उसको कहता हूं जो भाग ही नहीं रहा, जो चल रहा है। चल रहा मतलब यह है कि जितना जिंदगी चला रही है चल रहा है, नहीं चला रही नहीं चलता है। विश्राम करा रही है तो विश्राम कर रहा है। अपनी तरफ से कोई सक्रियता थोपने की जरूरत नहीं है । न कोई मेथड, क्योंकि जिंदगी का क्या मेथड हो सकता है, सिर्फ मरने के मेथड हो सकते हैं। अगर कोई आदमी पूछे कि हम मरने के लिए क्या करें, तो मेथड बताए जा सकते हैं कि पहाड़ से कूदो कि जहर खाओ कि छुरी मार लो। मरने के मेथड हो सकते हैं, जिंदा रहने का क्या मेथड हो सकता है। जिंदगी इतनी अनंत है कि मेथड हो ही नहीं सकता। और अगर किसी ने अगर जिंदगी में मेथड का उपयोग किया, तो किसी न किसी अर्थ में मरने की तरकीब हो गई। क्योंकि बहुत सी जिंदगी छूट जाएगी। मेथड तो थोड़ा सा ही पकड़ पाता है। इसलिए मरने का मेथड हो
सकता है कि छुरा मार लिया, लेकिन जीने का कैसे होगा? जीना बहुत बड़ी घटना है, उसका कोई मेथड नहीं हो सकता। अनंत रूपों में, अनंत और असीम है, और रोज नई है, प्रतिपल नई है, उसका पक्का भी नहीं है कुछ कि कल क्या होगा? सुबह क्या होगा? इसलिए जिंदगी जीयी जा सकती है, विधि नहीं पूछनी चाहिए। और सारी विधि छोड़ देंगे तो भी जीएंगे, करेंगे क्या? भागेंगे कहां? जाएंगे कहां? अगर समझ लें सारी विधि छोड़ दूं, सारा लक्ष्य छोड़ दिया, कहीं पहुंचने का ख्याल न रखा, कुछ करने की बात न रखी, तो क्या समझते हैं मर जाएंगे? तो जीएंगे लेकिन तब जीना अत्यंत सरल और सहज हो जाएगा, तब अभी और यहीं हो जाएगा, फिर कोई उपाय नहीं रहेगा कल का और परसों का, अभी और यहीं हो जाएगा, फिर जीएंगे, फिर भी जीना होगा। लेकिन वह जीना तब फिर भीतर से होने लगेगा, जितना हो सकेगा होगा, नहीं हो सकेगा नहीं होगा। बात दौड़ न रह जाएगी एक गाय चली जा रही है रास्ते पर, यह भी एक जाना है, और एक गाय को लगाम बांध कर एक आदमी लिए जा रहा है, यह भी एक जाना है, और एक गाय को पीछे से कोई डंडे मार रहा है, यह भी एक जाना है। लेकिन जब गाय को कोई रस्सी से बांध कर लिए जा रहा है तो यह लक्ष्य से बंधा हुआ आदमी का प्रतीक है। आगे से कोई खींच रहा है, वहां पहुंचना है, दिल्ली पहुंचना है, कहीं और पहुंचना है। वह लगाम से जुती हुई गाय का प्रतीक है। अगर कोई पीछे से कोई धक्का मार रहा है कि यहां से भागना है, यहां नहीं रहना है चाहे और कहीं भी चले जाएं। जिसको हम त्यागी कहते हैं वह पीछे है। डंडे जिसको मारे जा रहे हैं कि यहां नहीं रहना, यह पत्नी, ये बच्चे, यह घर, यह गृहस्थी, यह दुकान, यहां नहीं रहना है, और कहीं। यानी उसे कहीं जाने का उतना सवाल नहीं है जितना यहां से जाने का सवाल है, जितना छोड़ने का सवाल है। लेकिन एक गाय है जो अपनी मौज से चली जा रही है। कभी लौट भी आती है, कभी इस कोने पर चली जाती है, कभी उस कोने पर चली जाती है। कभी नहीं भी जाती है, वृक्ष के नीचे विश्राम भी करती है, कभी आंख बंद करके सो भी जाती है, न कोई खींचने वाला है, न कोई भगाने वाला है। इसे मैं सहज जिंदगी का प्रतीक कहता हूं। और इतनी ही सहज जिंदगी हो, तो ही हम जीवन के पूर्ण अर्थ को, पूर्ण आनंद को जिसमें दुख समाविष्ट है, जिसमें अर्थहीनता समाविष्ट है। जीवन के पूरे सत्य को जिसमें जीवन के सपने समाविष्ट हैं उपलब्ध होते हैं। खंड करके नहीं उपलब्ध होते कि सत्य को उपलब्ध हो जाते हैं और असत्य विदा हो जाता है। नहीं, ऐसा नहीं हो जाता है कि दुख विदा हो जाते हैं और सुख को उपलब्ध हो जाते हैं। नहीं, दुख और सुख दोनों एक ही चीज के पहलू हो जाते हैं। और हम दोनों में जी पाते हैं और दोनों किनारों के बीच से बह पाते हैं। उतना बहाव लक्ष्य नहीं है जिंदगी का, जिंदगी एक बहाव है, बहाव में बहुत लक्ष्य आते हैं, वह बिल्कुल दूसरी बात है, उससे कुछ बहुत पड़ाव आते हैं, वह बिल्कुल दूसरी बात है, लेकिन लक्ष्य नहीं और इसलिए जिंदगी बहुत टेढ़ी-मेढ़ी है, जिग जैग, सीधा सीमेंट रोड़ की तरह नहीं है। क्योंकि सीमेंट रोड़ को कहीं जाना है तो वह सीधा जाता है। तो भी जितना... उतना लंबा इसका फासला हो जाएगा तो सीमेंट रोड़ शार्टकट होता है। लेकिन नदी जिगजैग जाती है, उसी कहीं पहुंचना नहीं है, सागर पहुंच जाती है यह बिल्कुल दूसरी बात है, बिल्कुल दूसरी बात है। उसे कहीं पहुंचना नहीं, बहने का आनंद है, वह बहती है, बहती है, और जहां रास्ता मिलता है वहीं बह जाती है। कभी इस वृक्ष के किनारे से गुजरती है, कभी वापस भी लौट आती है, कभी चक्कर भी लेती है। कोई जल्दी नहीं है कहीं पहुंच जाने की कोई जल्दी नहीं है। जिंदगी है तो नदी की धार की तरह जिग जैग, और हम जो जिंदगी बना रहे हैं वह जिंदगी एक सीमेंट रोड़ की तरह है, रेल की पटरियों की तरह है साफ-सुथरी, सीधी बिल्कुल, पटरियों से नीचे उतरना नहीं और चले जाना है तो कोई... कहीं न कहीं रेल के डिब्बे जैसे पहुंचते हैं वैसे ही पहुंचेंगे। इसलिए लक्ष्य भी नहीं, उद्देश्य भी नहीं, जीना काफी है, पर्याप्त । डिटरमिनिज्म है कि नहीं? असल में वह पूछना ही अर्थहीन है। अर्थहीन इसलिए है कि हमें यह नहीं दिखाई पड़ता न ख्याल में, हमें लगता है कि भाग्य डिटरमिनिज्म दि फ्रीडम की स्वतंत्रता। ये हमने दोनों तोड़े हुए हैं, और ये एक ही चीज के हिस्से हैं। अगर आदमी जिंदगी से अलग है तो ही फ्री हो सकता है, और तो ही डिटरमिंड हो सकता है। और अगर जिंदगी के साथ एक हैं तो फ्रीडम का क्या मतलब है और डिटरमिनिज्म का भी क्या मतलब है? कोई मतलब नहीं है। कि अगर मैं अलग हूं जिंदगी से, तो दोनों बातें संभव हैं-या तो मैं स्वतंत्र हूं और या मैं परतंत्र हूं। स्वतंत्रता और परतंत्रता दोनों में मेरा अलग अस्तित्व स्वीकृत है। लेकिन मैं यह कह रहा हूं कि मेरा कोई अलग अस
्तित्व कहां है, तो स्वतंत्र किससे हो जाऊं और परतंत्र किसका हो जाऊं। मेरा मतलब आप समझे न? यह मेरा हाथ मुझसे स्वतंत्र है या परतंत्र है? यह मेरा हाथ मुझसे स्वतंत्र है कि परतंत्र है? अगर मैं इसे स्वतंत्र कहूं तो यह मुझसे अलग होगा, और परतंत्र कहूं तो भी मुझसे अलग होगा, लेकिन यह हाथ मैं ही हूं। इसकी स्वतंत्रता - परतंत्रता का कोई मतलब नहीं है क्योंकि ये मुझसे अलग नहीं है कि मेरे परतंत्र हो जाए या मुझसे स्वतंत्र हो जाए। मैं इससे अलग नहीं हूं कि इससे स्वतंत्र हो जाऊं कि इससे परतंत्र हो जाऊं, ये हम एक हैं। तो मेरी दृष्टि में दोनों ही गलत हैं। वे जो फ्रीडम वाले लोग हैं, वे कहते हैं, सब स्वतंत्र हैं और जो कहते हैं कि डिटरमिनिज्म है, सब बंधा हुआ है, सब प्रारब्ध है। वे दोनों ही गलत हैं। क्योंकि दोनों ही एक ही बिंदु पर खड़े हैं कि आदमी अलग है कि आत्मा अलग है। उस पर दोनों का भाव खड़ा हुआ है। परंतु दो व्याख्याएं हैं उसकी। लेकिन मैं उस भाव को ही नहीं मानता कि आदमी अलग है। मैं कहता हूं, सब एक है। इसलिए यहां जो सत्य है वह इंटरडिपेंड्स है। सत्य जो है न इनडिपेंड्स और न डिपेंड्स। गहरे से गहरा सत्य जो है वह है इंटरडिपेंड्स, परस्परतंत्रता। न तो स्वतंत्रता, न परतंत्रता, हो ही नहीं सकती दोनों चीजें। ये दोनों चीजें परस्परतंत्रता को दो हिस्से में तोड़ना जैसे जन्म-मृत्यु को तोड़ना है दो हिस्सों में। हम सब परस्परतंत्र में, एक परस्परतंत्रता है... ऐसा कहना चाहिए। एक इंटरडिपेंड्स है सारे अस्तित्व की, जिसमें हम हैं। अब एक लहर उठी है पानी पर, कहना मुश्किल है, कि हवाओं ने लहर को उठा दिया कि चांद ने लहर को उठा दिया, कि किसी बच्चे ने किसी किनारे पर पत्थर फेंका है और लहर उठीं। इससे उलटा भी संभव है कि लहर उठी इसलिए हवा को हिल जाना था। इससे उलटा भी संभव है कि लहर ने बच्चे को पुकारा और उसे पत्थर फेंकना पड़ा। यह सब संभव है, मेरा मतलब समझे न आप। बच्चे ने पत्थर फेंका और लहर उठ गई है ऐसा नहीं है। लहर ने बच्चे को पुकारा और पत्थर फेंकना पड़ा यह भी संभव है। कई दफा लहर आपसे पत्थर फिंकवा लेती है। लहर भी, आप ही पत्थर फेंक कर लहर उठाते हैं ऐसा नहीं, बहुत बार लहर भी आपसे पत्थर फिंकवा लेती है। किनारे पर बैठे हैं और पत्थर फिंकने लगता है। कोई काम नहीं है, कोई आसार नहीं है । सारा जगत इतना अंतरनिर्भर है कि कह सकते हैं कि इस बगिया में जो फूल खिला है अगर वह आज न खिलता तो हम यहां न होते और कठिन नहीं है यह मामला । कोई कठिन इतना अंतरनिर्भर है कि बगिया में जो फूल खिला है, जिसको हमने देखा भी नहीं है, पास हम गए भी नहीं। वह अगर आज यहां न खिलता तो शायद आज हम यहां न होते। क्योंकि उस फूल के खिलने में जगत की सारी स्थितियां उतनी ही समाविष्ट हैं जितने हमारे यहां होने में। और वह जाल इतना बड़ा है अंतरनिर्भरता का जाल, परस्परनिर्भरता का जाल इतना बड़ा है कि
पहला प्रवचन मैं ही इक बौराना जब मैं भूला रे भाई, मेरे सत गुरु जुगत लखाई। किरिया करम अचार मैं छाड़ा, छाड़ा तीरथ नहाना । सगरी दुनिया भई सुनायी, मैं ही इक बौराना।। ना मैं जानूं सेवा बंदगी ना मैं घंट बजाई । ना मैं मूरत धरि सिंहासन ना मैं पुहुप चढ़ाई। ना हरि रीझै जब तप कीन्हे ना काया के जारे। ना हरि रीझै धोति छाड़े ना पांचों के मारे । दाया रखि धरम को पाले जगसूं रहै उदासी। अपना सा जिव सबको जाने ताहि मिले अनिवासी।। सहे कसबद बदा को त्यागे छाड़े गरब गुमाना। सत्य नाम ताहि को मिलि है कहै कबीर दिवाना ।। एक अंधेरी रात की भांति है तुम्हारा जीवन, जहां सूरज की किरण तो आना असंभव है, मिट्टी के दिए की छोटी सी लौ भी नहीं है। इतना ही होता तब भी ठीक था, निरंतर अंधेरे में रहने के कारण तुमने अंधेरे को ही प्रकाश भी समझ लिया है। और जब कोई प्रकाश से दूर हो और अंधेरे को ही प्रकाश समझ ले तो सारी यात्रा अवरुद्ध हो जाती है। इतना भी होश बना रहे कि मैं अंधकार में हूं, तो आदमी खोजता है, तड़फता है प्रकाश के लिए, प्यास लेती है, टटोलता है, गिरता है, उठता है, मार्ग खोजता है, गुरु खोजता है, लेकिन जब कोई अंधकार को ही प्रकाश समझ ले तब सारी यात्रा समाप्त हो जाती है। मृत्यु को ही कोई समझ ले जीवन, तो फिर जीवन का द्वार बंद हो गया। एक बहुत पुरानी यूनानी कथा है। एक सम्राट को ज्योतिषियों ने कहा कि इस वर्ष पैदा होने वाले बच्चों में से कोई एक तेरे जीवन का घाती होगा। ऐसी बहुत कहानियां हैं संसार के सभी देशों में । कृष्ण के साथ भी ऐसी कहानी जोड़ी है और जीसस के साथ भी है कहानी जोड़ी है। लेकिन यूनानी कहानी का कोई मुकाबला नहीं। सम्राट ने जितने बच्चे उस वर्ष पैदा हुए, सभी को कारागृह मग डाल दिया, मारा नहीं। क्योंकि सम्राट को लगा कि कोई एक इनमें से हत्या करेगा और सभी हत्या मैं करूं, यह महा-पातक हो जाएगा। छोटे-छोटे बच्चे बड़ी मजबूत जंजीरों में जीवन भर के लिए कोठरियों में डाल दिए गए। जंजीरों में जीवन भर के लिए कोठरियों में डाल दिए गए। जंजीरों में बंधे-बंधे हुए ही वे बड़े हुए। उन्हें याद भी न रही कि कभी ऐसा भी कोई क्षण था जब जंजीरें उनके हाथ में न रही हों । जंजीरों को उन्होंने जीवन के अंग की तरह ही पाया और जाना । उन्हें याद भी तो नहीं हो सकती थी, कि कभी वे मुक्त थे। गुलामी ही जीवन थी, और इसीलिए उन्हें कभी गुलामी अखरी नहीं। क्योंकि तुलना हो तो तकलीफ होती है। तुलना का कोई उपाय ही न था। गुलाम ही वे पैदा हुए थे, गुलाम ही वे बड़े हुए थे। गुलामी ही उनका सार-सर्वस्थ थी । तुलना न थी स्वतंत्रता की। और दीवारों से बंध थे वे, भयंकर मजबूत जंजीरों से। और उनकी आंखें अंधकार की इतनी आधीन हो गई थी कि वे पीछे लौटकर भी नहीं देख सकते थे, जहां प्रकाश का जगत था। प्रकाश कष्ट देने लगा था। अंधेरे से इतनी राजी हो गए थे, कि अब प्रकाश से राजी नहीं हो पाती थी आंखें। सिर्फ अंधेरे में ही आंख खुलती थीं, प्रकाश में तो बंद हो जाती थीं। तुमने भी देखा होगा, कभी घर के शांत स्थान से भरी दुपहरी में बाहर आ जाओ, आंख तिलमिला जाती है। छोटे बच्चे पैदा होते हैं, नौ महीने अंधकार में रहते हैं मां के पेट में । प्रकाश की एक किरण भी वहां नहीं पहुंचती। और जब बच्चा पैदा होता है, तब नासमझ डाक्टरों का कोई अंत नहीं है। बच्चा पैदा होता है अस्पताल में, वहां से इतना प्रकाश रखते हैं, कि बच्चे की आंखें तिलमिला जाती हैं। और सदा के लिए आंखों को भयंकर चोट पहुंच जाती है। बच्चे को पैदा होना चाहिए मोमबत्ती के प्रकाश में। वहां हजार-हजार कैंडल के बल्ब लगाने की जरूरत नहीं है। दुनिया में जो इतनी कमजोर आंखें हैं, उनमें से पचास प्रतिशत के लिए अस्पताल का डाक्टर जिम्मेवार है। उसको सुविधा होती है ज्यादा प्रकाश में। वह देख पाता है, क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है। क्या करना है, क्या नहीं करना । लेकिन उसकी सुविधा का सवाल नहीं है, सुविधा तो बच्चों की है। जो जीवन भर रहे हैं अंधकार में, नौ महीने नहीं, पूरे जीवन, वे पीछे लौट कर भी नहीं देख सकते थे। वे दीवाल की तरफ ही देखते थे। राह पर चलते लोगों, खिड़की-द्वार के पास से गुजरते लोगों की छायाएं बनती थीं सामने दीवाल पर। वे समझते थे, वे छायाएं सत्य है। यही असली लोग हैं। उस छाया को ही वे जगत समझते थे। छाया के इस जगत को ही हिंदुओं ने माया कहा है। असली तो दिखाई नहीं पड़ता, असली का प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। असली को देखने के लिए आंख चाहिए-समर्थ आंख, जो प्रकाश में खुल सके। जो सूरज के सामने-सामने हो सके। अंधेरे की आदी आंख सत्य को नहीं देख सकती । सत्य ढंका हुआ नहीं है। सत्य तो प्रकट है, उघड़ा हुआ है। तुम्हारी आंख कमजोर है और सत्य को न देख पाएगी। धीरे-धीरे उन्होंने पीछे लौट कर देखना ही बंद कर दिया। पीछे लौट कर देखने का मतलब यह थ
ा, आंख में आंसू आ जाएं। वह पीड़ा का जगत था। तुमने भी सत्य को देखना बंद कर दिया है। और जब भी कोई तुम्हें सत्य दिखा देता है तो पीड़ा होती है। आनंद जन्मता नहीं, कष्ट होता है। जब भी कहीं कोई सत्य कह देता है तो कष्ट ही होता है। लेकिन एक आदमी ने हिम्मत की। क्योंकि उसे शक होने लगा। ये छायाएं छायाएं नहीं हैं। क्योंकि इनसे बोलो तो ये उत्तर नहीं देती। इन्हें छुओ, तो कुछ भी हाथ नहीं आता। इन्हीं पकड़ो तो कुछ पकड़ में नहीं आता। एक आदमी को शक होने लगा। कोई मनीषी, कोई बुद्ध ! उस आदमी ने धीरे-धीरे पीछे देखने का अयास शुरू किया। वर्षों लग गए। बड़ा कष्ट हुआ। जब भी पीछे देखता, आंखें तिलमिला जातीं। आंसू गिरते। लेकिन उसने अयास जारी रखा। वह बड़ी तपश्चर्या थी। फिर धीरेधीरे आंखें राजी होने लगीं। और तब वह चकित हुआ, कि हम किसी कारागुह में पड़े हैं, और हमने छायाओं को सत्य समझ लिया है। वह पीछे देखने में समर्थ हो गया। उसकी गर्दन मुड़ने लगी और उसकी आंखें देखने लगीं बाहर के रंग, वृक्ष और वृक्षों में खिले फूल, राह से गुजरते लोग। रंगीन थी दुनिया काफी । छायाएं बिल्कुल रंगहीन थीं, उदास थीं। बाहर उत्सव था। छायाओं में कोई उत्सव पकड़ में नहीं आता था। बच्चे नाचते गाते निकलते थे। छायाएं तो बिल्कुल चुप थीं। वह वाणी न थी, वहां मुखरता न थी -- बाहर । पीछे छिपा हुआ असली जगत था। उस आदमी ने धीरे-धीरे इसकी चर्चा दूसरे कैदियों से शुरू की। बाकी कैदी हंसने लगे, कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। हम तो सदा से यही सुनते आए हैं कि यही सत्य है, जो सामने है। और हम तो पीछे मुड़ कर देखते हैं तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता, सिवाय अंधकार के। जब आंख बंद हो जाए तो सिवाय अंधकार के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। जरूरी नहीं है कि अंधकार हो । हो सकता है, सिर्फ आंख बंद हो जाती हो। लेकिन दोष कोई अपने ऊपर कभी लेता नहीं। तो कोई यह तो मानता नहीं कि मेरी आंख बंद हो सकती है, इसलिए अंधकार है। लोग मानते हैं, अंधकार है, इसलिए अंधकार है। मेरी आंख और बंद हो सकती है? यह कभी संभव है? हम अपनी आंख तो सदा खुली मानते हैं। अपना हृदय तो सदा प्रेम से भरपूर मानते हैं। अपनी प्रज्ञा तो सदा प्रज्वलित मानते हैं। अपनी आत्मा तो सदा जाग्रत मानते हैं। और वही हमारी भ्रांतियों की जड़ है। फिर कैदियों की संख्या बहुत थी, वह अकेला था। लोकतंत्र कैदियों के पक्ष में था। बहुमत उनका था। और उन्होंने कहा कि अगर ऐसा ही है तो सबकी सलाह ले ली जाए। एक भी मत मिला नहीं उस आदमी को। और लोग हंसे, खूब मजाक की उन्होंने। धीरे-धीरे उस आदमी को पागल मानने लगे। वही कबीर कह रहे हैं, "सगरी दुनिया भई सयानी, मैं ही इक बौराना।" उस आदमी को अगर कबीर का पद याद होता तो उसने भी कहा होता सब लोग सयाने, सिर्फ मैं एक पागल। और सिर्फ वह एक ही सयाना था। लेकिन जहां अंधों की भीड़ हो वहां आंखवाला पागल हो जाता है। जहां मूढ़ों की भीड़ हो वहां बुद्धिमान पागल हो जाता है। जहां बीमारी स्वास्थ्य समझी जाती हो, वहां स्वस्थ आदमी का लोग इलाज कर देंगे पकड़ कर । स्वाभाविक है। क्योंकि लोग अपने को मापदंड समझते हैं। और फिर जब बहुमत उनके साथ हो, बहुमत ही नहीं, सर्वमत उनके साथ हो... उस एक आदमी को छोड़ कर सभी उनके साथ थे। तो संदेह ही कैसे पैदा हो ? लोग हंसे, मजाक की, उसे पागल समझा, उसका तिरस्कार किया, उसकी अपेक्षा की। धीरे-धीरे लोगों ने उससे बातचीत बंद कर दी। क्योंकि वह बेचैनी पैदा करता था। बेचैनी पैदा करता था क्योंकि कभी-कभी संदेह उनके मन में भी उठ आता था कि हो न हो, कहीं यह आदमी सच न हो। क्योंकि अगर यह आदमी सच है तो उनकी पूरी जिंदगी बेकार गई। बड़ा दांव है। यह आदमी गलत होना ही चाहिए। नहीं तो उनकी पूरी जिंदगी गलत होगी। और कोई भी आदमी नहीं चाहता कि उसकी पूरी जिंदगी गलत सिद्ध हो। क्योंकि इसका अर्थ हुआ तुमने यूं ही गंवाया। तुमने अवसर खो दिया। तुम मूढ़ हो, अज्ञानी हो, मूर्च्छित हो। अहंकार यह मानने को तैयार हनीं होता। अहंकार कहता है मुझसे ज्ञानी और कौन? मुझसे समझदार और कौन? ऐसे अहंकार रक्षा करता अज्ञान की। अहंकार रक्षक है, अज्ञान के ऊपर। उसके रहते अज्ञान का किला पराजित न होगा, तोड़ा न जा सकेगा। धीरे-धीरे उन्होंने इसकी उपेक्षा कर दी, क्योंकि उससे बात करनी भी बेचैनी थी। क्योंकि वह हमेशा रंगों की बात करता, रंग उनमें से किसी ने भी देखे न थे। वह हमेशा पीछे चलनेवाले संगीत की बात करता। संगीत उनमें से किसी ने भी सुना था। उनकी सब इंद्रियां पंगु हो गई थीं। और धीरे-धीरे वह आदमी कहने लगा, कि ये जंजीरें हैं जिनको तुम आभूषण समझे हुए हो । आखिर कैदी को भी सांत्वना तो चाहिए। तो वह जंजीर को आभूषण समझ लेता है। आखिर कैदी को भी जीना तो है । तो कारागृह को घर समझ लेता है। न केवल समझ लेता है बल्कि भीतर से सजा भी लेता है, ताकि पूरा
भरोसा आ जाए, अपना घर है। जंजीरों पर कैदियों ने फूल पत्तियां बना ली थीं। जंजीरों को घिस घिस कर वे साफ किया करते थे। क्योंकि जिसकी जंजीर जितन चमकदार होती, वह उतना संपत्तिशाली समझा जाता था। जिसकी जंजीर जितनी मजबूत होती, वह उतना धनी समझ जाता था। जिसकी जंजीर जितनी वजनी होती, उसकी उतनी ही संपदा थी स्वभावतः। अगर जंजीर कमजोर होने लगे तो वे उसे सुधार लेते थे। क्योंकि जंजीर ही उनका जीवन थी। और जंजीर को उन्होंने जंजीर कभी माना न था, वह आभूषण था। वही तो एकमात्र थी उनके शरीर पर। और तो कोई सजावट न थी। धीरे-धीरे इन आदमी को समझ में आने लगा कि ये आभूषण नहीं, जंजीरें हैं। क्योंकि उसे स्वतंत्रता के जगत की थोड़ी झलक मिलनी शुरू हो गई। एक किरण उतर आई अंधेरे में। सूरज का संदेश आ गया। अब इस अंधेरे घर में, इस अंधेरे कारागृह में रहना मुश्किल हो गया। धीरे-धीरे उसने जंजीर को तोड़ने की व्यवस्था कर ली। असली सवाल तो भीतर की जंजीर का टूट जाना है। बाहर की जंजीर बहुत कमजोर है। अगर तुम बंध हो, तो भीतर की जंजीर से बंध हो । भीतर की जंजीर है, जंजीर को आभूषण समझना। एक बार उसे समझ में आ गया कि आभूषण नहीं है, आधी तो मुक्ति हो ही गई। उसी दिन से उसने जंजीरों को घिसना बंद कर दिया, साफ करना बंद कर दिया, सजाना बंद कर दिया। लोग समझने लगे कि जीवन से उदास हो गया है। जैसा कि आम तौर से संन्यासी के लिए संसारी समझते हैं। उदास हो गया बेचारा। उनके भाव में एक बेचारेपन की प्रतीति होती है। जिंदगी में हार गया। शायद पाया कि अंगूर खट्टे हैं। छलांग पूरी न हो सकी। कमजोर था। हम पहले से ही जानते थे कि कमजोर है। आज नहीं कल थक जाएगा और संघर्ष से अलग हो जाएगा। कायर है। जंजीरें, जो कि आभूषण हैं, इनको सजाना बंद कर दिया। ऐसा ही बे सजाया रह रहा है। आसपास की दीवाल को साफ-सुथरा करना भी बंद कर दिया। अब पागलपन बिल्कुल पूरा हो गया है। लेकिन उस आदमी ने धीरे-धीरे जंजीरें तोड़ने के उपाय खोज लिए। भीतर की जंजीरें टूट जाए तो बाहर का कारागृह टूटा ही हुआ है। आधा तो गिर ही गया। बुनियादी तो हिल ही गई। और पीछे के जगत का, छिपे हुए जगत का संदेश आ जाए... तब एक अनंत पुकार उसे पुकारने लगी। एक प्यास उसके रोएं-रोएं में समा गई-असली जगत में प्रवेश करना है। उसने जंजीरें तोड़ी। जब प्यास प्रगाढ़ हो, तो कमजोर से कमजोर आदमी शक्तिशाली हो जाता है। जब प्यास प्रगाढ़ न हो, तो कमजोर से कमजोर जंजीरें भी बड़ी मजबूत मालूम पड़ती हैं। प्यास बढ़ती चली गई। पीछे का जगत ज्यादा साफ होने लगा। आंख जितनी सिर्फ होने लगी, उतना ही सत्य का जगत साफ होने लगा। एक दिन उसने जंजीरें तोड़ दीं और वह उस कारागृह से निकल भागा। उसके आह्लाद का अंत नहीं था। वह नाच रहा था। सूरज, पक्षी, वृक्षों में खिले फूल! बस वास्तविक लोग छायाएं नहीं। संगीत! रंग! सुगंध! वह आह्लादित था। वह नाच रहा था। लेकिन कारागृह में अफवाहें उड़ गई, कि हम जानते थे आज नहीं कल, जीवन के संघर्ष से भाग जाएगा-एस्केपिस्ट, पलायनवादी, भगोड़ा ! संसारी हमेशा संन्यासी को यही कहता रहा है। उसने साधारण संन्यासी को कहा हो, ऐसा नहीं है। महावीर और बुद्ध को भी भगोड़ा ही कहा है। भाग गए! यह अपने को बचाने की तरकीब है। यह अपने का सांत्वना देने की तरकीब है कि हम कायर नहीं। और तुम कायर हो, इसलिए तुम वहां हो, जहां तुम हो। यह अपने को समझाने की तरकीब है। हम कोई पलायनवादी नहीं हैं। हम तो जीवन के संघर्ष में जूझेंगे। और तुम्हें जीवन का अभी पता ही नहीं। और जिससे तुम जूझ रहे हो वह केवल छाया का जगत है। असली जूझने वाले जीवन से जूझते हैं। तुम जिससे जूझ रहे हो, और जिससे लड़ रहे हो, वह सपनों से ज्यादा मूल्यवान नहीं है। और उसका अस्तित्व तुम्हारी नींद में है। उसका अस्तित्व और कहीं भी नहीं है। वह तुम्हारा सपना है। वह तुम्हारा अंधकार है। वह तुम्हारी गहन निद्रा और मूर्च्छा है। लेकिन अगर सब लोग सोए हों और एक जग जाए--भले वे सोए लोग भयंकर दुखद स्वप्न देखते हों। देखते हों, कि नर्क में सड़ाए जा रहे हैं, गलाए जा रहे हैं, तो भी वे सोए हुए लोग कहेंगे, भगोड़ा! भाग गया! जीवन के संघर्ष को छोड़ गया। करवट ले लेंगे, फिर अपने सपने में खो जाएंगे। थोड़े दिन चर्चा रही फिर लोग भूल गए। लेकिन उस आदमी जीवन में एक नई बेचैनी का प्रारंभ हुआ। जितना उसने बाहर की मुक्ति व आनंद को जाना, जितना उसने सत्य को अनुभव किया, उतनी ही नई महाकरुणा, एक दुर्दम्य करुणा पैदा होने लगी, लौट जाए कारागृह में और खबर दे दे उन सब लोगों को थोड़े दिन तो ऐसे उसने समझाया अपने को, कि वे सुनेंगे नहीं। और बहुमत उनका है। वे फिर हंसेंगे, वे भरोसा नहीं करेंगे। क्योंकि अंधकार में रहते-रहते लोग श्रद्धा भूल ही जाते हैं। श्रद्धा तो प्रकाशवान चित्त का लक्षण है। अंधेरे में रहने वाले लोग संदेह में निष्ण
ात हो जाते हैं। संदेह अंधकार का हिस्सा है; श्रद्धा प्रकाश का । इसलिए तो समस्त ज्ञानियों ने श्रद्धा को सेतु माना है, कि अगर अंधकार से प्रकाश की ओर आना हो, तो श्रद्धा के सेतु से गुजरना पड़ेगा। एक भरोसा चाहिए। भरोसे का मतलब इतना ही है, कि जो मैंने नहीं जाना है वह भी हो सकता है। अगर तुम यह सोचते हो कि तुमने जो जाना है बस उतना ही है, तब तो यात्रा का कोई सवाल ही नहीं है। बा समाप्त हो गई। बुद्ध आकर सिर पीटें और कहें कि मैंने थोड़ा सा ज्यादा जाना है तुमसे, तो भी तुम मानोगे नहीं। संदेह का इतना ही अर्थ है, कि मुझ पर सत्य समाप्त हो गया। मैंने जो जान लिया, वही सत्य की भी सीमा है। मेरा अनुभव और सत्य समान है। यह संदेह है। श्रद्धा का अर्थ है, मेरा अनुभव छोटा है, सत्य बहुत बड़ा हो सकता है। मेरा छोटा आंगन है। आंगन पूरा आकाश नहीं। बड़ा आकाश है। मेरी छोटी खिड़की है। लेकिन खिड़की की ढांचा आकाश का ढांचा नहीं। माना कि मैं खिड़की से ही झांक कर देखता हूं, तो भी खिड़की आकाश नहीं है। इतना जिसे ख्याल आ जाए, जिसे संदेह पर संदेह आ जाए, वह श्रद्धावान हो जाता है। वह बड़े से बड़ा संदेह है, ध्यान रखना । जिसे संदेह पर संदेह आ जाए, जो अपने संदेह की प्रवृत्ति के प्रति संदिग्ध हो जाए, उसके जीवन में श्रद्धा का आविर्भाव हो जाता है। श्रद्धा का अर्थ है, जानने को बहुत कुछ शेष है। मैंने कंकड़-पत्थर बीन लिए हैं समुद्र के तट पर, लेकिन इससे समुद्र का तट समाप्त नहीं हो गया। मैंने मुट्ठी भर रेत इकट्ठी कर ली है, लेकिन सागर के किनारों पर अनंत रेत शेष है। मेरी मुट्ठी की सीमा है, सागर की सीमा नहीं है। मेरी बुद्धि की सीमा है, सत्य की सीमा नहीं। मैं कितना ही पाता चला जाऊं तो भी पाने को सदा शेष रह जाएगा। यही तो अर्थ है परमात्मा को अनंत कहने का । तुम कितना ही पाओ, वह फिर भी पाने को शेष रहेगा। तुम पा-पा कर थक जाओगे, वह नहीं चूकेगा । तुम्हारा पात्र भर जाएगा, ऊपर से बहने लगेगा, लेकिन उसके मेघों से वर्षा जारी रहेगी। हम कण मात्र है। जब कण का ख्याल हो जाता है कि मैं सब, वहीं श्रद्धा समाप्त हो जाती है। श्रद्धा अज्ञात की तरफ पैर उठाने के साहस का नाम है। अनजान में प्रवेश, अज्ञात में प्रवेश; जहां मैं कभी नहीं गया, जो मैं कभी नहीं हुआ, वह भी हो सकता है। उस आदमी के मन में बहुत बार करुणा उठने लगी, आनंद का अनिवार्य लक्षण है करुणा। जब बुद्ध से किसी ने पूछा कि समाधि की पूर्ण परिभाषा क्या है। तो उन्होंने कहा, कि परिभाषा तो मुझे पता नहीं। लेकिन दो बातें निश्चित हैं--महाज्ञान, महाकरुणा। पूछने वाले ने कहा, महाराज कह देने से क्या काफी न होगा? बुद्ध ने कहा, नहीं। वह अधूरा होगा। वह सिक्के का एक पहलू है। दूसरा पहलू है, महाकरुणा । जब भी ज्ञान का जन्म होता है, तभी करुणा का जन्म हो जाता है। क्यों? क्योंकि अब तक जो जीवन-ऊर्जा वासना बन रही थी वह कहां जाएगी? ऊर्जा नष्ट नहीं होती। अभी धन के पीछे दौड़ती थी, पद के पीछे दौड़ती थी, महत्वाकांक्षा थीं अनेक। अनेक-अनेक तरह के भोगों की कामना थी, सारी ऊर्जा वहां संलग्न थी । प्रकाश के जलते, ज्ञान के उदय होते वह सार अंधकार, वह भोग, लिप्सा, महत्वाकांक्षा ऐसे ही विलीन हो जाते हैं, जैसे दीए के जलते अंधकार । ऊर्जा का क्या होगा? जो ऊर्जा काम-वासना बनी थी, जो ऊर्जा क्रोध बनती थी, जो ऊर्जा ईर्ष्या बनती थी, मत्सर बनती थी, उस ऊर्जा का, उस शुद्ध शक्ति का क्या होगा? वह सारी शक्ति करुणा बन जाती है। महाकरुणा का जन्म होता है। और वह करुणा तुम्हारी काम-वासना से ज्यादा अदम्य होती है। क्योंकि तुम्हारी काम-वासना और बहुत सी वासनाओं के साथ है। महत्वाकांक्षा है, धन भी पाना है। तुम काम-वासना को स्थगित भी कर देते हो कि ठहर जाओ दस वर्ष; धन कमा लें ठीक से, फिर शादी करेंगे। धन की वासना अकेली नहीं है। पद की वासना भी है। तुम पद पाने के लिए धन का भी त्याग कर देते हो। चुनाव में लगा देते हो सब धन, कि किसी तरह मंत्री हो जाओ। लेकिन मंत्री की कामना भी पूरी कामना नहीं है। मंत्री होकर फिर तुम स्त्रियों के पीछे भागने लगते हो। मंत्री-पद भी दांव पर लग जाता है। तुम्हारी सभी कामनाएं अधूरी-अधूरी हैं। हजार कामनाएं हैं और अभी में ऊर्जा बंटी है। लेकिन जब सभी कामनाएं शून्य हो जाती हैं, सारी ऊर्जा मुक्त होती है। तुम एक अदम्य ऊर्जा के स्रोत हो जाते हो। एक प्रगाढ़ शक्ति! उस शक्ति का क्या होगा? जब भी आनंद का जन्म होता है, समाधि का जन्म होता है, सत्य का आकाश मिलता है, तब तुम तत्क्षण पाते हो कि वे जो पीछे रह गए, उन्हें अभी इसी खुले आकाश में ले आना है। तब तुम्हारा सारा जीवन जो बंध हैं उन्हें मुक्त करने में लग जाता है। जो कारागृह में हैं, उन्हें खुला आकाश देने में लग जाता है। जिनके पंख जंग खा गए हैं, उनके पंखों को सुधारने में ल
ग जाता है कि वे फिर से उड़ सकें। जिनके पैर जाम हो गए हैं, उनके पैरों को फिर जीवन देने में लग जाता है। ताकि लंगड़े चलें और अंधे देखें और बहरे सुन सकें। और तुम लंगड़े हो। तुम चले नहीं। यात्रा तुमने बहुत की है लेकिन जब तक तीर्थयात्रा न हो, तब तक कोई यात्रा यात्रा हनीं है। तुम बहरे हो। तुमने सुना बहुत है, लेकिन वासना के सिवाय कोई स्वर तुमने नहीं सुना। और वासना भी कोई संगीत है! वासना तो एक शोरगुल है जिसमें संगीत बिल्कुल ही नहीं है। वासना तो एक विसंगीत है, जिससे तुम तनते हो, चिंतित होते हो, बेचैन-परेशान होते हो । संगीत तो वह है जो तुम्हें भर दे उस अनंत आनंद में से, जहां सब बेचैनी खो जाती है, जहां चैन की बांसुरी बजती है। और ऐसी बांसुरी, कि उसका फिर कभी अंत नहीं आता। तुम अंधे हो। तुमने बहुत कुछ देखा है लेकिन जो देखा है वह सब ऊपर की रूपरेखा है। भीतर का सत्य तुम नहीं देख पाते। शरीर दिखता है, आत्मा नहीं दिखती। पदार्थ दिखता है, परमात्मा नहीं दिखता। दृश्य दिखाई पड़ता है, अदृश्य नहीं दिखाई पड़ता। और अदृश्य ही आधार है दृश्य का। परमात्मा ही आधार है पदार्थ का। और आत्मा के बिना क्षणभर भी तो शरीर जीता नहीं। इधर उड़ गया पंछी, उधर शरीर जलाने को लोग ले चलें। फिर भी तुमने सिर्फ शरीर देखा है और आत्मा नहीं देखी। अंधे हो तुम, पंगु हो तुम। जिसके जीवन में समाधि खिलती है वह भागता है उनको जगाने, जो सोए हैं। लेकिन उसे भी कठिनाई खड़ी होती है। कुछ दिन तो उसने आपको रोका। क्योंकि वह जानता है कि वे लोग हंसेंगे। क्योंकि वह जानता है कि वे सुनेंगे नहीं। क्योंकि वह जानता है, कि जो सदा से हुआ है, वही फिर होगा। पत्थर और कांटों से स्वागत होगा, फूलमालाएं मिलने को नहीं। लेकिन अदम्य है करुणा। उसे रोका नहीं जा सकता। कथा है, कि बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो सात दिन तक वे चुप बैठे रहे। बड़ी मीठी कथा है। क्या करते रहे चुप बैठ कर? बहुत बार अदम्य वेग से उठी करुणा, कि जाए। बहुत लोग भटकते हैं। सारे लोग भटकते हैं। जो मुझे मिल गया है वह बांट दूं। लेकिन कोई चीज रोकती रही... कोई चीज रोकती रही। बुद्ध जैसा व्यक्ति भी हिम्मत न जुटा सका । तुम्हारे सामने बुद्ध भी हारे हुए हैं। बुद्ध को भी डर लगा। जिसको अब कोई डर नहीं बचा है, जिसको मृत्यु का भय नहीं। वह भी तुमसे डरता है। जो यम से नहीं डरता, वह तुमसे डरता है। सात दिन तक बुद्ध ने प्रतिरोध किया अपना ही। सब तरह से रोका, कि नहीं। अपने को समझाया, कि जो जागनेवाले हैं वे मेरे बिना भी जाग जाएंगे। और जो नहीं जागने वाले हैं, मैं लाख सिर पटकूं, वे सुनेंगे नहीं। फिर क्यों व्यर्थ मेहनत करूं ? कथा है, कि आकाश के देवता चिंतत हो गए। बड़ी बेचैनी फैल गई आकाश के देवताओं में! बेचैनी यह, कि कभी करोड़-करोड़ वर्षों में कभी कोई एक व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध होता है। और वह भी अगर चुप रह गया, तो जो भटकते हैं मार्ग पर उनका क्या होगा? जतो अंधेरे में प्रतीक्षा करते हैं, अनजानी प्रतीक्षा, उन्हें पता भी नहीं है। किसी का, जो मार्ग बताएगा। बताने वाले का पत्थर से ही वे स्वागत करेंगे। लेकिन फिर अनंत-अनंत काल से खोजते तो हैं ही। भीतर कहीं कोई गहरे में छिपा हुआ बीज तो पड़ा ही है। न फूट जाता हो, ठीक भूमि न मिली हो, सूरज का प्रकाश न मिला हो, कोई पानी देनेवाला न मिला हो, कोई साज-सम्हाल करने वाला न मिला हो। लेकिन बीज तो पड़ा ही है; उनका क्या होगा? कथा है कि आकाश के देवता उतरे। बुद्ध के चरणों में उन्होंने सिर रखा और कहा, कि नहीं अब चुप न बैठें, उठें। बहुत देर अब वैसे ही हो गई। देवता का अर्थ है, ऐसी चेतनाएं जो अत्यंत शुभ परिणाम हैं। ऐसी चेतनाएं जिनके जीवन से अशुभ खो गया है, सिर्फ शुभ बचा है। अभी वे पूर्ण मुक्त नहीं हैं। क्योंकि जब शुभ भी खो जाएगा तभी पूर्ण मुक्ति होगी। देवता का अर्थ है शुद्धतम चेतनाएं, मुक्ततम नहीं। पहले अशुद्धि से दबी हुई चेतनाएं हैं, जिनको हम राक्षस कहें, असुर कहें। नारकीय योनि में पड़े हुए लोग कहें। और फिर शुद्ध चेतनाएं हैं जो स्वर्ग में हैं, शांत हैं, शुभ-परिणाम हैं। किसी का बुरा नहीं चाहतीं, भला चाहती हैं; लेकिन चाह बाकी है। नरक में जो पड़े हैं उनके हाथ में जो जंजीरें हैं वह लोहे की हैं। स्वर्ग में जो पड़े हैं उनके हाथ में जो जंजीरें हैं वह सोने की हैं। हीरे माणिक से जड़ी हैं, पर जंजीरें हैं। मुक्त वह है जिसमें न शुभ रहा, न अशुभ रहा। जिसकी लोहे की जंजीरें सोने की जंजीरें सब टूट गई। मुक्त वह है, जिसका द्वंद्व समाप्त हो गया। जिसे भीतर दो न रहे। शुभ-अशुभ, अच्छा-बुरा, रात-दिन, स्वर्ग-नरक, सुख-दुख सब खो गए। देवता का अर्थ है, शुद्ध, सुखी चेतनाएं। निश्चित ही स्वभावतः उनके ही हृदय में कंपन पैदा होगा क्योंकि वे निकटतम हैं मुक्त पुरुषों के। नर्क में पड़े लोगों को पता भी न चल
ा, कि कोई बुद्ध हो गया है। पृथ्वी पर जो लोग हैं वे दोनों के बीच में हैं। न तो नर्क में हैं और न स्वर्ग में। वे त्रिशंकु की भांति हैं। शुभअशुभ दोनों में डोलते रहते हैं। सुबह देवता, घंटे भर बाद शैतान । घंटे भर बाद फिर देखो मुस्कुरा रहे हैं, अच्छे भले आदमी मालूम पड़ते हैं। और थोड़ी देर बाद किसी की गर्दन काट सकते हैं। पृथ्वी पर जो हैं, मध्य लोक जिसको ज्ञानियों ने कहा है, वे स्वर्ग और नर्क के बीच डोलते रहते हैं। एक पैर नर्क में और एक पैर स्वर्ग में कहीं भी नहीं हैं वे। उनका होना नहीं है। इसलिए तो तुम्हें पता नहीं चलता कि तुम कौन हो? नर्क में ठीक पता चलता है लोगों को, कि कौन हैं। स्वर्ग में भी ठीक पता चलता है। कि कौन हैं। क्योंकि एक ही नाव पर सवार हैं। जो शुभ की नाव पर सवार हैं उनको लगा, उनके प्राण कंप गए, कि बुद्ध चुप हैं। कहीं ऐसा न हो कि वे चुप ही रह जाएं। देवताओं ने पैर में सिर रखा। स्वयं ब्रह्मा ने कहा कि नहीं, आप बोलें । और देर हो जाएगी तो वाणी खो जाएगी। आप भीतर मत डूबते चले जाएं। आपने पा लिया लेकिन जिन्होंने नहीं पाया है, उन पर करुणा करें। कहते हैं, बुद्ध ने कहा, कि जो पाने को हैं, जो पाने की चेष्टा में रत हैं वे पा ही लेंगे। मैंने पा लिया, वे भी पा लेंगे। वे भी मेरे जैसे हैं। थोड़ी देर-अबेर होगी पर इस अनंत काल में क्या देर क्या अबेर ! घड़ी भर पहले, कि घड़ी भर बाद। एक जन्म पहले, कि एक जन्म बाद। क्या फर्क पड़ता है? मुझे क्यों परेशानी में डालते हो? और जो नहीं पाने को हैं-- मेरे पहले बहुत बुद्ध पुरुष हो चुके हैं, उन सब ने उनके द्वार पर दस्तक दी है। उन्होंने द्वार भी खोला। नहीं कि उन्होंने द्वार नहीं खोला, वे नाराज भी हो गए, कि क्यों हमारी नींद तोड़ते हो? क्यों हमारी शांति में दखल देते हो? हम जैसे, ठीक हैं। क्यों हमें बेचैन करते हो? ये किस लोक की खबरें लोटे हो। यही लोक सब कुछ है। कोई और लोक नहीं है। उन्होंने श्रद्धा नहीं की। वे नहीं सुनेंगे। हजारों बुद्ध हार चुके हैं। मैं भी हार जाऊंगा। तुम मुझे क्यों परेशान करते हो? देवताओं ने चिंतन किया, विचार किया कि कुछ तर्क निकालना ही पड़ेगा, कि बुद्ध को उनके बाहर ले आया। जाए। फिर वे सब विचार करके आए और उन्होंने कहा कि आप ठीक कहते हैं। कुछ हैं, जो आपके बिना भी पा लेंगे और कुछ हैं, जो आपके सहयोग से भी नहीं पाएंगे। लेकिन दोनों में मध्यम में भी कुछ हैं, जो आपके बिना न पा सकेंगे और आपके साथ पा लेंगे। उनकी संख्या बहुत न्यून होगी। समझ लो, कि एक ही आदमी पा सकेगा, तो भी... तो भी उपाय करने योग्य है। क्योंकि एक व्यक्ति का भी बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाना इतनी महान घटना है कि आप बैठे मत रहे। बुद्ध के झुकना पड़ा। देवताओं के तर्क से नहीं; देवताओं के तर्क ने तो जो प्रतिरोध था, उसको भर तोड़ा। भीतर तो करुणा बहने को तैयार थी। उस आदमी को भी तकलीफ हुई। बेचैनी होने लगी। कारागृह में जिनको छोड़ आया था उनकी याद आने लगी। वे ऐसे ही बंधे-बंधे समाप्त हो जाएंगे? उनका जीवन ऐसे ही अंधकार में पैदा हुआ, अंधकार में ही खो जाएगा? कभी उनकी आंखें प्रकाश न देख सकेंगी? वे छायाएं ही देखते रहेंगे दीवाल पर? वे जंजीरों को ही आभूषण मानते रहेंगे? उन्हें मुक्ति के पंख कभी भी न मिलेंगे?
माता पिता ने उनका नाम रामचंद्र रखा था। किंतु मेट्रिक की परीक्षा देने से ठीक पहले, वे एक शपथपत्र देकर वैधानिक रूप से रामचंद्र से बदलकर 'लामचंद' हो गए। ये उस समय की बात है जब टेन प्लस टू का जमाना नहीं था। वो एट प्लस थ्री का दौर था। यानि आपको अपनी उम्र से लेकर नाम तक जो भी छेड़छाड़ करनी है आप ग्यारहवीं तक ही कर सकते थे। उसके बाद किए जाने वाला परिवर्तन बेहद पेंचीदा था, तब आपको तमाम सरकारी कर्मकांड से गुजरना पड़ता था। इस सरकारी कर्मकांड की पेंचीदगी उस धार्मिक कर्मकांड से भी अधिक भीषण थी जिसमें जबरदस्ती किसी पापात्मा को पुण्यात्मा बना कर स्वर्ग में सीट दिलाई जाती थी। उनके रामचंद्र से लामचंद होने के पीछे किसी न्यूमरोलोजिस्ट का हाथ नहीं था और ना ही यह क्रांतिकारी परिवर्तन माता-पिता के प्रति विद्रोह के चलते हुआ था। चूँकि वे बचपन से ही प्रखर बुद्घि के स्वामी थे इसलिए भविष्य में आने वाले संकटों को किशोरावस्था में ही ताड़ गए। वे मेट्रिक तक आते-आते जान गए थे कि 'र' शब्द जो भगवान शिव के लिए अमृत था, उनके लिए कालकूट विष साबित होगा। भगवान राम में अगाध श्रद्घा होने के बाद भी उनकी जीभ 'र' को 'ल' बोलती थी। बचपन में उनके द्वारा अपने नाम रामचंद्र की जगह लामचंद बोलना बड़ों के लिए आनंद का कारण था, वे उसे छोटे बच्चे का मासूम प्रयास समझ कर बहुत प्यार से उनकी पप्पियाँ लेते, किंतु पांचवी तक आते-आते पप्पी डाँट में बदलने लगी, आठवीं तक चिंता का विषय हो गई और आठवीं के बाद पप्पी ने प्रतारणा का रूप धारण कर लिया और इसी प्रतारणा ने रामचंद्र की सोई हुई प्रतिभा को झंझोड़ कर जगा दिया, वे समझ गए कि वे कभी भी 'र' को 'र' नहीं कह पाएँगे, सो बेहतर है कि अपने नाम को रामचंद्र से लामचंद कर दिया जाए। चूँकि लामचंद स्कूल के समय से ही राजनीति के प्रति आकर्षित थे, इसलिए स्कूल में होने वाले चुनाव में वे प्रतिवर्ष खड़े हो जाते (जी उस समय स्कूलों में चुनावों की परम्परा थी)। वे क्लास मनिटर, सहसचिव, सचिव, उपाध्यक्ष से लेकर अध्यक्ष पद तक का चुनाव मात्र इसलिए हार गए, क्योंकि उनका विरोधी पैनल हर चुनाव में इस बात का प्रचार जोरशोर से करता किजो लड़का अपना नाम भी सही नहीं बोल सकता, अपने देश का नाम सही नहीं बोलता,जो भारत को 'भालत' कहता है, राष्ट्रपति को लाष्टपति कहता है, राष्ट्रपिता को राष्ट्रपिता बोलता है, पंडित नेहरू को पंडित नेहलू, राजघाट को लाजघाट, पार्लियामेंट को पालियामेंट, यहाँ तक कि अपने देश की मुद्रा रुपया को लुपया, राजनीति को लाजनीति, रेलगाड़ी को लेलगाड़ी बोलता है, वो स्कूल का सही नेतृत्व कैसे करेगा? अब पहाड़े में से 'र' को हटाना, अपने देश, अपने महापुरुषों, राष्ट्र के संवैधानिक पदों, अपनी जन्मभूमि गाडरवारा में से एक नहीं दो-दो 'र' को हटाना, उनके सामर्थ्य के बाहर था। किंतु अपने नाम रामचंद्र पर तो उनका पूरा अधिकार था, इसलिए उन्होंने सोचा कि अपना नाम भी वर्णमाला के उसी अक्षर से शुरू करना चाहिए जिसके उच्चारण में जीभ की सहज रुचि व सिद्घता है, कम से कम मैं अपना नाम तो सही बोल पाऊँगा। तभी से उनका इस धारणा पर विश्वास और पक्का हो गया, कि जो व्यक्ति अपना नाम सही बोलता है, वो अपना काम भी सही करता है। और उसी दिन, वे रामचंद्र से लामचंद हो गए। स्कूल में ही उन्हें राजनीति का चिटका लग गया था। सौभाग्यवश वे डेढ़ सौ एकड़ सिंचित भूमि के इकलौते वारिस थे, सो कॉलेज तक आते-आते उनकी राजनीतिक अंगीठी धुंधाने लगी, और कॉलेज छोड़ते ही भभक कर जल उठी। इलाके के बड़े किसान होने के नाते वे उस क्षेत्र के किसानों के सर्वमान्य नेता हो गए थे, इसके चलते शहरी क्षेत्र में भी उनकी अच्छी खासी धाक थी। किसी की वरयात्रा हो तो, लोग दूल्हा और घोड़ी के बाद लामचंद का जिक्र करते, शवयात्रा हो तो शव और ठठरी के बाद लामचंद का उल्लेख होता। कव्वाली का आयोजन हो तो तबला, सारंगी, लामचंद फिर कव्वाल। कुल मिलाकर लामचंद अपने उत्साह, ऊर्जा, सक्रियता के चलते उस पूरे क्षेत्र का ना चाहते हुए भी एक आवश्यक अंग हो गए थे। एक बार हमारे शहर के सबसे प्रसिद्घ मंदिर में चोरी हो गई चोर भगवान जी की मूर्तियाँ चुरा कर ले गए। पूरा शहर सकते में था, लोगों को समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए ? सांसद, विधायक सब सन्न थे। शहर अहिल्या के जैसा पाषाणवत हो गया था, तब लामचंद ने भगवान श्रीरामचंद्र का रोल अदा किया और करीब पाँच हजार किसानों का एक जंगी मोर्चा निकाला, जिससे सारा शहर हरहराकर जाग गया। अपने तूफानी भाषण से वे जन-जन के हृदय में पहुँच गए, उस समय मेरी उम्र करीब पंद्रह बरस की रही होगी किंतु आज भी उनका भाषण मुझे ऐसे याद है जैसे कल की ही बात हो, हाथठेले को मंच बनाकर लामचंद गरजे की गाड़लवाला (गाडरवारा) मंदिल (मंदिर) से गाडलवाला पुलिस स्टेशन कित्ते किलोमीटल (किलोमीट
र)? बोले तो तीन किलोमीटल। औल (और) गाडलवाला से नलसिंगपुल (नरसिंहपुर) कित्ते किलोमीटल? बोले तो पचपन किलोमीटल। तो नलसिंगपुल की पुलिस डेढ़ घंटे में गाडलवाला आ सकती है, लेकिन गाडलवाला की पुलिस डेढ़ घंटे में तीन किलोमीटल नई आ सकती? जलूल (जरूर) इसमें पुलिस का हाथ है, टीआई को क्या जलूलत (जरूरत) थी लात को (रात को) नौ बजे की दुकान बंद कलो-दुकान बंद कलो। पुलिस को आड़े हाथों लेकर उसे कटघरे में खड़ा करने के कारण, और जनता का भीषण दबाव देख उच्चाधिकारियों ने एक टीआई, दो सब इन्स्पेक्टर, और आठ सिपाहियों को तत्काल प्रभाव से सस्पेंड कर दिया और सात दिन में भगवान की मूर्तियाँ चोरों सहित बरामद कर ली गईं। उस समय पुलिस के खिलाफ मोर्चा खोलना एक किस्म का भीमकार्य हुआ करता था। सो लामचंद क्षेत्र के अघोषित युवा तुर्क-मान लिए गए। राजनीति में विकट सक्रियता के बाद भी मैंने पाया कि उनकी रुचि विधायकी या सांसदी में बिलकुल नहीं थी। यहाँ तक कि वे पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष या पार्टी-संगठन के बड़े पदों को भी वे हेय दृष्टि से देखते थे। किंतु लालबत्ती लगी हुई गाड़ी को देख के चहक जाते। लालबत्ती के प्रति उनका आकर्षण बीमारी की हद तक था, वे गाड़ी के टायरों की आवाज सुनके बता देते की गाड़ी लालबत्ती वाली है या नहीं। उनके लिए लालबत्ती में बैठे हुए व्यक्ति से अधिक महत्वपूर्ण लालबत्ती की गाड़ी थी। उनका मानना था कि पद आते जाते रहते हैं, वे अस्थाई होते हैं लेकिन लालबत्ती स्थाई होती है। एक बार को भगवान का प्रभाव घट सकता है लेकिन लालबत्ती का नहीं। पैसा, प्रसिद्घि तो सब कमा लेते हैं लेकिन लालबत्ती तक पहुँचना हर किसी के बस की बात नहीं है। जिसने लालबत्ती को हासिल कर लिया वही माई का 'लाल' कहलाने लायक है, अन्यथा उसे लाल कहलाने का कोई अधिकार नहीं है। यदि कोई मंत्री लालबत्ती में उनके गाँव आता तो वे गाड़ी की तरफ ऐसे लपकते जैसे सांप छटून्दर को देखके लपकता है। उस मंत्री को रिसीव कर वे मंत्री के साथ जलसे या सभा में नहीं जाते, गाड़ी के पास ही खड़े रहते। उनके साथ के लोगों पर इसका अद्भुत प्रभाव पड़ता वे कहते कि लामचंद भैया को मंत्रियों के साथ घुसने की आदत नहीं है, वे स्वयं ना ठस के अपने लोगों को ठसने का मौका देते हैं। जबकि इसका असली कारण लामचंद का लालबत्ती के प्रति प्रेम था, उनकी हसरत का पता सिर्फ मजनू को ही चल सकता था क्योंकि लामचंद के लिए लालबत्ती लैला के जैसी थी, वे फरहाद थे और लालबत्ती उनकी शीरी, वे रांझा थे और लालबत्ती उनकी हीर, वे चकोर थे और लालबत्ती उनका चंद्रमा। 'ल' की लपक के बाद भी उनकी सम्पन्नता, सक्रियता, लोकप्रियता को देख दो बार उन्हें विधायकी का टिकट आफर हुआ, किंतु उन्होंने उसे बहुत चतुराई से उसे टरका दिया। इसका लोगों पर बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ा, उनकी छवि एक ऐसे जननेता की बनी जो सत्ता का भूखा नहीं है। किंतु लामचंद चुपचाप राज्य परिवहन निगम की चेयरमेनी या देश के डिसास्टर मेंनेजमेंट डिपार्टमेंट की पाँच सदस्यीय कमेटी में घुसने की जुगाड़ में लगे रहते। क्योंकि सिर्फ इन दोनों विभागों के बाईलज में ही लिखा था कि चेयरमेन को या कमेटी के सदस्यों को राज्यमंत्री का दर्जा और लालबत्ती मिलेगी। बाकी निगमों की लालबत्ती बड़े नेताओं की दया पर डिपेंड थी। इसलिए वे अपना अधिकतम समय भोपाल, दिल्ली में गुजारते। एक दिन दिल्ली में मुझे मिल गए सफेद कड़क-कलफ किया हुआ कुर्ता पैजामा पहने हुए, रामायण के मेघनाथ के जैसी करीने से सजी हुई तलवार कट पतली मूँटें, लालसुर्ख-होंठ जिन पर वो हर दस मिनिट में लिपग्लास लगा लेते, वे मुझसे दस बारह बरस बड़े थे करीब साठ-बासठ के साल के, किंतु उनकी फिट्नेस का आलम ये था कि कोई भी उन्हें बयालीस, पैंतालीस के ऊपर का नहीं मानता। यदि वे मुँह ना खोलें तो कोई भी उनके सुदर्शन व्यक्तित्व के चपेट में आए हुए बिना नहीं रह सकता। मैंने कहा- भाईसाहब मुझे आपकी राजनीति समझ नहीं आती, आपकी पार्टी आपको चुनाव लड़वाना चाहती है और आप हैं कि निगम की चेयरमेनी के लिए लार टपकाते घूम रहे हैं। अपने तीस साल बर्बाद कर दिए आपने, आज पता नहीं आप कहाँ होते। वे बेहद दोस्ताना स्वभाव के थे, बोले छोटे तुम नहीं समझोगे, ये ऐसी आग है जो लगाए ना लगे, बुझाए ना बुझे। वे अक्सर ऐसे शब्दों में वाक्य विन्यास करते जिसमें जब तक बहुत जरूरी ना हो 'र' ना आए। मेली (मेरी) कुंडली में लालबत्ती लिखी है। कामाख्या पीठ के सबसे बड़े ताँतलिक (तांत्रिक) से लेकर केलल (केरल) के प्रसिद्घ ज्योतिषी तक, दिल्ली से लेके देवली (देवरी) तक, भोपाल से लेकर भागलपुल (भागलपुर) तक, जो भी पंडित मेली (मेरी) कुंडली देखता है उसमें सबसे पहले उसको लालबत्ती घूमती हुई दिखाई देती है। बोले- मेले (मेरे) लिए लाजनीति (राजनीति) पैसा कमाने का साधन नहीं है, वो भगवान का दिया हुआ
बहुत है। ये जनकल्याण या किसी के अकल्याण का लास्ता (रास्ता) भी नहीं है, क्योंकि जनकल्याण या किसी का अकल्याण मैं बिना इसके भी कलता (करता) लहता (रहता) हूँ, या कल (कर) सकता हूँ। जनबल है ही, तुमने देखा है। एक आवाज पे, हजाल (हजार) लोग इकट्ठे हो जाते हैं। बाहुबल है ही, तुम देख लहे (रहे) हो। उन्होंने अपनी भुजाओं में पड़ने वाली मछलियाँ मुझे आर्म फ्लेक्स करके दिखाईं और मुस्कुरा दिए। मैं लाजनीति सिल्फ लालबत्ती के लिए कलता हूँ। मुझे लालबत्ती से बेइन्तहाँ मोहब्बत है, बचपन में एक बाल (बार) इन्दला जी ( इंदिरा जी ) को देखा था, तभी सोच लिया था कि जीवन में एकबाल ( एकबार ) इसे हासिल कलना (करना) है। लोकतंत्र में लालबत्ती का लालच लाजमी है, लेकिन लामचंद के लिए लालबत्ती लालच नहीं लिप्सा थी। मैंने कहा भाईसाहब आप यदि चुनाव लड़े होते तो अभी तक मंत्री बनके लालबत्ती पा चुके होते। लामचंद बोले स्कूल से लेकल कलेज तक मैंने कुल सोलह चुनाव लड़े औल सभी में शिकस्त मिली, बिलकुल जलासंघ (जरासंघ) के जैसी। जलासंघ महाप्लतापी (महाप्रतापी) था उसने मथुला (मथुरा) जीतने के लिए सोला बाल आकल्मन (आक्रमण) किया लेकिन कभी जीत नहीं पाया। मैंने कहा अब्राहम लिंकन भी जीवन भर चुनाव हारते रहे, पहली बार चुनाव जीते वो भी राष्ट्रपति का। उन्होंने सहमति में सर हिलाया और बोले- बचपन में अगल (अगर) किसी चीज का डल (डर) बैठ जाए तो वो जीवन भल (भर) नहीं निकलता। नेपोलियन बहादुल योद्घा था, विश्वविजेता लेकिन बिल्ली से डलता (डरता) था। औल चुनाव जीतने के बाद लालबत्ती मिले ही इसकी कोई गेलनटी (गारंटी) नई। मैंने कहा- भाईसाहब बुरा मत मानिएगा, अगर आपके यही लक्षण रहे तो आप और लालबत्ती के प्रेम का हश्र भी कहीं लैला-मजनू टाइप ना हो जाए, जो कभी मिल नहीं पाए। वे नाराज हुए बिना पूरी आस्था से बोले, यदि किसी चीज को पूरी शिद्दत से माँगो तो बलह्मांड (ब्रह्मांड) आपकी इच्छा पूली (पूरी) कलता (करता) है। अब उन्होंने एक नियुक्ति पत्र मुझे दिखाया जिसमें स्पष्ट शब्दों में लिखा था की श्री लामचंद को भारत सरकार के डिजैस्टर मेनेंजमेंट डिपार्टमेंट की पाँच सदस्यीय समिति का सदस्य मनोनीत किया जाता है, और आपको राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त होगा। दिल्ली में सरकारी आवास, देशभर में लालबत्ती से लैस सरकारी वाहन, राष्ट्रीय ध्वज के साथ। एक लाल झंडे वाला सायरन, हूटर से लैस पायलेट वाहन-जो आगे चलेगा, एक फलो वाहन सायरन हूटर से लैस-जो पीटे चलेगा। चार-सोलह की पुलिस सिक्यरिटी। इस नियुक्ति पत्र को पढ़ाते हुए लामचंद भाईसाहब प्रसन्नता से काँप रहे थे, उनका गोरा चेहरा सुर्ख-लाल हो गया था। बोले आज गाडरवारा जा रहा हूँ। मैं बुरी तरह चौंका ! ! वे भी बुरी तरह चौंके! हम दोनों ही लगभग एक साथ बोल पड़े, अभी क्या बोला? वे बदहवास हो पूछने लगे- अभी मैंने जो बोला वो तुमने सुना? मैंने कहा- जी सुना, लेकिन आपने जो बोला, क्या मैंने सही सुना? आप उसे फिर से बोल सकते हैं? वे दीवार के अमिताभ बच्चन के 'मैं आज भी देंके हुए पैसे नहीं उठता। ' वाले अन्दाज में बोले- मैं आज गाडरवारा जा रहा हूँ। ये चमत्कार था, वे गाडरवारा के एक नहीं दोनों 'र' को 'र' बोल रहे थे। इस बात का एहसास होते ही लामचंद खुशी के उन्माद में रामचंद्र, भारत, राष्ट्रपिता, राष्ट्रपति, रूपया, नेहरु जी, इंदिरा जी, रेलगाड़ी, रतलाम, राम-राम, गाडरवारा, गाडरवारा। बोलने लगे। लालबत्ती के नियुक्ति पत्र ने उनकी 'र' को 'ल' कहने की समस्या का जैसे निदान ही कर दिया था। वे चीखकर पूरी दुनिया को अपनी 'र' विजय की दास्तान सुनाना चाहते थे। 'र' के रस ने उन्हें उन्मत्त कर दिया था। बहुत गर्मजोशी से उन्होंने मुझे छाती से चिपका लिया और बेहद गौरव व गरिमा से जैसे कोई अपनी प्रियतमा के दिव्य गुणों का, उसके रूप का बखान करता है बोले- देखा, लालबत्ती में चिकित्सकीय गुण भी हैं, यह देवताओं के सोमरस से भी ज्यादा असरकारी औषधि है, ये व्यक्ति की जन्मजात समस्या का भी निदान करती है। इसे प्राप्त करते ही व्यक्ति के सारे दोष दूर हो जाते हैं, लालबत्ती के प्रकाश में व्यक्ति के अवगुण भी गुण दिखाई देते हैं। ये चमत्कार देख मैं स्वयं अचम्भित था ! ! मैंने हँसते हुए कहा रामचंद्र को लालबत्ती मिलने, और 'र' को 'र' बोल पाने की बहुत-बहुत बधाई, भाईसाहब मैं तीन दिन बाद गाडरवारा आ रहा हूँ, आपसे अवश्य मिलूँगा। वे प्रसन्नता के सातवें सुर पर खड़े होकर बोले- प्लीज करेक्ट योर सेल्फ। ये रामचंद्र की नहीं 'लामचंद की लालबत्ती है'। लामचंद उर्फ रामचंद्र को तुम्हारी प्रतीक्षा रहेगी, आइए आपका स्वागत है। उन्हें आनंदमग्न, आह्लादित छोड़ मैं वहाँ से मुंबई के लिए निकल गया। मुंबई में गाडरवारा जाने से पहले मैंने टीवी पर न्यूज देखी कि पंजाब और उत्तरप्रदेश की तर्ज पर सरकार ने लालबत्ती व्यवस्था
को कानूनी रूप से बंद करने का फैसला ले लिया है। देश भर में कोई भी मंत्री या अधिकारी अब से लालबत्ती का इस्तेमाल नहीं कर सकेगा। लालबत्ती का अस्तित्व समाप्त किया जाता है। खबर सुनके मैं सन्न रह गया, मेरी आँखों के सामने लामचंद का चेहरा घूमने लगा-जिनके लिए लालबत्ती 'तुम्हीं हो माता, पिता तुम्हीं हो। तुम्हीं हो बंधु, सखा तुम्हीं हो। ' जैसी थी। राजनीति के बहुत से उपासक हैं, और सब ही लालबत्ती पाना चाहते हैं। लेकिन वे लालबत्ती ना मिलने की शर्त पर सांसदी, विधायकी, या संगठन के विभिन्न पदों से ही इश्क कर बैठते हैं और एक समझौते के तहत उन्हीं से ब्याह रचा कर शांति से अपना अतृप्त जीवन बिता लेते हैं। किंतु लामचंद जैसा लालबत्ती का एकनिष्ठ,अच्युत प्रेमी, जो लालबत्ती के अलावा लालबत्ती परिवार की किसी और कन्या के साथ हर्गिज विवाह रचाने के लिए राजी नहीं है, मिलना बहुत दुर्लभ था। उनके लिए लालबत्ती को अयोग्य घोषित करना, उसे स्वयंवर से हटा देना, उसकी मान्यता को खघरिज करना बिलकुल भीष्म पितामह और अम्बा के जैसी स्थिति थी। मुझे लगा कि कहीं इतिहास स्वयं को दोहराने की तैयारी तो नहीं कर रहा ? क्योंकि भीष्म का राजी ना होना ही अम्बा की नाराजगी का कारण था, परिणाम स्वरूप शिखंडी का जन्म हुआ और फिर शिखंडी ही भीष्म की शरशैया का कारण बना। तभी मेरा फोन घनघना उठा, मैंने देखा की डिस्प्ले पर लामचंद कलिंग चमक रहा है। मैंने अपने को मानसिक रूप से तैयार कर फोन उठाया, हेलो कहते ही वहाँ से आवाज आई-छोटे, तुम्हारी जुबान काली है। वे सर्द सुर में बोल रहे थे, तुमने मुझसे कहा था कि मेरा लालबत्ती प्रेम भी कहीं लैला मजनू के अंजाम पर ना पहुँच जाए, जो जीते जी एक दूसरे से मिल नहीं पाए थे। सही साबित हो गया। मैं कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं था सो चुपचाप उन्हें सुनता रहा, लामचंद बोले- खैर, ये जानते हुए भी कि इस युद्घ में मेरी हार निश्चित है, मैं महाभारत के कर्ण के जैसा ही दुर्घर्ष युद्घ करूँगा। क्योंकि कर्ण की और मेरी कुंडली मिलती है, हम दोनों ही सत्ता के द्वारा छले गए, हम दोनों की एक जैसी लालसा थी, कर्ण के लिए भी सत्ता- सम्पत्ति का नहीं, यश अर्जन का साधन थी। और मेरे लिए भी सत्ता यश अर्जन का हेतु है। उसके मार्ग की भी सबसे बड़ी बाधा 'र' अक्षर था। और मेरे मार्ग को भी 'र' ने ही अवरुद्घ कर रखा है। उसकी योग्यता पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाला अर्जुन था, जिसके नाम में 'र' अक्षर उपस्थित है। तो मुझे भी अयोग्य साबित कर, वंचित करने वाला अपने नाम में 'र' अक्षर को धारण किए हुए है। नर के अवतार कहे जाने वाले अर्जुन के सारथी श्रीकृष्ण थे, तो इस नर श्रेष्ठ के रथ को हाँकने वाले भी कोई कृष्ण ही हैं। नरावतार अर्जुन 'लालसा' को छोड़के मुक्त होने के सिद्घांत का पक्षधर था, तो ये नरश्रेष्ठ भी 'लाल' को छोड़ कर सिद्घ होने की बात करता है। कैसा अजीब संयोग है, कि महाभारत में भी नरावतार की सफलता के मूल में कृष्ण थे, और भारत में भी इस नरश्रेष्ठ की सफलता के मूल में कृष्ण ही हैं। मैंने तुम्हें इसलिए फोन किया ताकि तुम्हें बता दूँ कि तुम्हारा बोला हुआ सच हो जाता है, इसलिए सम्हल कर बोला करो। आजकल लोग सच्ची भविष्यवाणी को नहीं,अच्छी भविष्यवाणी को पसंद करते हैं। मैंने कहा, जी स्मरण रखूँगा। अब लामचंद भाईसाहब, चेतावनी प्लस सूचना देने वाले स्वर में बोले- छोटे, याचना नहीं अब रण होगा, जीवन जय या कि मरण होगा, ये कहके उन्होंने फोन काट दिया। जब मैं अपने शहर पहुँचा तो ट्रेन से उतरते ही मुझे माहौल में गर्मी और मातम दिखाई दिया, रेलवे स्टेशन से बाहर निकलते ही मैंने देखा कि कघ्रीब पंद्रह बीस हजार लोग जमा थे, जो लामचंद भाईसाहब के नेतृत्व में दिल्ली की ओर कूच करने वाले थे। लामचंद एक ऊँचे चबूतरे पर खड़े होकर भयंकर क्रोध से भरे हुए भाषण दे रहे थे। यह लोकतंत्र की विशिष्टता पर प्राणघातक हमला है। लालबत्ती के अस्तित्व को समाप्त करना यानि अनुशासन को समाप्त करना है। लोकतंत्र की खूबी शेष वर्ग को विशेष बनाने में है, ना की विशेष को शेष बनाने में। जनप्रतिनिधियों की विशिष्टता को नष्ट करना जनतंत्र को नष्ट करना है, ये विशिष्टता का नहीं अशिष्टता का प्रमाण है। लोकतंत्र आम आदमी को खास बनाता है, खास को आम बना देना लोकतंत्र के विरुद्घ चलने जैसा है। देश व्यवस्था से चलता है, और व्यवस्था-बत्ती से बनती है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमारे चौराहों पर लगी लाल,हरी,पीली बत्तियाँ हैं। जहाँ पर लालबत्ती नहीं होती और ट्रैफिक को बत्ती विहीन आदमी के जरिए कंट्रोल करवाया जाता है, वहाँ पर ट्रैफिक जाम हो जाता है। एक किस्म की अराजकता फैल जाती है, लोग एक दूसरे पर चढ़े पड़ते हैं। हम बढ़ नहीं पाते, चारों तरफ हार्न का शोर-शराबा होता है, गाली-गलौज होता है। और इन्होंने, पूरे देश से बत्ती गुल
कर दी, जिससे हम एक दूसरे पर चढ़ जाएँ ? अगर आप जनप्रतिनिधियों का वीआईपीपना खत्म करना चाहते हैं, तो लालबत्ती के आगे पीटे चलने वाली गाड़ियाँ बंद कीजिए, इससे लोग असुविधा से भी बचेंगे, पेट्रोल, डीजल बचेगा, समाज का पैसा जो टैक्स के रूप में वसूला जाता है, वो भी बचेगा। इसके लिए लालबत्ती को हटाने की क्या जरूरत? अभी अगर लालबत्ती की सिर्फ एक गाड़ी हो, तब भी लोग उसे वीआईपी वाहन जान के रास्ता दे देते हैं, लेकिन लालबत्ती के हटते ही, आप देख लेना जो अभी एक गाड़ी में चलता है वो दस गाड़ियाँ लेकर चलेगा और उनके आगे चलने वाली गाड़ियों में बैठे लोग फिरर्र-फिरर्र सीटियाँ मारेंगे ताकि उनके वीआईपी का वीआईपी पना दिख सके, पेट्रोल,डीजल, मैन पावर, टैक्स का पैसा सबकी दस गुना बर्बादी होगी। आप बेचारी लालबत्ती को तो हटा देंगे, लेकिन लोगों के दिमाग से वीआईपी पना कैसे निकालोगे? दोषी बाहर दिखने वाली लालबत्ती नहीं, अंदर बैठा हुआ वीआईपी पन है। अरे साहाऽऽब, वीआईपी कल्चर खत्म करना है, तो मंत्रियों, संतरियों के एक-एक, दो-दो एकड़ में फैले सरकारी आवास छोटे करो, वो जनता का आदमी है, तो उसे जनता के बीच दो तीन कमरों के मकान में रखो। आप ये सब ना करके लालबत्ती को दोषी ठहरा रहे हैं। लामचंद खिजयाए हुए से बोले, बड़ी चिंता है तो वीआईपी को मिलने वाली सिक्यरिटी हटाओ, चुने गए प्रतिनिधियों को अपने ही लोगों के बीच जाने के लिए फौज फटाके की क्या जरूरत ? लालबत्ती नहीं, ये फौज फटाका, ढोल नगाड़े वीआईपी कल्चर है। लोगों की भावनाओं का मजाकघ् बना के रख दिया-ये बंद, वो बंद, अमका बंद, ढिमका बंद। ज़ब देखो बंद, बंद, बंद, अरे भैया सब बंद ही करते रहोगे या कुछ चालू भी करोगे? साथियों, लोकतंत्र राजा है और लालबत्ती इसका ताज, हम किसी भी कीमत पर अपने राजा के ताज की रक्षा करेंगे। सफेद सरकारी गाड़ी की छत पर लपलपाती हुई लालबत्ती उसके सौभाग्य की, उसके सुहाग की निशानी थी, हम हर कीमत पर उसके सुहाग की रक्षा करेंगे। वे अपने साथ हुए विश्वासघात से बुरी तरह आहत थे, उनके मुँह से झाग निकलने लगा। अपनी बात को न्याय और नीतिसंगत सिद्घ करने के लिए लामचंद ने अब अपने भाषण को एक नया मोड़ दिया। ये संसार सभी ग्रहों से मिलकर चलता है लेकिन इनमें सूर्य का सबसे विशेष स्थान है, सूरज ना निकले तो सबरी हेकड़ी धरी रह जाएगी। आप लोग ध्यान देना, सूरज जब घर से निकलता है तो लाल होता है, ये लाल क्या है? ये सूरज को राजा इन्द्र से मिली हुई लालबत्ती की चमक है। उसी लालबत्ती के कारण आपको सूरज को प्रणाम करना पड़ता है, उसका स्वागत करना पड़ता है, उसे जल चढ़ाना पड़ता है। सूरज को देखते ही आपको काम पर जाना पड़ता है। ये सब क्यों? क्योंकि वो लालबत्ती वाला है। ऐसे तो चंद्रमा भी रोज निकलता है, सबको शीतलता देता है, लेकिन हम घंट ध्यान नहीं देते उसपे, कब निकला-कब चला गया, पता भी नहीं चलता। एकाध दिन करवाचौथ, या शरद पूर्णिमा को छोड़ के हम उसको महत्व नहीं देते, क्यों? क्योंकि उसके पास लालबत्ती नहीं है। लालबत्ती समाप्त करने का ये फैसला हम चमकते हुए सूरजों को करवाचौथ का चंदा मामा बनाने का प्रयास है, कि साल में एकाध बार तुम्हारी कद्र हो जाए बस बहुत है। सूरज निकलते हुए भी लाल होता है और जब ढलता है तब भी लाल ही होता है, ऐसा नहीं कि वो अब ढल रहा है तो ग्रहों के देवता उसकी लाली छुड़ा लें। क्योंकि वो जानते हैं कि लाली वाले की लाली छुड़ाना अलोकतांत्रिक व्यवस्था है। लाल में पावर है, लाल में विश्वास है, लाल में जीवन है। भाइयो! बहने को तो हमारी रगों में पानी भी बहता है, लेकिन बात सिर्फ रगों में दौड़ने वाले खून की ही होती है। क्यों? क्योंकि खून का रंग लाल होता है, कोई माई का लाल- लाल खून की अनदेखी नहीं कर सकता और आऽऽप, राजधानी में बैठ के हमसे हमारा लाल टुड़ा के, हमें पावर हीन कर रहे हैं, हमारे जीवन से लाल रंग खत्म कर देना चाहते हैं, ताकि हम पीले पड़ जाएँ और लोग हमें रोगी समझ के हमारी तरफ देखना बंद कर दें। अरे आपको नई लगानी लालबत्ती साहाऽऽब तो आप मत लगाइए, लेकिन ये क्या बात हुई? कि ना हम लगाएँगे और ना लगाने देंगे। या सिर्फ हम ही लगाएँगे और किसी को नहीं लगाने देंगे। अरे, जैसी स्कीम गैस सब्सिडी में लाए हैं वैसी ले आते, इच्छा हो तो छोड़ दो भाई वाली। भाईसाहब गला फाड़ के चीख रहे थे, क्रोध और विषाद के आवेग से उनके कंठ का ही नहीं शरीर का संतुलन भी गड़बड़ा रहा था, वे क्रोध और करुणा के मिश्रित स्वर में विलाप करते हुए से बोले-हम दिल्ली के जंतर मंतर पर धरना देंगे, भले ही हमारी जान चली जाए लेकिन इस देश से लालबत्ती को हम नहीं जाने देंगे, लालबत्ती किसी व्यक्ति की नहीं जनतंत्र की शान है, लालबत्ती हमारा जन्मसिद्घ अधिकार है और हम इसेऽऽ़. ़। वे इतना ही कह पाए थे कि भड़ाक से गिर पड़े। चार
ों तरफ अफरा-तफरी मच गई। मैं भीड़ को चीरते हुए उन तक पहुँचा वे संज्ञा शून्य हो गए थे कि तभी लालबत्ती वाली ऐम्ब्युलन्स सायरन बजाती हुई आयी, सायरन सुनके अचानक भाईसाहब की पुतलियों में हरकत हुई, उन्होंने बहुत हसरत से लालबत्ती को देखा वे लालबत्ती को अपने आगोश में लेने के लिए उठ खड़े होना चाहते थे कि तभी उन्हें जोर से हिचकी आयी और वे फिर से बेहोश हो गए। चारों तरफ हाहाकार मच गया। लोगों ने बेहद फुर्ती से भाईसाहब को ससम्मान लालबत्ती वाली ऐम्ब्युलन्स में रखा और ऐम्ब्युलन्स सायरन बजाती हुई भाईसाहब को अपने साथ लेकर चली गई। मैं अस्पताल पहुँचा तो डक्टर ने बताया कि सिचुएशन आउट अफ डेंजर है, लेकिन उन्हें गहरा सदमा लगा है। वे किसी को पहचान नहीं रहे हैं। डक्टर से अनुमति लेकर मैं उनके कमरे में पहुँचा, भाईसाहब एकटक कमरे की सीलिंग को घूर रहे थे, मैंने उनका ध्यान अपनी तरफ खींचने के लिए धीरे से ,भाईसाहब प्रणाम कहा। मैंने महसूस किया कि उनके कान तो मेरी आवाज पहचान रहे हैं, किंतु उनकी आँखें मुझे नहीं पहचानना चाहतीं। इससे मुझे बल मिला और मैं थोड़ा जोर से, जैसे सब कुछ सामान्य है वाले भाव से-जिससे वे ग्लानि मुक्त हो के वास्तविकता के प्रति सहज हो सकें, बोला- भाईसाहब को प्रणाम करता हूँ, अब उनकी आँखें कमरे के छत से हटकर मेरी छाती पर टिक गईं, आँखें वे अभी भी नहीं मिला रहे थे। मैंने और अधिक उत्साह से बोलना शुरू किया, भाईसाहब मैं या मेरे जैसे इस क्षेत्र के पच्चीस-तीस हजार लोग लामचंद से प्रेम करते हैं, उनकी लालबत्ती से नहीं। मेरी बात सुनके उनके चेहरे पर एक आभारी किन्तु विवश मुस्कुराहट आई, वे बहुत धीमे स्वर में बोले, प्लेलना (प्रेरणा) की समाप्ति ही प्लतालना (प्रतारणा) है। 'मनचाही में खलल है, प्रभु चाही तत्काल।
।इस लेख का पुनरीक्षण एवं सम्पादन होना आवश्यक है। आप इसमें सहायता कर सकते हैं। "सुझाव" लाला गोपीनाथ को युवावस्था में ही दर्शन से प्रेम हो गया था। अभी वह इंटरमीडियट क्लास में थे कि मिल और बर्कले के वैज्ञानिक विचार उनको कंठस्थ हो गये थे। उन्हें किसी प्रकार के विनोद-प्रमोद से रुचि न थी। यहाँ तक कि कालेज के क्रिकेट-मैचों में भी उनको उत्साह न होता था। हास-परिहास से कोसों भागते और उनसे प्रेम की चर्चा करना तो मानो बच्चे को जूजू से डराना था। प्रातःकाल घर से निकल जाते और शहर से बाहर किसी सघन वृक्ष की छाँह में बैठ कर दर्शन का अध्ययन करने में निरत हो जाते। काव्य अलंकार उपन्यास सभी को त्याज्य समझते थे। शायद ही अपने जीवन में उन्होंने कोई किस्से-कहानी की किताब पढ़ी हो। इसे केवल समय का दुरुपयोग ही नहीं वरन् मन और बुद्धि-विकास के लिए घातक ख्याल करते थे। इसके साथ ही वह उत्साहहीन न थे। सेवा-समितियों में बड़े उत्साह से भाग लेते। स्वदेशवासियों की सेवा के किसी अवसर को हाथ से न जाने देते। बहुधा मुहल्ले के छोटे-छोटे दूकानदारों की दूकान पर जा बैठते और उनके घाटे-टोटे मंदे-तेजे की रामकहानी सुनते। शनैः-शनैः कालेज से उन्हें घृणा हो गयी। उन्हें अब अगर किसी विषय से प्रेम था तो वह दर्शन था। कालेज की बहुविषयक शिक्षा उनके दर्शनानुराग में बाधक होती। अतएव उन्होंने कालेज छोड़ दिया और एकाग्रचित्त हो कर विज्ञानोपार्जन करने लगे। किंतु दर्शनानुराग के साथ ही साथ उनका देशानुराग भी बढ़ता गया और कालेज छोड़ने के थोड़े ही दिनों पश्चात् वह अनिवार्यतः जाति-सेवकों के दल में सम्मिलित हो गये। दर्शन में भ्रम था अविश्वास था अंधकार था जाति-सेवा में सम्मान था यश था और दोनों की सदिच्छाएँ थीं। उनका वह सदनुराग जो बरसों से वैज्ञानिक वादों के नीचे दबा हुआ था वायु के प्रचंड वेग के साथ निकल पड़ा। नगर के सार्वजनिक क्षेत्र में कूद पड़े। देखा तो मैदान ख़ाली था। जिधर आँख उठाते सन्नाटा दिखाई देता। ध्वजाधारियों की कमी न थी पर सच्चे हृदय कहीं नजर न आते थे। चारों ओर से उनकी खींच होने लगी। किसी संस्था के मंत्री बने किसी के प्रधान किसी के कुछ किसी के कुछ। इसके आवेश में दर्शनानुराग भी विदा हुआ। पिंजरे में गानेवाली चिड़िया विस्तृत पर्वतराशियों में आ कर अपना राग भूल गयी। अब भी वह समय निकाल कर दर्शनग्रंथों के पन्ने उलट-पलट लिया करते थे पर विचार और अनुशीलन का अवकाश कहाँ ! नित्य मन में यह संग्राम होता रहता कि किधर जाऊँ उधर या इधर विज्ञान अपनी ओर खींचता देश अपनी ओर खींचता। गोपीनाथ ने अन्यमनस्क हो कर उत्तर दिया-कोई नयी बात तो नहीं हुई। पृथ्वी अपनी गति से चली जा रही है। अमर-अजी मुझे तो लोगों ने जबरदस्ती घसीट लिया। नहीं तो मुझे इतनी फुर्सत कहाँ। गोपी-मेरा भी यही विचार है। अध्यापकों का क्रियात्मक राजनीति में फँसना बहुत अच्छी बात नहीं। गोपी-बहुत कम। इसी दुविधा में पड़ा हुआ हूँ कि राष्ट्रीय सेवा का मार्ग ग्रहण करूँ या सत्य की खोज में जीवन व्यतीत करूँ। अमर-राष्ट्रीय संस्थानों में सम्मिलित होने का समय अभी तुम्हारे लिए नहीं आया। अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है जब तक विचारों में गाम्भीर्य और सिद्धांतों पर दृढ़ विश्वास न हो जाय उस समय तक केवल क्षणिक आवेशों के वशवर्ती हो कर किसी काम में कूद पड़ना अच्छी बात नहीं। राष्ट्रीय सेवा बड़े उत्तरदायित्व का काम है। गोपीनाथ ने निश्चय कर लिया कि मैं जाति-सेवा में जीवनक्षेप करूँगा। अमरनाथ ने भी यही फैसला किया कि मैं म्युनिसिपैलिटी में अवश्य जाऊँगा। दोनों का परस्पर विरोध उन्हें कर्म-क्षेत्र की ओर खींच ले गया। गोपीनाथ की साख पहले ही से जम गयी थी। घर के धनी थे। शक्कर और सोने-चाँदी की दलाली होती थी। व्यापारियों में उनके पिता का बड़ा मान था। गोपीनाथ के दो बड़े भाई थे। वह भी दलाली करते थे। परस्पर मेल था धन था संतानें थीं। अगर न थी तो शिक्षा और शिक्षित समुदाय में गणना। वह बात गोपीनाथ की बदौलत प्राप्त हो गयी। इसलिए उनकी स्वच्छंदता पर किसी ने आपत्ति नहीं की किसी ने उन्हें धनोपार्जन के लिए मजबूर नहीं किया। अतएव गोपीनाथ निश्चिंत और निर्द्वन्द्व होकर राष्ट्र-सेवा में कहीं किसी अनाथालय के लिए चंदे जमा करते कहीं किसी कन्या-पाठशाला के लिए भिक्षा माँगते फिरते। नगर की काँग्रेस कमेटी ने उन्हें अपना मंत्री नियुक्त किया। उस समय तक काँग्रेस ने कर्मक्षेत्र में पदार्पण नहीं किया था। उनकी कार्यशीलता ने इस जीर्ण संस्था का मानो पुनरुद्धार कर दिया। वह प्रातः से संध्या और बहुधा पहर रात तक इन्हीं कामों में लिप्त रहते थे। चंदे का रजिस्टर हाथ में लिये उन्हें नित्यप्रति साँझ-सवेरे अमीरों और रईसों के द्वार पर खड़े देखना एक साधारण दृश्य था। धीरे-धीरे कितने ही युवक उनके भक्त हो गये। लोग कहते कितना निःस्वार्थ कितना आद
र्शवादी त्यागी जाति-सेवक है। कौन सुबह से शाम तक निःस्वार्थ भाव से केवल जनता का उपकार करने के लिए यों दौड़-धूप करेगा उनका आत्मोत्सर्ग प्रायः द्वेषियों को भी अनुरक्त कर देता था। उन्हें बहुधा रईसों की अभद्रता असज्जनता यहाँ तक कि उनके कटु शब्द भी सहने पड़ते थे। उन्हें अब विदित हो गया था कि जाति-सेवा बड़े अंशों तक केवल चंदे माँगना है। इसके लिए धनिकों की दरबारदारी या दूसरे शब्दों में खुशामद भी करनी पड़ती थी दर्शन के उस गौरवयुक्त अध्ययन और इस दानलोलुपता में कितना अंतर था कहाँ मिल और केंट स्पेन्सर और किड के साथ एकांत में बैठे हुए जीव और प्रकृति के गहन गूढ़ विषय पर वार्तालाप और कहाँ इन अभिमानी असभ्य मूर्ख व्यापारियों के सामने सिर झुकाना ! वह अंतःकरण में उनसे घृणा करते थे। वे धनी थे और केवल धन कमाना चाहते थे। इसके अतिरिक्त उनमें और कोई विशेष गुण न था। उनमें अधिकांश ऐसे थे जिन्होंने कपट-व्यवहार से धनोपार्जन किया था। पर गोपीनाथ के लिए वे सभी पूज्य थे क्योंकि उन्हीं की कृपादृष्टि पर उनकी राष्ट्र-सेवा अवलम्बित थी। इस प्रकार कई वर्ष व्यतीत हो गये। गोपीनाथ नगर के मान्य पुरुषों में गिने जाने लगे। वह दीनजनों के आधार और दुखियारों के मददगार थे। अब वह बहुत कुछ निर्भीक हो गये थे और कभी-कभी रईसों को भी कुमार्ग पर चलते देख कर फटकार दिया करते थे। उनकी तीव्र आलोचना भी अब चंदे जमा करने में उनकी सहायक हो जाती थी। अभी तक उनका विवाह न हुआ था। वह पहले ही से ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर चुके थे। विवाह करने से साफ़ इनकार किया। मगर जब पिता और अन्य बंधुजनों ने बहुत आग्रह किया और उन्होंने स्वयं कई विज्ञान-ग्रंथों में देखा कि इन्द्रिय-दमन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है तो असमंजस में पड़े। कई हफ्ते सोचते हो गये और वह मन में कोई बात पक्की न कर सके। स्वार्थ और परमार्थ में संघर्ष हो रहा था। विवाह का अर्थ था अपनी उदारता की हत्या करना अपने विस्तृत हृदय को संकुचित करना न कि राष्ट्र के लिए जीना। वह अब इतने ऊँचे आदर्श का त्याग करना निंद्य और उपहासजनक समझते थे। इसके अतिरिक्त अब वह अनेक कारणों से अपने को पारिवारिक जीवन के अयोग्य पाते थे। जीविका के लिए जिस उद्योगशीलता जिस अनवरत परिश्रम और जिस मनोवृत्ति की आवश्यकता है वह उनमें न रही थी। जाति-सेवा में भी उद्योगशीलता और अध्यवसाय की कम ज़रूरत न थी लेकिन उसमें आत्म-गौरव का हनन न होता था। परोपकार के लिए भिक्षा माँगना दान है अपने लिए पान का एक बीड़ा भी भिक्षा है। स्वभाव में एक प्रकार की स्वच्छंदता आ गयी थी। इन त्रुटियों पर परदा डालने के लिए जाति-सेवा का बहाना बहुत अच्छा था। गोपीनाथ ने दृढ़ता से कहा-मेरा इरादा विवाह करने का नहीं है। अमरनाथ-ऐसी भूल न करना। तुम अभी नवयुवक हो तुम्हें संसार का कुछ अनुभव नहीं है। मैंने ऐसी कितनी मिसालें देखी हैं जहाँ अविवाहित रहने से लाभ के बदले हानि ही हुई है। विवाह मनुष्य को सुमार्ग पर रखने का सबसे उत्तम साधन है जिसे अब तक मनुष्य ने आविष्कृत किया है। उस व्रत से क्या फ़ायदा जिसका परिणाम छिछोरापन हो। अमर-अभी तक कुछ नहीं। जी हिचकता है। कुछ न कुछ बदनामी तो होगी ही। गोपी-एक अध्यापक के लिए मैं इस पेशे को अपमान समझता हूँ। अमर-कोई पेशा ख़राब नहीं है अगर ईमानदारी से किया जाय। गोपी-यहाँ मेरा आपसे मतभेद है। कितने ही ऐसे व्यवसाय हैं जिन्हें एक सुशिक्षित व्यक्ति कभी स्वीकार नहीं कर सकता। मादक वस्तुओं का ठीका उनमें एक है। गोपीनाथ ने आ कर अपने पिता से कहा-मैं कदापि विवाह न करूँगा। आप लोग मुझे विवश न करें वरना पछताइएगा। अमरनाथ ने उसी दिन ठीके के लिए प्रार्थनापत्र भेज दिया और वह स्वीकृत भी हो गया। दो साल हो गये हैं। लाला गोपीनाथ ने एक कन्या-पाठशाला खोली है और उसके प्रबंधक हैं। शिक्षा की विभिन्न पद्धतियों का उन्होंने खूब अध्ययन किया है और इस पाठशाला में वह उनका व्यवहार कर रहे हैं। शहर में यह पाठशाला बहुत ही सर्वप्रिय है। उसने बहुत अंशों में उस उदासीनता का परिशोध कर दिया है जो माता-पिता को पुत्रियों की शिक्षा की ओर होती है। शहर के गण्यमान्य पुरुष अपनी लड़कियों को सहर्ष पढ़ने भेजते हैं। वहाँ की शिक्षा-शैली कुछ ऐसी मनोरंजक है कि बालिकाएँ एक बार जा कर मानो मंत्रमुग्ध हो जाती हैं। फिर उन्हें घर पर चैन नहीं मिलता। ऐसी व्यवस्था की गयी है कि तीन-चार वर्षों में ही कन्याओं का गृहस्थी के मुख्य कामों से परिचय हो जाय। सबसे बड़ी बात यह है कि यहाँ धर्म-शिक्षा का भी समुचित प्रबंध किया गया है। अबकी साल से प्रबंधक महोदय ने अँग्रेजी की कक्षाएँ भी खोल दी हैं। एक सुशिक्षित गुजराती महिला को बम्बई से बुला कर पाठशाला उनके हाथ में दे दी है। इन महिला का नाम है आनंदी बाई। विधवा हैं। हिंदी भाषा से भली-भाँति परिचित नहीं हैं किंतु गुजराती में कई पुस्तकें ल
िख चुकी हैं। कई कन्या-पाठशालाओं में काम कर चुकी हैं। शिक्षा-सम्बन्धी विषयों में अच्छी गति है। उनके आने से मदरसे में और भी रौनक आ गयी है। कई प्रतिष्ठित सज्जनों ने जो अपनी बालिकाओं को मंसूरी और नैनीताल भेजना चाहते थे अब उन्हें यहीं भरती करा दिया है। आनंदी रईसों के घरों में जाती हैं और स्त्रियों में शिक्षा का प्रचार करती हैं। उनके वस्त्रभूषणों से सुरुचि का बोध होता है। हैं भी उच्चकुल की इसलिए शहर में उनका बड़ा सम्मान होता है। लड़कियाँ उन पर जान देती हैं उन्हें माँ कह कर पुकारती हैं। गोपीनाथ पाठशाला की उन्नति देख-देख कर फूले नहीं समाते। जिससे मिलते हैं आनंदी बाई का ही गुणगान करते हैं। बाहर से कोई सुविख्यात पुरुष आता है तो उससे पाठशाला का निरीक्षण अवश्य कराते हैं। आनंदी की प्रशंसा से उन्हें वही आनंद प्राप्त होता है जो स्वयं अपनी प्रशंसा से होता। बाई जी को भी दर्शन से प्रेम है और सबसे बड़ी बात यह है कि उन्हें गोपीनाथ पर असीम श्रद्धा है। वह हृदय से उनका सम्मान करती हैं। उनके त्याग और निष्काम जाति-भक्ति ने उन्हें वशीभूत कर लिया है। वह मुँह पर उनकी बड़ाई नहीं करतीं पर रईसों के घरों में बड़े प्रेम से उनका यशोगान करती हैं। ऐसे सच्चे सेवक आजकल कहाँ लोग कीर्ति पर जान देते हैं। जो थोड़ी-बहुत सेवा करते हैं दिखावे के लिए। सच्ची लगन किसी में नहीं। मैं लाला जी को पुरुष नहीं देवता समझती हूँ। कितना सरल संतोषमय जीवन है। न कोई व्यसन न विलास। भोर से सायंकाल तक दौड़ते रहते हैं न खाने का कोई समय न सोने का समय। उस पर कोई ऐसा नहीं जो उनके आराम का ध्यान रखे। बेचारे घर गये जो कुछ किसी ने सामने रख दिया चुपके से खा लिया फिर छड़ी उठायी और किसी तरफ चल दिये। दूसरी औरत कदापि अपनी पत्नी की भाँति सेवा-सत्कार नहीं कर सकती। दशहरे के दिन थे। कन्या-पाठशाला में उत्सव मनाने की तैयारियाँ हो रही थीं। एक नाटक खेलने का निश्चय किया गया था। भवन खूब सजाया गया था। शहर के रईसों को निमंत्रण दिये गये थे। यह कहना कठिन है कि किसका उत्साह बढ़ा हुआ था बाई जी का या लाला गोपीनाथ का। गोपीनाथ सामग्रियाँ एकत्र कर रहे थे उन्हें अच्छे ढंग से सजाने का भार आनंदी ने लिया था नाटक भी इन्हीं ने रचा था। नित्यप्रति उसका अभ्यास कराती थीं और स्वयं एक पार्ट ले रखा था। विजयादशमी आ गयी। दोपहर तक गोपीनाथ फर्श और कुर्सियों का इंतजाम करते रहे। जब एक बज गया और अब भी वह वहाँ से न टले तो आनंदी ने कहा-लाला जी आपको भोजन करने को देर हो रही है। अब सब काम हो गया है। जो कुछ बच रहा है मुझ पर छोड़ दीजिए। गोपीनाथ ने कहा-खा लूँगा। मैं ठीक समय पर भोजन करने का पाबंद नहीं हूँ। फिर घर तक कौन जाय। घंटों लग जायेंगे। भोजन के उपरान्त आराम करने का जी चाहेगा। शाम हो जायगी। आनंदी-भोजन तो मेरे यहाँ तैयार है ब्राह्मणी ने बनाया है चल कर खा लीजिए और यहीं जरा देर आराम भी कर लीजिए। आनंदी-जब भोजन तैयार है तो उपवास क्यों कीजिएगा। गोपीनाथ-आप जायें आपको अवश्य देर हो रही है। मैं काम में ऐसा भूला कि आपकी सुधि ही न रही। गोपीनाथ-नहीं-नहीं इसकी क्या ज़रूरत है मैं आपसे सच कहता हूँ मैं बहुधा एक ही जून खाता हूँ। आनंदी-अच्छा मैं आपके इनकार का माने समझ गयी। इतनी मोटी बात अब तक मुझे न सूझी। गोपीनाथ-क्या समझ गयीं मैं छूतछात नहीं मानता। यह तो आपको मालूम ही है। आनंदी-इतना जानती हूँ किंतु जिस कारण से आप मेरे यहाँ भोजन करने से इनकार कर रहे हैं उसके विषय में केवल इतना निवेदन है कि मुझे आपसे केवल स्वामी और सेवक का सम्बन्ध नहीं है। मुझे आपसे आत्मीयता का सम्बन्ध है। आपका मेरे पान-फूल को अस्वीकार करना अपने एक सच्चे भक्त के मर्म को आघात पहुँचाना है। मैं आपको इसी दृष्टि से देखती हूँ। गोपीनाथ को अब कोई आपत्ति न हो सकी। जा कर भोजन कर लिया। वह जब तक आसन पर बैठे रहे आनंदी बैठी पंखा झलती रही। इस घटना की लाला गोपीनाथ के मित्रों ने यों आलोचना की महाशय जी अब तो वहीं ( वहीं पर खूब ज़ोर दे कर) भोजन भी करते हैं। शनैः-शनैः परदा हटने लगा। लाला गोपीनाथ को अब परवशता ने साहित्य-सेवी बना दिया था। घर से उन्हें आवश्यक सहायता मिल जाती थी किंतु पत्रों और पत्रिकाओं तथा अन्य अनेक कामों के लिए उन्हें घरवालों से कुछ माँगते हुए बहुत संकोच होता था। उनका आत्म-सम्मान जरा-जरा सी बातों के लिए भाइयों के सामने हाथ फैलाना अनुचित समझता था। वह अपनी ज़रूरतें आप पूरी करना चाहते थे। घर पर भाइयों के लड़के इतना कोलाहल मचाते कि उनका जी कुछ लिखने में न लगता। इसलिए जब उनकी कुछ लिखने की इच्छा होती तो बेखटके पाठशाला में चले जाते। आनंदी बाई वहीं रहती थीं। वहाँ न कोई शोर था न गुल। एकांत में काम करने में जी लगता। भोजन का समय आ जाता तो वहीं भोजन भी कर लेते। कुछ दिनों के बाद उन्हें बैठ कर लिखने में कुछ असुविधा ह
ोने लगी (आँखें कमज़ोर हो गयी थीं) तो आनंदी ने लिखने का भार अपने सिर ले लिया। लाला साहब बोलते थे आनंदी लिखती थीं। गोपीनाथ की प्रेरणा से उन्होंने हिंदी सीखी थी और थोड़े ही दिनों में इतनी अभ्यस्त हो गयी थीं कि लिखने में जरा भी हिचक न होती। लिखते समय कभी-कभी उन्हें ऐसे शब्द और मुहावरे सूझ जाते कि गोपीनाथ फड़क-फड़क उठते उनके लेख में जान-सी पड़ जाती। वह कहते यदि तुम स्वयं कुछ लिखो तो मुझसे बहुत अच्छा लिखोगी। मैं तो बेगारी करता हूँ। तुम्हें परमात्मा की ओर से यह शक्ति करता हुई है। नगर के लाल-बुझक्कड़ों में इस सहकारिता पर टीका-टिप्पणियाँ होने लगी पर विद्वज्जन अपनी आत्मा की शुचिता के सामने ईर्ष्या के व्यंग्य की कब परवाह करते हैं। आनंदी कहतीं-यह तो संसार है जिसके मन में आये कहे पर मैं उस पुरुष का निरादर नहीं कर सकती जिस पर मेरी श्रद्धा है। पर गोपीनाथ इतने निर्भीक न थे। उनकी सुकीर्ति का आधार लोकमत था। वह उसकी भर्त्सना न कर सकते थे। इसलिए वह दिन के बदले रात को रचना करने लगे। पाठशाला में इस समय कोई देखनेवाला न होता था। रात की नीरवता में खूब जी लगता। आराम-कुरसी पर लेट जाते। आनंदी मेज के सामने कलम हाथ में लिये उनकी ओर देखा करतीं। जो कुछ उनके मुख से निकलता तुरंत लिख लेतीं। उनकी आँखों से विनय और शील श्रद्धा और प्रेम की किरण-सी निकलती हुई जान पड़ती। गोपीनाथ जब किसी भाव को मन में व्यक्त करने के बाद आनंदी की ओर ताकते कि वह लिखने के लिए तैयार हैं या नहीं तो दोनों व्यक्तियों की निगाहें मिलतीं और आप ही झुक जातीं। गोपीनाथ को इस तरह काम करने की ऐसी आदत पड़ती जाती थी कि जब किसी कार्यवश यहाँ आने का अवसर न मिलता तो वह विकल हो जाते थे। मिश्राइन ने कहा-जी हाँ दो बार आये थे। दवा दे गये हैं। गोपीनाथ ने नुसखा देखा। डाक्टरी का साधारण ज्ञान था। नुसखे से ज्ञात हुआ-हृदयरोग है। औषधियाँ सभी पुष्टिकर और बलवर्द्धक थीं। आनंदी की ओर फिर देखा। उसकी आँखों से अश्रुधारा बह रही थी। उनका गला भी भर आया। हृदय मसोसने लगा। गद्गद हो कर बोले-आनंदी तुमने मुझे पहले इसकी सूचना न दी नहीं तो रोग इतना न बढ़ने पाता। आनंदी-कोई बात नहीं है अच्छी हो जाऊँगी जल्दी ही अच्छी हो जाऊँगी। मर भी जाऊँगी तो कौन रोनेवाला बैठा हुआ है। यह कहते-कहते वह फूट-फूट कर रोने लगी। गोपीनाथ-इन दो महीनों में मेरी जो दशा थी वह मैं ही जानता हूँ। यही समझ लो कि मैंने आत्महत्या नहीं की यही बड़ा आश्चर्य है। मैंने न समझा था कि अपने व्रत पर स्थिर रहना मेरे लिए इतना कठिन हो जायगा। आनंदी-कुछ भी हो ! गोपी.-कुछ भी हो ! अपमान निंदा उपहास आत्मवेदना। आनंदी-कुछ भी हो मैं सब कुछ सह सकती हूँ और आपको भी मेरे हेतु सहना पड़ेगा। गोपी.-आनंदी मैं अपने को प्रेम पर बलिदान कर सकता हूँ लेकिन अपने नाम को नहीं। इस नाम को अकलंकित रखकर मैं समाज की बहुत कुछ सेवा कर सकता हूँ। आनंदी-संभव है। मेरे लिए संभव है। मैं प्रेम पर अपनी आत्मा को भी न्योछावर कर सकती हूँ। इसके पश्चात् लाला गोपीनाथ ने आनंदी की बुराई करनी शुरू की। मित्रों से कहते उनका जी अब काम में नहीं लगता। पहले की-सी तनदेही नहीं है। किसी से कहते उनका जी अब यहाँ से उचाट हो गया है अपने घर जाना चाहती हैं उनकी इच्छा है कि मुझे प्रतिवर्ष तरक़्क़ी मिला करे और उसकी यहाँ गुंजाइश नहीं। पाठशाला को कई बार देखा और अपनी आलोचना में काम को असंतोषजनक लिखा। शिक्षा संगठन उत्साह सुप्रबंध सभी बातों में निराशाजनक क्षति पायी। वार्षिक अधिवेशन में जब कई सदस्यों ने आनंदी की वेतन-वृद्धि का प्रस्ताव उपस्थित किया तो लाला गोपीनाथ ने उसका विरोध किया। उधर आनंदी बाई भी गोपीनाथ के दुखड़े रोने लगी। यह मनुष्य नहीं है पत्थर का देवता है। उन्हें प्रसन्न करना दुस्तर है अच्छा ही हुआ कि उन्होंने विवाह नहीं किया नहीं तो दुखिया इनके नखरे उठाते-उठाते सिधार जाती। कहाँ तक कोई सफाई और सुप्रबंध पर ध्यान दे ! दीवार पर एक धब्बा भी पड़ गया किसी कोने-खुतरे में एक जाला भी लग गया बरामदों में काग़ज़ का एक टुकड़ा भी पड़ा मिल गया तो आपके तीवर बदल जाते हैं। दो साल मैंने ज्यों-त्यों करके निबाहा लेकिन देखती हूँ तो लाला साहब की निगाह दिनोंदिन कड़ी होती जाती है। ऐसी दशा में मैं यहाँ अधिक नहीं ठहर सकती। मेरे लिए नौकरी में कल्याण नहीं है जब जी चाहेगा उठ खड़ी हूँगी। यहाँ आप लोगों से मेल-मुहब्बत हो गयी है कन्याओं से ऐसा प्यार हो गया है कि छोड़ कर जाने को जी नहीं चाहता। आश्चर्य था कि और किसी को पाठशाला की दशा में अवनति न दीखती थी वरन् हालत पहले से अच्छी थी। गोपी-कुछ न पूछिए। दिनोंदिन दशा गिरती जाती है। गोपी-जी हाँ सरासर। अब काम करने में उनका जी नहीं लगता। बैठी हुई योग और ज्ञान के ग्रन्थ पढ़ा करती हैं। कुछ कहता हूँ तो कहती हैं मैं अब इससे और अधिक कुछ नहीं कर सक
ती। कुछ परलोक की भी चिन्ता करूँ कि चौबीसों घंटे पेट के धंधों में ही लगी रहूँ पेट के लिए पाँच घंटे बहुत हैं। पहले कुछ दिनों तक बारह घण्टे करती पर वह दशा स्थायी नहीं रह सकती थी। यहाँ आ कर मैंने स्वास्थ्य खो दिया। एक बार कठिन रोगग्रस्त हो गयी। क्या कमेटी ने मेरे दवा-दर्पन का खर्च दे दिया कोई बात पूछने भी आया फिर अपनी जान क्यों दूँ सुना है घरों में मेरी बदगोई भी किया करती हैं। अमरनाथ मार्मिक भाव से बोले-ये बातें मुझे पहले ही मालूम थीं। दो साल और गुजर गये। रात का समय था। कन्या-पाठशाला के ऊपर वाले कमरे में लाला गोपीनाथ मेज के सामने कुरसी पर बैठे हुए थे सामने आनंदी कोच पर लेटी हुई थी। मुख बहुत म्लान हो रहा था। कई मिनट तक दोनों विचार में मग्न थे। अंत में गोपीनाथ बोले-मैंने पहले ही महीने में तुमसे कहा था कि मथुरा चली जाओ। आनंदी-वहाँ दस महीने क्योंकर रहती। मेरे पास इतने रुपये कहाँ थे और न तुम्हीं ने कोई प्रबन्ध करने का आश्वासन दिया। मैंने सोचा तीन-चार महीने यहाँ और रहूँ। तब तक किफायत करके कुछ बचा लूँगी तुम्हारी किताब से भी कुछ मिल जायेंगे। तब मथुरा चली जाऊँगी मगर यह क्या मालूम था कि बीमारी भी इसी अवसर की ताक में बैठी हुई है। मेरी दशा दो-चार दिन के लिए भी सँभली और मैं चली। इस दशा में तो मेरे लिए यात्र करना असम्भव है। गोपी-मुझे भय है कि कहीं बीमारी तूल न खींचे। संग्रहणी असाध्य रोग है। महीने-दो महीने यहाँ और रहने पड़ गये तो बात खुल जायगी। गोपी-मैं भी न डरता अगर मेरे कारण नगर की कई संस्थाओं का जीवन संकट में न पड़ जाता। इसलिए मैं बदनामी से डरता हूँ। समाज के यह बन्धन निरे पाखंड हैं। मैं उन्हें सम्पूर्णतः अन्याय समझता हूँ। इस विषय में तुम मेरे विचारों को भली-भाँति जानती हो पर करूँ क्या दुर्भाग्यवश मैंने जाति-सेवा का भार अपने ऊपर ले लिया है और उसी का फल है कि आज मुझे अपने माने हुए सिद्धांतों को तोड़ना पड़ रहा है और जो वस्तु मुझे प्राणों से भी प्रिय है उसे यों निर्वासित करना पड़ रहा है। किन्तु आनंदी की दशा सँभलने की जगह दिनोंदिन गिरती ही गयी। कमज़ोरी से उठना-बैठना कठिन हो गया था। किसी वैद्य या डाक्टर को उसकी अवस्था न दिखायी जाती थी। गोपीनाथ दवाएँ लाते थे आनंदी उनका सेवन करती थी और दिन-दिन निर्बल होती जाती थी। पाठशाला से उसने छुट्टी ले ली थी। किसी से मिलती-जुलती भी न थी। बार-बार चेष्टा करती कि मथुरा चली जाऊँ किन्तु एक अनजान नगर में अकेले कैसे रहूँगी न कोई आगे न पीछे। कोई एक घूँट पानी देनेवाला भी नहीं। यह सब सोचकर उसकी हिम्मत टूट जाती थी। इसी सोच-विचार और हैस-बैस में दो महीने और गुजर गये और अन्त में विवश होकर आनंदी ने निश्चय किया कि अब चाहे कुछ सिर पर बीते यहाँ से चल ही दूँ। अगर सफर में मर भी जाऊँगी तो क्या चिन्ता है। उनकी बदनामी तो न होगी। उनके यश को कलंक तो न लगेगा। मेरे पीछे ताने तो न सुनने पड़ेंगे। सफर की तैयारियाँ करने लगी। रात को जाने का मुहूर्त था कि सहसा संध्याकाल से ही प्रसवपीड़ा होने लगी और ग्यारह बजते-बजते एक नन्हा-सा दुर्बल सतवाँसा बालक प्रसव हुआ। बच्चे के होने की आवाज़ सुनते ही लाला गोपीनाथ बेतहाशा ऊपर से उतरे और गिरते-पड़ते घर भागे। आनंदी ने इस भेद को अंत तक छिपाये रखा अपनी दारुण प्रसवपीड़ा का हाल किसी से न कहा। दाई को भी सूचना न दी मगर जब बच्चे के रोने की ध्वनि मदरसे में गूँजी तो क्षणमात्र में दाई सामने आ कर खड़ी हो गयी। नौकरानियों को पहले से शंकाएँ थीं। उन्हें कोई आश्चर्य न हुआ। जब दाई ने आनंदी को पुकारा तो वह सचेत हो गयी। देखा तो बालक रो रहा है। दूसरे दिन दस बजते-बजते यह समाचार सारे शहर में फैल गया। घर-घर चर्चा होने लगी। कोई आश्चर्य करता था कोई घृणा करता कोई हँसी उड़ाता था। लाला गोपीनाथ के छिद्रान्वेषियों की संख्या कम न थी। पंडित अमरनाथ उनके मुखिया थे। उन लोगों ने लाला जी की निंदा करनी शुरू की। जहाँ देखिए वहीं दो-चार सज्जन बैठे गोपनीय भाव से इसी घटना की आलोचना करते नजर आते थे। कोई कहता था इस स्त्री के लक्षण पहले ही से विदित हो रहे थे। अधिकांश आदमियों की राय में गोपीनाथ ने यह बुरा किया। यदि ऐसा ही प्रेम ने ज़ोर मारा था तो उन्हें निडर हो कर विवाह कर लेना चाहिए था। यह काम गोपीनाथ का है इसमें किसी को भ्रम न था। केवल कुशल-समाचार पूछने के बहाने से लोग उनके घर जाते और दो-चार अन्योक्तियाँ सुना कर चले आते थे। इसके विरुद्ध आनंदी पर लोगों को दया आती थी। पर लाला जी के ऐसे भक्त भी थे जो लाला जी के माथे यह कलंक मढ़ना पाप समझते थे। गोपीनाथ ने स्वयं मौन धारण कर लिया था। सबकी भली-बुरी बातें सुनते थे पर मुँह न खोलते थे। इतनी हिम्मत न थी कि सबसे मिलना छोड़ दें। प्रश्न था अब क्या हो आनंदी बाई के विषय में तो जनता ने फैसला कर दिया। बहस यह थी कि गोपीनाथ
के साथ क्या व्यवहार किया जाय। कोई कहता था उन्होंने जो कुकर्म किया है उसका फल भोगें। आनंदी बाई को नियमित रूप से घर में रखें। कोई कहता हमें इससे क्या मतलब आनंदी जानें और वह जानें। दोनों जैसे के तैसे हैं जैसे उदई वैसे भान न उनके चोटी न उनके कान। लेकिन इन महाशय को पाठशाला के अंदर अब क़दम न रखने देना चाहिए। जनता के फैसले साक्षी नहीं खोजते। अनुमान ही उनके लिए सबसे बड़ी गवाही है। लेकिन पं. अमरनाथ और उनकी गोष्ठी के लोग गोपीनाथ को इतने सस्ते न छोड़ना चाहते थे। उन्हें गोपीनाथ से पुराना द्वेष था। यह कल का लौंडा दर्शन की दो-चार पुस्तकें उलट-पलट कर राजनीति में कुछ शुदबुद करके लीडर बना हुआ बिचरे सुनहरी ऐनक लगाये रेशमी चादर गले में डाले यों गर्व से ताके मानो सत्य और प्रेम का पुतला है। ऐसे रँगे सियार की जितनी कलई खोली जाय उतना ही अच्छा। जाति को ऐसे दगाबाज चरित्रहीन दुर्बलात्मा सेवकों से सचेत कर देना चाहिए। पंडित अमरनाथ पाठशाला की अध्यापिकाओं और नौकरों से तहकीकात करते थे। लाला जी कब आते थे कब जाते थे कितनी देर रहते थे यहाँ क्या किया करते थे तुम लोग उनकी उपस्थिति में वहाँ जाने पाते थे या रोक थी लेकिन यह छोटे-छोटे आदमी जिन्हें गोपीनाथ से संतुष्ट रहने का कोई कारण न था (उनकी सख्ती की नौकर लोग बहुत शिकायत किया करते थे) इस दुरवस्था में उनके ऐबों पर परदा डालने लगे। अमरनाथ ने प्रलोभन दिया डराया धमकाया पर किसी ने गोपीनाथ के विरुद्ध साक्षी न दी। उधर लाला गोपीनाथ ने उसी दिन से आनन्दी के घर आना-जाना छोड़ दिया। दो हफ्ते तक तो वह अभागिनी किसी तरह कन्या पाठशाला में रही। पन्द्रहवें दिन प्रबन्धक समिति ने उसे मकान ख़ाली कर देने की नोटिस दे दी। महीने भर की मुहलत देना भी उचित न समझा। अब वह दुखिया एक तंग मकान में रहती थी कोई पूछनेवाला न था। बच्चा कमज़ोर खुद बीमार कोई आगे न पीछे न कोई दुःख का संगी न साथी। शिशु को गोद में लिये दिन के दिन बेदाना-पानी पड़ी रहती थी। एक बुढ़िया महरी मिल गयी थी जो बर्तन धो कर चली जाती थी। कभी-कभी शिशु को छाती से लगाये रात की रात रह जाती पर धन्य है उसके धैर्य और संतोष को ! लाला गोपीनाथ से मुँह में शिकायत थी न दिल में। सोचती इन परिस्थितियों में उन्हें मुझसे पराङ्मुख ही रहना चाहिए। इसके अतिरिक्त और उपाय नहीं है। उनके बदनाम होने से नगर की कितनी बड़ी हानि होती। सभी उन पर सन्देह करते हैं पर किसी को यह साहस तो नहीं हो सकता कि उनके विपक्ष में कोई प्रमाण दे सके ! यह सोचते हुए उसने स्वामी अभेदानंद की एक पुस्तक उठायी और उसके एक अध्याय का अनुवाद करने लगी। अब उसकी जीविका का एकमात्र यही आधार था। सहसा धीरे से किसी ने द्वार खटखटाया। वह चौंक पड़ी। लाला गोपीनाथ की आवाज़ मालूम हुई। उसने तुरंत द्वार खोल दिया। गोपीनाथ आकर खड़े हो गये और सोते हुए बालक को प्यार से देखकर बोले-आनंदी मैं तुम्हें मुँह दिखाने लायक़ नहीं हूँ। मैं अपनी भीरुता और नैतिक दुर्बलता पर अत्यंत लज्जित हूँ। यद्यपि मैं जानता हूँ कि मेरी बदनामी जो कुछ होनी थी वह हो चुकी। मेरे नाम से चलने वाली संस्थाओं को जो हानि पहुँचनी थी पहुँच चुकी। अब असम्भव है कि मैं जनता को अपना मुँह फिर दिखाऊँ और न वह मुझ पर विश्वास ही कर सकती है। इतना जानते हुए भी मुझमें इतना साहस नहीं है कि अपने कुकृत्य का भार सिर ले लूँ। मैं पहले सामाजिक शासन की रत्ती भर परवाह न करता पर अब पग-पग पर उसके भय से मेरे प्राण तक काँपने लगते हैं। धिक्कार है मुझ पर कि तुम्हारे ऊपर ऐसी विपत्तियाँ पड़ीं लोकनिंदा रोग शोक निर्धनता सभी का सामना करना पड़ा और मैं यों अलग-अलग रहा मानो मुझसे कोई प्रयोजन नहीं है पर मेरा हृदय ही जानता है कि उसको कितनी पीड़ा होती थी। कितनी ही बार आने का निश्चय किया और फिर हिम्मत हार गया। अब मुझे विदित हो गया कि मेरी सारी दार्शनिकता केवल हाथी के दाँत थी। मुझमें क्रिया-शक्ति नहीं है लेकिन इसके साथ ही तुमसे अलग रहना मेरे लिए असह्य है। तुमसे दूर रह कर मैं ज़िन्दा नहीं रह सकता प्यारे बच्चे को देखने के लिए मैं कितनी ही बार लालायित हो गया हूँ पर यह आशा कैसे करूँ कि मेरी चरित्रहीनता का ऐसा प्रत्यक्ष प्रमाण पाने के बाद तुम्हें मुझसे घृणा न हो गयी होगी। आनंदी-स्वामी आपके मन में ऐसी बातों का आना मुझ पर घोर अन्याय है। मैं ऐसी बुद्धिहीन नहीं हूँ कि केवल अपने स्वार्थ के लिए आपको कलंकित करूँ। मैं आपको अपना इष्टदेव समझती हूँ और सदैव समझूँगी। मैं भी अब आपके वियोग-दुःख को नहीं सह सकती। कभी-कभी आपके दर्शन पाती रहूँ यही जीवन की सबसे बड़ी अभिलाषा है। इस घटना को पंद्रह वर्ष बीत गये हैं। लाला गोपीनाथ नित्य बारह बजे रात को आनंदी के साथ बैठे हुए नजर आते हैं। वह नाम पर मरते हैं आनंदी प्रेम पर। बदनाम दोनों हैं लेकिन आनंदी के साथ लोगों की सहानुभूति
है गोपीनाथ सबकी निगाह से गिर गये हैं। हाँ उनके कुछ आत्मीयगण इस घटना को केवल मानुषीय समझ कर अब भी उनका सम्मान करते हैं किंतु जनता इतनी सहिष्णु नहीं है।
चलना तथा उनमें संतुलन बनाए रखना ही जीवन है। ऐसा जीवन जियो, जिसमें विवेक के साथ-साथ दया भी हो, व्यावहारिकता के साथ-साथ स्वाभाविकता भी हो, साहसिकता के साथ-साथ संवेदनशीलता भी हो, उत्तरदायित्व के साथ-साथ भावुकता भी हो। ऐसा संतुलन स्थापित करने में पर्याप्त समय और श्रम लगता है। मैं स्वयं अभी इसके लिए मेहनत कर रहा हूँ। लेकिन धैर्य और लगन से सब हो जाता है।" "मैं अपने हृदय को कैसे खोलूँ, उसमें कैसे प्रवेश करूँ, मो? मैं वास्तव में अपने जीवन के आनंद को खोजना चाहता हूँ, और अधिक प्रसन्नता के साथ जीना चाहता हूँ।" मैंने कहा, "मेरा अभिप्राय यह है कि मेरा हृदय जब खुल जाएगा, विकसित हो जाएगा, तभी मेरा जीवन भी विकसित होगा - जैसा अभी आपने कहा; लेकिन हृदय को खोलने की बात मेरे लिए वैसे ही है जैसे आप मुझे हवाइयन भाषा में बात करने के लिए कहें। मुझे नहीं पता, कहाँ से शुरू करूँ।" "मैं तुम्हारी बात समझ रहा हूँ।" मो ने सहानुभूतिपूर्वक कहा, "अपने मार्ग पर चलते हुए मैं भी ऐसे ही अनुभव से गुजरा था, इसीलिए मैं तुम्हारे लिए एक पूर्ण प्रशिक्षक हूँ। हम वही चीज (दूसरों को) सिखाते हैं, जिसे सीखने की हमें सबसे ज्यादा जरूरत होती है; मेरे जीवन का सबसे बड़ा सबक अपने हृदय के उपहारों को अपने लिए सुप्राप्य बनाना रहा है। मैंने इतना कुछ सीख लिया है कि मैं तुम्हें सिखा सकूँ। मुझे एक कहानी याद आ रही है, जो हृदय से संबंधित है। कहो तो सुनाऊँ?" "हाँ, सुनाइए।" "कई हजार वर्ष पहले पूर्व में लोगों का मानना था कि पृथ्वी पर रहने वाला हर मनुष्य एक देवता है। लेकिन मनुष्य ने अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करना शुरू कर दिया; इसलिए परमेश्वर ने उससे सारी शक्तियाँ वापस लेने का फैसला कर लिया। अब प्रश्न उठा कि देवत्व को कहाँ छिपाया जाए, जो सब मानवीय गुणों, संभाव्यताओं और गौरव का स्रोत है। परमेश्वर के एक सलाहकार ने कहा, 'जमीन में गड्ढा खोदकर देवत्व को उसमें क्यों न छिपा दिया जाए!" "नहीं 'परमेश्वर ने कहा, 'कोई खोलकर निकाल लेगा।' तब दूसरा सलाहकार बोला, 'मेरे पास एक युक्ति है। सब मानवीय शक्ति के इस स्रोत को क्यों न पहाड़ की चोटी पर रख दिया जाए?' परमेश्वर ने इस बार भी अस्वीकार कर दिया, 'नहीं, कोई वहाँ तक पहुँच जाएगा और पा जाएगा।' अंत में तीसरे सलाहकार ने कहा, 'इस देवत्व को अगर दुनिया के सबसे गहरे महासागर में रख दिया जाए तो?' परमेश्वर को यह युक्ति भी ठीक नहीं लगी। उन्होंने कहा, 'नहीं, कोई महासागर में गोता लगाकर ढूँढ़ लेगा।' इतना कहने के बाद परमेश्वर थोड़ी देर तक चुपचाप कुछ सोचते रहे, फिर बोले, 'मेरे पास एक हल है। असाधारण शक्ति, प्रभावशीलता और गौरव के इस स्रोत को मैं हर स्त्री, पुरुष और बच्चे के हृदय के भीतर डाल दूँगा। वहाँ कोई देख नहीं पाएगा।' "बहुत अच्छी कहानी है।" मैं बोल पड़ा। "हाँ जैक, तुम्हारे हृदय में तुम्हारी अपेक्षा से कहीं अधिक ज्ञान है। तुम ऐसा सोच सकते हो कि तुम्हारे मस्तिष्क में सभी सवालों का उत्तर है - अगर तुम ज्यादा सोच सको तो ज्यादा प्राप्त भी कर सकते हो। तुम्हें ऐसा लगता होगा कि अगर तुम और ज्यादा जानकारी एवं कौशल प्राप्त कर सकते तो जीवन में सफल हो जाते। तुम यह भी सोचते होगे कि अगर तुम अपने जीवन के दोषों को जान पाते तो उन्हें दूर भी कर लेते। लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता।" "मुझे अपने हृदय के भीतर थोड़ी और गहराई में जाना होगा," मैंने अनुमान लगाया। "बहुत गहराई में।" मो ने सहज स्वर में कहा, "लेकिन आराम से। मस्तिष्क से हृदय तक का रास्ता छोटा नहीं है। इसमें तुम्हें सप्ताह, महीने या साल भी लग सकते हैं। बस, सही रास्ते पर पहुँच जाओ।" "लेकिन कैसे?" "अब तुम सही रास्ते पर हो।" मो ने कहा, "इतना साहस करके तुम यहाँ आए और मुझसे मिले, इसी से पता चल जाता है कि तुम्हारा चेतन मन तुम्हारे टूटे हृदय के उपचार के लिए तैयार है।" मेरे टूटे हृदय की बात करते हुए मो क्या कहना चाहता था, मैं जानता था। मेरा मानना है कि इस दुनिया में हर किसी का हृदय कभी-न-कभी टूटता है। यहाँ टूटे हृदय से मेरा अभिप्राय उस संदर्भ में नहीं है, जब हम अपने किसी प्रिय जन को खो देते हैं, जिससे हम प्यार करते हैं। मेरा संकेत उस स्थिति की ओर है, जब हमें यह अहसास होने लगता है कि हमारे सपने टूट गए या हमारी इच्छाएँ अधूरी रह गईं, जब हम अपनी दुनिया की मौजूदा स्थिति को देखते हैं और उसे चलानेवाले अपूर्ण प्रेम से युक्त मूल्यों को देखते हैं और जब हम स्वयं अपने भाग्य को हीन बना लेते हैं। मुझे बेंजामिन डिजराइली के ये शब्द याद आ रहे थे -'जीवन इतना छोटा है कि उसे थोड़ा नहीं माना जा सकता।' "यह समुद्री तट तुम्हारे जीवन की तरह है, जैक।" मो ने आगे कहा, "जीवन कई अर्थों में एक तट की तरह ही होता है। यह एक ऐसी यात्रा है, जिसमें रेतीले, पथरीले, सीधे और टेढ़े-मेढ़े सभी तरह क
े रास्तों से गुजरना पड़ता है। कभी-कभी सुबह उठने पर समुद्र की तीव्र लहरों को देखकर तुम्हें समुद्र की भयानकता का आभास होता है, तो कभी-कभी समुद्र बिलकुल शांत दिखाई देता है। इस तट पर खुले में अपना जीवन बिताते हुए मैंने जान लिया है कि जीवन के नियम वास्तव में प्रकृति के नियमों से अलग नहीं हैं। प्रकृति की कार्य व्यवस्था का अध्ययन करके तुम जीवन की कार्य-व्यवस्था को समझ सकते हो।" फादर माइक से यह बात भी मुझे सीखने को मिली थी। "मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूँ।" मो ने कहा, "इस तट पर खुले में रहते हुए मैंने कई रातें बिताई हैं। कभी-कभी तो मैं पूरी-पूरी रात जागकर बिता देता हूँ, गहरी साँसें भरते हुए और इस स्थान की महिमा के बारे में सोचते हुए कि किस प्रकार रात के घोर अंधकार के ठीक बाद सुबह आती है - इसके बारे में हमेशा सोचा करता हँू। हमारे जीवन के साथ भी ऐसा ही है। हम सभी को रात्रि के अंधकार का सामना करना पड़ता है, लेकिन रात्रि बीत जाती है और पुनः दिन हो जाता है। दरअसल, समस्या की चरम स्थिति के ठीक पीछे उसका हल छिपा होता है, यानी दुःख की चरम स्थिति पार कर लेने के बाद ही सुख की शुरुआत होती है।" जीवन के बारे में इससे पहले मैंने ऐसा कभी नहीं सोचा था। मो का ज्ञान और शिक्षाएँ भी फादर माइक की शिक्षाओं की तरह ही थीं। दोनों ने ही दुनिया की असाधारण बुद्धिमत्ता की बातें की थीं। दोनों का मानना था कि इस दुनिया में प्रत्येक मनुष्य का जीवन एक पूर्व निर्धारित व्यवस्था के अनुसार आगे बढ़ता है, और यहाँ जो कुछ भी होता है, उसके पीछे कोई-न-कोई कारण अवश्य होता है; और जीवन स्वयं में एक सुंदर चमत्कारक उपहार है। "अब मैं तुम्हें कुछ व्यावहारिक ज्ञान देता हूँ, जैक। अपने हृदय के साथ स्वयं को पुनः जोड़ने के लिए एक तो तुम अपने उन सवालों को जगा सकते हो, जो तुम्हारे भीतर निष्क्रिय पड़े हैं। उन चीजों को शुरू कर दो, जो पहले कभी तुम्हारे विशाल हृदय में भरी रहती थीं। कुछ ऐसा करो कि तुम्हारे भीतर का शिशु खिलखिला उठे, खूब हँसे । उन चीजों का पता लगाओ, जो तुम्हें पिघलाकर तुम्हारी आँखों में आँसू लाती हैं। आखिर जिस स्थिति में तुम्हारी आँखों में आँसू आते हैं, उसी स्थिति में दुनिया तुम्हें चाहती है।" "मैं सोच रहा हूँ कि यह बात समझने में मुझे इतना समय क्यों लग गया कि मैं जीवन के प्रेम की अनुभूति के लिए तैयार हूँ। सच कहूँ मो, इतने वर्षों बाद मुझे यह बात समझ में आई, इसका मुझे दुःख हो रहा है।" मैंने कहा और रेत में देखने लगा। मन में पश्चात्ताप का भाव उठने लगा था।" "स्वयं को कमजोर मत करो, जैक। मैंने तुम्हें पहले भी बताया कि तुम वहीं हो, जहाँ तुम्हें होना चाहिए। तर्क-वितर्क छोड़कर अपनी वर्तमान स्थिति का आनंद लो। जीवन-यात्रा के मार्ग में अब जो कुछ हुआ, वह सब होना ही था। सच्चाई को स्वीकार करना जरूरी है। यह तुम्हारे जीवन का एक खास समय है। इसे बचा लो। तुम्हें तुम्हारा भौतिक (असली) जीवन वापस मिल रहा है।" बोलते-बोलते अचानक ही मो हँसने लगा। "अब तुम्हारे जीवन में मौज-मस्ती का समय फिर से आ गया है।" उसने कहा, "बचपन में मेरे माँ-बाप कहा करते थे कि मेरी आँखें चमकती हैं। वे कहते थे कि मेरी आँखों में सचमुच एक चमक है। उनकी बातों का अर्थ अब मुझे समझ में आता है - खेलते हुए बच्चे की आँखों में चमक होती ही है।" "हाँ, मैं भी बचपन में बहुत चंचल था।" "मैं चाहता हूँ कि तुम वही चमक फिर से प्राप्त करो। ऐसा कर लेने पर तुम्हारा हृदय और भी खुल जाएगा तथा सत्य का बोध तुम्हें करा देगा।" "मैं यही चाहता हूँ, मो।" "और यही होगा भी। मेरी सलाह है कि तुम वही काम फिर शुरू कर दो, जिनसे तुम्हें सबसे ज्यादा खुशी मिलती थी । जिन चीजों से तुम्हारे मन और हृदय में संगीत की लहर दौड़ पड़ती थी, वही चीजें फिर शुरू कर दो। जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं, उन चीजों को भूलते जाते हैं, जो हमें खुशियाँ देती थीं।" "मुझे तो याद भी नहीं है कि बचपन में मेरे क्या शौक थे।" मैंने कहा "कोई बात नहीं। जब तुम उन्हें याद करना, ढूँढ़ना शुरू कर दोगे तो वे स्वयं ही तुम्हारे पास आ जाएँगी।" मो ने मुझे आश्वस्त करते हुए कहा, "स्वयं से प्रश्न करो, क्योंकि आत्मजिज्ञासा से बहुत सारे प्रश्नों का उत्तर मिल जाता है। स्वयं से प्रश्न करो - अतीत में कौन सी ऐसी बातें थीं, जो मुझे अच्छी लगती थीं? या अगर मुझे कोई काम न करना पड़े तो मैं अपना समय कैसे बिताऊँगा? मैं यह भी कहूँगा कि तुम खूब सुनना ही शुरू कर दो।" "क्या सुनना?" "अपनी आंतरिक आवाजों को, जैक। अपने भीतर यानी अंतर्मन की आवाज पर ज्यादा ध्यान दो। ये आवाजें तुम्हें पुकार रही हैं, उन्हें सुनो। बचपन में तुम उन्हें जानते और सुनते थे, अब बड़े होकर भी उन्हें जानो और सुनो।" "इस तरह की चीजों से मैं इतना दूर हो गया हूँ कि मुझे लगता है,
अपने इस आंतरिक मार्ग से मैं अपना संपर्क ही खो बैठा हूँ। मैं जानता हूँ कि भीतर से मैं बंद हो चुका हूँ और पूरी तरह से अपने मस्तिष्क के अनुसार चलता हूँ; लेकिन जिन आंतरिक आवाजों की आप बात कर रहे हैं, उन्हें मैं सुनना चाहता हूँ।" "बहुत अच्छा!" मो ने कहा, "तुम्हारा यह संकल्प एक बड़ा कदम है - अपने हृदय, अपने अंतर्मन को खोलने और उसके उपहारों का लाभ उठाने की ओर। यह संकल्प इस ब्रह्मांड में उठनेवाली विशाल तरंगों की तरह है, जो आवश्यक रूप से सुंदर वर्तमान लेकर आती हैं। बस, देखते-सुनते रहो।" "जैक, ध्यान रहे कि जीवन के शांत क्षणों में हमारा हृदय हमसे बात करता है। एकांत में बैठकर उसका चिंतन करो और विश्वास करो, एक समय ऐसा आएगा, जब वे सारे परिवर्तन तुम्हारे सामने होंगे, जिनकी तुम आशा करते हो।" "ब्रह्मांड एक मित्र स्थान है।" अपनी जीवन-यात्रा का सार्वकालिक मंत्र दोहराते हुए मैंने कहा। "तुम समझ गए, भाई। यह विश्वास करो कि यह सब ठीक-ठीक कार्य करेगा और फिर तुम्हारा नया यथार्थ स्वयं तुम्हारे पास आने लगेगा। कई वर्षों पहले सूफी कवि रूमी ने कुछ ऐसी ही बात कही थी ' (अपने हृदय का) दरवाजा खटखटाते रहो, अंततः तुम्हारे भीतर का आनंद स्वयं यह देखने के लिए बाहर आ जाएगा कि बाहर कौन है। तुम्हारे अंतर्मन से निकलनेवाली ये आवाजें हैं। ये तुम्हारी संभाव्यता की ओर ले जानेवाली हैं। जीवन के रहस्य में बने रहने का साहस जुटाओ और फिर देखो, किस तरह तुम जीवन-पथ पर सफलतापूर्वक आगे बढ़ते जाते हो।" "रहस्य में बना रहूँ? बड़ी सफाई से कह दिया आपने, मो।" "हाँ, जीवन में मैंने देखा है कि यहाँ जिस चीज को तुम वास्तव में महत्त्वपूर्ण मान सकते हो, वह अप्रत्याशित है। इस रहस्य में घुस जाने के बाद तुम्हारा जीवन जाग्रत् हो उठेगा। हम सभी को जीवन की कल्पना में ज्यादा समय बिताना चाहिए। टी. एस. हक्सले की यह बात मुझे अच्छी लगती है, 'सत्य (तथ्य) के सामने एक छोटे बच्चे की तरह बैठ जाओ और मन से सारी पुरानी धारणा को निकाल दो। कुदरत तुम्हें जहाँ, जिस खाई में ले जाए उसके साथ जाओ, अन्यथा तुम कुछ भी नहीं सीख पाओगे।' इतना कहकर मो बीच पर बैठ गया और इशारे से मुझे अपने पास बुला दिया। बालू से ही वह एक बड़ा सा किला बनाने लगा, जिसमें सीप से बना एक पुल भी था। कुछ देर तक वह चुपचाप अपने काम में लगा रहा। उसके बाद पुनः चर्चा शुरू की, "हमारा हृदय चाहता है कि हम स्वतंत्र रहें।" अपनी कलाकृति को अंतिम रूप देते हुए उसने कहा, "हमारे हृदय की एक सबसे बड़ी इच्छा यह होती है कि हम आश्चर्य और भय के साथ अपने जीवन-पथ पर चलते हुए एक खोजी बनें। लेकिन अगर हम जीवन की संभाव्यताओं की ओर से स्वयं को खुला, जाग्रत् नहीं रखेंगे तो ऐसा संभव नहीं है। हमें अपने जीवन से जुड़ी अपनी सभी पुरानी धारणाओं को छोड़ देने की जरूरत होती है - जैसे हमारा जीवन कैसा होना चाहिए, खुश रहने के लिए क्या किया जाना चाहिए। मैं हमेशा प्रकृति का ही अनुसरण करने की कोशिश करता हूँ, वह मुझे चाहे जहाँ लेकर जाए। अपने जीवन को स्थायी बनने वाला मैं कौन होता हूँ?" "बड़ी गंभीर बात है, मो। इस विषय पर जरूर अपने गहन चिंतन किया है।" "इस विषय पर अल्बर्ट आइंस्टीन का विचार और भी ज्यादा गंभीर है। एक बार उन्होंने कहा था सबसे सुंदर वस्तु, जिसका हम अनुभव कर सकते हैं, वह है रहस्यात्मकता। यह सब यथार्थ कला और विज्ञान का स्रोत है। इस जज्बात से जो अनजान है, जो इसके बारे में आश्चर्य से नहीं सोचता, वह मृतक जैसा है; उसकी आँखें बंद हैं।" "तो हम पूरी तरह से तभी जीवित और जाग्रत् रह सकते हैं, जब हम आश्चर्य और भय की भावना के साथ जी रहे हों। यह तो जीवन का एक बहुत स्वतंत्र तरीका लगता है।" मैंने कहा, "इन सबके रहस्य की ओर से स्वयं को खुला रखना है। मुझे लगता है, मैं ऐसा कर लूँगा।" "इस प्रकार जीवन जीने से तुम्हारे भय को समय-समय पर पोषण मिलता रहेगा - यह स्वाभाविक ही है। लेकिन (पहले) भय की अनुभूति करो, तब उसका प्रयोग करो। अपने भय के पास खड़े हो जाओ और उसे अपने भीतर से होकर गुजरने दो। वह गुजर जाएगा। इस संबंध में मूल बिंदु यह है - जीवन को महान् बनाने के लिए जरूरी है कि तुम्हारा विश्वास तुम्हारे भय से अधिक बड़ा हो । जब तुम्हारा इस सत्य में विश्वास हो जाएगा कि ब्रह्मांड एक मित्र स्थान है और यह भय के उन भावों से बड़ा है, जिनके चलते तुम्हारी सोच सीमित हो गई है - तभी तुम्हारा सर्वोत्तम संभाव्य जीवन तुम्हारे पास स्वयं आएगा। तुम्हें यह मानकर चलना होगा कि ब्रह्मांड हित सचमुच तुम्हारी चाहत है। कभी-कभी मुश्किलों के रूप में वह अपने चमत्कार तुम्हारे पास भेजता है, जो तुम्हारे हित के लिए ही होती हैं। तुम्हें यह भय नहीं पालना चाहिए कि ये मुश्किलें तुम्हारे जीवन को बरबाद करने के लिए हैं। तुम अकेले हो - मन में यह् डर पैदा करने की
बजाय तुम्हें ब्रह्मांड की ज्ञानपूर्ण व्यवस्था में ज्यादा विश्वास रखना चाहिए। सबकुछ एक व्यापक योजना के अंतर्गत आता है और गुजर जाता है। तुम्हें इस योजना में विश्वास रखना होगा, तब तुम्हारे जीवन का चमत्कार व सौंदर्य स्वयं ही सामने प्रकट होने लगेगा।" मो अपना पेट खुजलाने लगा और थोड़ा सा हाथ-पैर फैलाने की कोशिश की, "खैर, अब अपने विषय पर आते हैं - अपने शौकों, जुनून को पुनः वापस प्राप्त करने की बात।" उसने कहा, "जब हम ऐसे परिवेश में बड़े होते हैं, जहाँ बहुत कम निजी स्वतंत्रता होती है - जहाँ हर समय कोई तुम्हें बताता रहता हो कि ऐसा करो, वैसा करो - तो हम अपने हृदय की वास्तविक इच्छाओं से अपना संपर्क खो देते हैं। हम अपनी प्राथमिकताएँ भूल जाते हैं और उन चीजों से भी संपर्क खो बैठते हैं, जिनसे हमारे हृदय को खुशी मिलती है। धीरे-धीरे हम बड़े हो जाते हैं और यह भी नहीं जानते कि हमारी सच्ची हार्दिक इच्छाएँ क्या हैं । परिणामस्वरूप हम यह नहीं जान पाते कि किस प्रकार अपने हृदय का जीवन बचाए रखा जाए और किस प्रकार पूर्ण जीवटता की अनुभूति की जाए। इस प्रकार हमारे असली जज्बात दफन होकर रह जाते हैं। " "दफन होकर?" "हाँ जैक! मुझे नहीं पता कि तुम जानते हो या नहीं, लेकिन जाने-माने पेंटर जेम्स मैकनील ह्विस्लर ने वेस्ट पॉइंट मिलिट्री एकेडमी में पढ़ाई की थी। इंजीनियरिंग की कक्षा में एक बार अध्यापक ने छात्रों को एक पुल का चित्र बनाने के लिए कहा। ह्विस्लर ने पत्थर से बने एक पुल की शानदार तसवीर बनाई और उसमें दो प्रसन्नचित्त लड़के भी दिखाए, जो मछली पकड़ रहे थे। पुल पर दो लड़कों का चित्र देखकर अध्यापक आगबबूला हो गया। उसने ह्विस्लर को लड़कों का चित्र हटाने की हिदायत दी। ह्विस्लर ने पूरा चित्र फिर से बनाया। इस बार उसने दोनों लड़कों को नदी के किनारे खड़ा दिखाया। इस बार लड़कों का चित्र देखकर अध्यापक और नाराज हुआ। उसने चित्र में से लड़कों को पूरी तरह से हटा देने को कहा। ह्विस्लर ने ऐसा ही किया; लेकिन अपने इस अंतिम चित्र में लड़कों के स्थान पर उसने कोई ऐसी चीज दिखा दी कि उसे देखकर अध्यापक काँप उठा।" "ह्विस्लर ने चित्र में ऐसा क्या बना दिया था?" "चित्र में नदी के किनारे पर उसने दो छोटे-छोटे समाधि-स्तंभ बना दिए और उनके ऊपर लड़कों का नाम लिख दिया।" "मैं समझ गया।" मैं बोल पड़ा, "जब हम अपने हृदय से अपना संपर्क खो देते हैं तो उसके साथ ही हमारे भीतर मौजूद बाल-वृत्ति से भी हमारा संपर्क खत्म हो जाता है। " "हाँ जैक। अपने अंतर्मन की आवाज और बाल-वृत्ति को पुनः प्राप्त करने के लिए बहुत अभ्यास की जरूरत होती है। अपने यथार्थ स्वरूप (यानी हम वास्तव में कौन हैं?) को जानने के लिए बहुत कार्य करना पड़ता है।" "किस तरह का कार्य ?" "वही आंतरिक कार्य। इसकी शुरुआत उन चीजों के चिंतन से करो, जिनसे तुम्हें खुशी मिलती है। उदाहरण के लिए, किस कार्य या चीज से तुम्हारे भीतर नई ऊर्जा आती है, चेहरे पर हँसी आती है? उन सबको एक कागज पर लिख डालो। लिखकर रखने से समझ बेहतर होती है। अगर अपने जीवन को सुंदर, असाधारण बनाना है तो हृदय की इन इच्छाओं, लालसाओं को पूरा करना होगा। जोसेफ कैंपबेल के अनुसार, 'अगर तुम अपने (हृदय के) परमानंद का अनुसरण करते हो तो ऐसा करके तुम स्वयं को ऐसे मार्ग पर ले जाते हो, जो हमेशा तुम्हारी प्रतीक्षा करता रहा है और फिर, तुम्हारा जीवन बिलकुल वैसा ही हो जाता है जैसा वास्तव में होना चाहिए। उस स्थिति में तुम्हें ऐसे लोग मिलने लगते हैं, जो तुम्हारे परमानंद के क्षेत्र में होते हैं और फिर से तुम्हारे लिए अपना दरवाजा खोल देते हैं।' मेरा अभिप्राय यह है कि अपने परमानंद का अनुसरण करो और डरो मत। इससे दरवाजे खुल जाएँगे और उनसे होकर तुम उस स्थान तक जा सकोगे, जिसके बारे में तुम्हें पहले पता ही नहीं था " "बहुत अच्छा विचार है।" मैंने टिप्पणी की। "वह तो है। अगर तुम अपने हृदय की इच्छाओं का अनुसरण करो तथा अपने यथार्थ आत्मस्वरूप की इच्छाओं को सुनो तो संभाव्यताओं की एक दुनिया तुम्हारे सामने होगी और तुम स्वयं एक बिलकुल नए यथार्थ में पहुँच जाओगे। अच्छे संयोग सामने आने लगेंगे। उदाहरण के लिए, सही समय पर सही नौकरी मिल जाएगी। उस समय ऐसा लगेगा जैसे तुम्हारे स्पर्श में जादू है। तुम्हारे जीवन में अच्छे लोग और अच्छे अवसर आने शुरू हो जाएँगे। इसका अर्थ है कि दुनिया की ओर से इस तथ्य का पुष्टीकरण ही होगा कि अब तुम यथार्थ, सच्चे मार्ग पर हो ।" मो बोल ही रहा था कि एक विशाल तरंग चट्टानों से टकराई और समुद्र के पानी से भिगोकर हमें तरोताजा कर गई। मुझे तो बिलकुल अच्छा नहीं लगा, लेकिन मो आनंदित होकर हँसने लगा। "हुउउउईईई...बहुत अच्छा लगा। मेरे ऊपर थोड़ा पानी और उछालो!" लगभग बेसुध-सा होकर उसने समुद्र से कहा और फिर उसके बाद चर्चा जारी रखी। "संघर
्ष को बंद करना भी वास्तव में महत्त्वपूर्ण है । " उसने कहा । "आपका क्या अभिप्राय है?" मैंने पूछा। "संघर्ष बंद करके (अस्तित्व में) होना शुरू करो। संघर्ष से तनाव पैदा होता है और प्रवाहमय, सरल, सुंदर जीवन जीने में तनाव एक बड़ी बाधा होता है; जबकि सर्वोत्तम संभाव्य जीवन के लिए यह सब जरूरी है। कॉरपोरेट जगत् में कार्य करते हुए मैंने देखा, लोग हमेशा संघर्ष और अफरा-तफरी यानी तनाव में ही रहते हैं। वहाँ बस करने का ही भाव होता था, 'होने' का भाव बहुत कम था। प्रकृति के नियम इस तरह नहीं चलते। फूल उगता है, खिलता है; लेकिन इस प्रक्रिया में संघर्ष के लिए कोई स्थान नहीं होता। यह एक प्राकृतिक या स्वाभाविक प्रक्रिया के अंतर्गत होता है। फूल को जबरदस्ती उगाने या खिलाने की कोशिश की जाए तो फूल स्वयं ही नष्ट हो जाएगा। लेकिन अपने जीवन में हम यही गलती करते हैं। तुम समुद्र के साथ जबरदस्ती नहीं कर सकते, जैक! इसलिए उसे अपने स्वाभाविक प्रवाह में बहने देना चाहिए। अगर तुम इस सत्य को नहीं समझते और संघर्ष में लगे रहते हो तो निश्चित रूप से तुम सृष्टि या प्रकृति के नियमों के खिलाफ जा रहे हो।" "मुझे लगता है, यह कार्य मुसीबत मोल लेने की तरह ही होगा।" "हाँ, यह तो मैं नहीं जानता कि मैंने इसे बहुत प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया है या नहीं, लेकिन इतना जरूर कहूँगा कि प्रकृति या सृष्टि के नियमों के खिलाफ जाकर तुम स्वयं को एक-दो सीख के लिए निश्चित रूप से तैयार करोगे।" "तो मैं यही कह रहा हूँ कि जीवन के प्रवाह के साथ बहो। तब जीवन स्वयं तुम्हारे भीतर प्रवाहित होगा। स्वयं को चुपचाप जीवन के प्रति समर्पित कर दो और देखो कि यह जीवन तुम्हें क्या देने जा रहा है। अपने जीवन से संघर्ष करना बंद कर दो, अपनी प्रसन्नता को किसी चीज पर आश्रित मत बनाओ। ऐसा कर लेने पर तुम्हारा जीवन सुधरना शुरू हो जाएगा और सच्ची खुशी तुम्हारे हृदय में संचरित होने लगेगी। हर बात या घटना का अच्छे या खराब के रूप में विश्लेषण करना छोड़ दो; जो भी होता है, बस उसका अहसास करते जाओ। परिणाम या फल के प्रति विरक्ति का यही मार्ग है। अपने जीवन के सर्वोत्तम क्षणों को ऐसे मत जाने दो। संघर्ष की स्थिति से बाहर निकलो और सृष्टि को चलानेवाली ऊर्जा में प्रवेश करो। जिसने इस समुद्र को बनाया है, उसने ही तुम्हें भी बनाया है। जीवन की अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करने की प्रवृत्ति छोड़ दो, बस जुड़ने की प्रवृत्ति अपनाओ। जिन चीजों की ओर तुम सबसे ज्यादा भागते हो, वे चीजें तुमसे उतनी ही दूर भागती हैं - यह सृष्टि का एक विरोधाभासी सिद्धांत है। अपने जीवन के प्रति चिंता करना बंद कर दो, फिर देखो, जीवन किस तरह स्वयं ही सही मार्ग पर चलने लगता है। "अच्छा मो, मैं समझ गया। मुझे लगता है, मुझे अफरा-तफरी का जीवन छोड़ना होगा, जो मैं अब तक लेकर चलता रहा था। मुझे संघर्ष से बाहर निकलकर बस जीवन के प्रति स्वयं को समर्पित करके उसके प्रवाह के साथ बहना होगा और यह मानकर चलना होगा कि मैं जहाँ भी हूँ, जैसा भी हूँ, वही होना चाहिए था। आपने जैसा बताया, उससे मुझे लगता है कि मुझे जीवन को नियंत्रित करने की बजाय उसकी अधीनता स्वीकार करनी होगी; वह जहाँ भी मुझे लेकर जाए, चुपचाप जाना होगा, क्योंकि यह सबकुछ एक बृहत्तर व्यवस्था के अंतर्गत होता है। " "हाँ, तुम्हारा जीवन, मेरा जीवन, सबका जीवन सुंदर है। बस हम समझ नहीं पाते। इसलिए जरूरी है कि अफरा-तफरी छोड़कर स्वाभाविक गति में चलो। क्यों भागते हो? कहाँ भागते हो?" "इसके बारे में मैंने कभी सोचा तो नहीं, लेकिन आप ठीक कह रहे हैं। अभी कुछ सप्ताह पहले तक मेरा जीवन एक लंबी दौड़ के सिवाय और कुछ नहीं था। यह सोचकर हास्यास्पद लगता है कि उस समय मुझे इस लंबी दौड़ के अंतिम बिंदु का भी पता नहीं था, जो मेरी समझ में अब आ रहा है। मैं बस दौड़ता जा रहा था। शायद मैं अपना महत्त्व जताने के लिए इतना व्यस्त दिखाई देने की कोशिश कर रहा था। " मो ने सहमति में सिर हिलाया, "शायद ऐसा ही था।" "मुझे लगता है, ऐसा मैं अपने आंतरिक छिद्रों को भरने के लिए और स्वयं को पूर्ण बनाने के लिए कर रहा था।" "हो सकता है; लेकिन असल बात यह है, जैक - जीवन के सुंदर विस्तार की इस प्रक्रिया का आनंद लो। जीवन के एक-एक क्षण को जियो। यही वास्तव में महत्त्वपूर्ण है। मंजिल की अपेक्षा रास्ता बेहतर है। " मो बिलकुल सही कह रहा था। जीवन समय (क्षणों) की एक शृंखला ही तो था। उन क्षणों को छोड़ देता तो मुझे जीवन से हाथ धोना पड़ता। मेरे लिए यह अपने आपको बदलने का समय था। "एक मनुष्य के रूप में जब मुझे अपना आंतरिक कार्य करने की बात आती है तो क्या जरूरी नहीं है कि मैं तेजी से काम करूँ, ताकि जल्दी-से-जल्दी अपने आपको बदल सकूँ?" मैंने पूछा। "बहुत अच्छा प्रश्न है। एक बार फिर मैं पूछूंगा- आखिर
इतनी जल्दी क्या है? जीवन एक प्रक्रिया है, जैक। यह विरोधाभासों से भरी है। तुम जितनी तेजी से चलोगे, तुम्हारी प्रगति उतनी ही धीमी होगी।" "फादर माइक भी यही बात कह रहे थे।" "हाँ, वह ठीक कह रहे थे। अपने आत्म-रूपांतरण को अपने अनुसार तेज करने की कोशिश करके तुम पीछे की ओर ही जाओगे। अपने ज्ञान (सीख) को थोड़ा मौका दो। पहले सीखो, फिर करो और उसके बाद (वैसा) बनो- गुरु बनने का यही रास्ता है। " "सीखूँ, करूँ और फिर (वैसा) बनूँ?" "हाँ, किसी भी कौशल, विशेषकर जीवन के कौशल, में दक्षता हासिल करने के लिए तीन चरणीय एक प्रक्रिया होती है - सबसे पहले उपयुक्त पुस्तकें आदि पढ़कर आवश्यक कौशल सीखो, उसके बाद उससे मिली सीख या ज्ञान को अपने जीवन में आत्मसात् करो। इसके लिए जरूरी है कि जो कुछ तुमने प्रयोगशाला में सीखा है, उसका अनुभव करो।" "सूत्र का यह 'करणीय' यानी करनेवाला पहलू है। इसमें लंबा समय लग सकता है; इसके बाद तुम जीवन के होने (या बनने) वाले पहलू में पहुँच जाओगे, जहाँ गुरु लोग रहा करते हैं। गुरु लोग जीने की कोशिश नहीं करते, वे बस जीते रहते हैं। वे सतर्क या सचेत रहने के लिए भी कुछ नहीं करते, स्वयं ही सतर्क-सचेत रहते हैं। " "सचमुच, बड़ी दिलचस्प अवधारणाएँ हैं आपके पास, मो। ये अवधारणाएँ अत्यंत गंभीर हैं।" "और सरल भी हैं। अपनी इस अवधारणा को मैं दूसरी तरह से भी तुम्हारे सामने व्यक्त कर सकता हूँ। शिष्य से शिक्षक बनने के लिए तुम्हें चार अवस्थाओं से गुजरना होगा। पहली अवस्था है - अज्ञानतापूर्ण अयोग्यता। ज्यादातर लोग इसी अवस्था में अपना पूरा जीवन बिता देते हैं। इस आरंभिक अवस्था में हमें उसका ज्ञान नहीं होता, जिसे हम नहीं जानते। हम अज्ञान के वशीभूत होते हैं। हमें पता नहीं होता कि हम वास्तव में कौन हैं और हमारे जीवन की वास्तविक संभाव्यता क्या है। इस अवस्था में हम सोए हुए होते हैं। इस नींद, इस अज्ञानता से जब हम जाग जाते हैं तो दूसरी अवस्था में प्रवेश करते हैं। यह दूसरी अवस्था है - चेतन अयोग्यता की। इस अवस्था में हमें उन बातों का ज्ञान हो जाता है, जिन्हें हम नहीं जानते।" "मतलब हम अपने जीवन की अयोग्यता, अकुशलता के प्रति जागरूक हो जाते हैं?" "बिलकुल सही। इस दूसरी अवस्था में जागरूक रहकर अगर हम अपना आंतरिक कार्य पूर्ण करते रहें तो अगली यानी तीसरी अवस्था में हमारा प्रवेश होता है। यह तीसरी अवस्था है - चेतन ज्ञान। इस अवस्था में जीवन में सुंदर, आश्चर्यजनक परिणाम आने शुरू हो जाते हैं। हम अपना असाधारण अस्तित्व तैयार करने लगते हैं। लेकिन इस अवस्था में भी हमें कुछ करना शेष रह जाता है। यहाँ भी हमें संघर्ष करना पड़ता है। " "और संघर्ष से तनाव पैदा होता है।" मैंने बीच में ही टोक दिया। "बिलकुल सही। इस अवस्था में हमारा जीवन चेतन योग्यता में होता है। इस अवस्था में होना तो अच्छा है, लेकिन जीवन जीने के लिए यह अवस्था बहुत अच्छी नहीं है। हमें अंतिम और सर्वोत्तम अवस्था में पहुँचने की कोशिश करनी चाहिए। वह अंतिम अवस्था है -अचेतन ज्ञान । जीवन की यह अवस्था ही गुरु यानी ज्ञानी की अवस्था है। इस अवस्था में न कुछ सीखना शेष रह जाता है और न ही कुछ करना। यहाँ बस स्वाभाविक प्रकार में बने रहना होता है।" "मैं समझ गया। आपका समझाने का तरीका मुझे अच्छा लगा।" मैंने कहा, "तो हमें जीवनयात्रा की इच्छा करनी चाहिए?" "मैं तो यही मानता हूँ। वैसे, तुम्हारे लिए फिलहाल इतना ही जरूरी है कि तुम शांत, सहज बनो। यहाँ हवाई में स्वयं को खुला छोड़ दो। विद्वान् लेखक रिचर्ड बैच ने कहा था - पूर्ण गति वहाँ होने में है, मेरे बच्चे ।' तुम्हारे जीवन में फिर से 'वहाँ होने' का समय आ गया है।" इतना कहकर मो अपने 'महल' में चला गया और थोड़ी देर में लंच के लिए सैंडविच एवं ताजे फल लेकर आया। प्रकृति के उस मनोरम स्थान के सौंदर्य तथा सूर्य की सुखद धूप का आनंद लेते हुए हम चुपचाप एक घंटे तक खाते रहे। "हाँ, हृदय से दूर रहकर मस्तिष्क में जीना तनावपूर्ण है, मेरे दोस्त।" मो ने समुद्र की ओर निहारते हुए कहा, "यह जीवन का श्रेष्ठ तरीका नहीं है। जीवन-पथ पर चलने का इससे बेहतर तरीका है। वह तरीका यही है - जीवन को नियंत्रित करने की कोशिश करने की बजाय अपने जीवन के प्रति जिज्ञासु बनो।" "इसका वास्तविक अभिप्राय क्या है?" "यह् सबकुछ जानने या पता लगाने की कोशिश करने की बजाय बस जिज्ञासा में जियो । तुम्हें यह जानने की जरूरत नहीं है कि एक वर्ष बाद तुम कहाँ होगे; यह भी जानने की जरूरत नहीं है कि एक माह बाद तुम क्या कर रहे होगे। इस निश्चितता की आवश्यकता से बाहर निकलो और जिज्ञासा की ओर बढ़ो, जिसकी हम सभी को जरूरत है। बस, स्वाभाविक रूप से अस्तित्व में रहो और जीवन के पल-पल को भरपूर जियो तथा वर्तमान के उपहार का आनंद लो। जब तुम इस सत्य का बोध कर लोगे, तब तुम्हारे जीवन का खजा
ना तुम्हारे सामने स्वयं ही प्रकट हो जाएगा।" "लेकिन आप यह तो नहीं कह सकते कि कभी कुछ करने की जरूरत ही नहीं है। मेरा मतलब, अगर हम कोई प्रयास ही नहीं करेंगे तो जीवन को असाधारण कैसे बना पाएँगे? आप ऐसा तो नहीं कह सकते कि लक्ष्य निर्धारित करना और उसे प्राप्त करने के लिए योजनाएँ बनाना तथा परिश्रम करना गलत है। " "अच्छा प्रश्न है। यह सब संतुलन पर आधारित है, है न? जिन-जिन चीजों का तुमने उल्लेख किया, वे सब मस्तिष्क से निकलती हैं, यह अच्छी बात है। अब तुम्हें अपने हृदय में प्रवेश करने की जरूरत है। जीवन और सृष्टि की रीति को नियंत्रित करने का प्रयास छोड़ दो। तुम्हें नहीं पता कि तुम्हारे लिए सर्वोत्तम क्या है। सचमुच तुम नहीं जानते।" "मैं समझता हूँ कि मेरी बुद्धि उतनी सशक्त नहीं हो सकती जितनी सशक्त इस स्थिति को चलानेवाली बुद्धि है।" मैंने कहा । "बहुत गूढ़ बात कही तुम ने, जैक। तो अपने आपको और खोलो, विस्तार दो। बाहर जो दुनिया है, वह तुम्हारी धारणावाली दुनिया से कहीं अधिक विस्तृत और व्यापक है। जिज्ञासा में जियो, आश्चर्य व भय में जियो।" "यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी ।" "और चेतन व जागरूक बनो।" मो ने आगे कहा। "संकेतों को ढूँढ़ना शुरू करो और निश्चित परिपाटी को समझकर बिंदुओं को मिलाना शुरू कर दो। उनके बीच के तालमेल का पता लगाओ और समझ लो कि ये सुंदर संयोग स्वयं तुम्हारे सर्वोत्तम जीवन को तुम्हारे पास तक लाने के लिए हैं। तुम्हारे आसपास जो कुछ हो रहा है, उसकी ओर ज्यादा ध्यान देकर तुम जागरूकता का अभ्यास कर सकते हो। जीवन के तथ्य की ओर थोड़ा और ध्यान दो। उदाहरण के लिए, जब तुम काम के लिए निकलो तो स्वयं को अपने अंतर्द्धंद्व में न उलझाकर यह देखो कि बाह्य संसार में क्या हो रहा है। आकाश के रंग को देखो, बादलों के आकार को देखो। वृक्षों से पत्ते गिरते हुए देखो और सूर्य जब तुम्हारे चेहरे पर अपनी रोशनी चमका रहा हो, उस समय की अनुभूति को समझने की कोशिश करो। अपने पैरों के तलवों का अहसास करो, जो पृथ्वी माता से मिलते हैं। अपने हृदय की धड़कनों पर ध्यान दो। इस प्रकार की सजगता का अभ्यास करके तुम अपने मस्तिष्क की सीमा से बाहर निकलकर हृदय की सीमा में प्रवेश कर सकोगे। उस स्थिति में अपने जीवन के क्षणों में तुम्हें पहले से कहीं अधिक जीवंतता और सरसता महसूस होगी। जीवन का आनंद बढ़ जाएगा। मस्तिष्क की सीमा से निकलकर हृदय की सीमा में जाने का एक और प्रभावी तरीका यह है कि मस्तिष्क की सीमा से बाहर निकलो और शरीर में प्रवेश कर जाओ।" "ऊँ!" दुविधा में मेरे मुँह से निकल पड़ा। "मस्तिष्क से बाहर निकलने और मन के अंतद्वंद्व से बाहर निकलने का एक सबसे प्रभावी तरीका यह है कि अपना ज्यादा समय अपने शरीर में बिताओ।" "अपने शरीर की भावनात्मक तरंगों पर गौर करो।" उत्तर आया, "जिस दौरान तुम्हारा मन कल्पना के क्षेत्र में भाग रहा हो, उस दौरान अपने आपसे पूछो-मुझे कैसा लग रहा है? इस समय मेरे शरीर में कैसी भावनात्मक तरंगें दौड़ रही हैं? सीने में जकड़न या हृदय में पीड़ा तो नहीं हो रही है? यह कारगर तकनीक तुम्हें तुम्हारे मन की सीमा से बाहर निकालकर हृदय की सीमा में प्रविष्ट करा देगी। और जब तुम अपने हृदय में जीना शुरू कर दोगे, तब तुम स्वयं देखोगे कि जीवन-यात्रा का आनंद और बढ़ गया है। संघर्ष समाप्त हो जाएगा।" "सचमुच!" मैं बोल पड़ा। "समाप्त हो जाएगा, तुम्हें इसका पता लगाने की जरूरत नहीं है, जैक। एक रहस्यमय उपन्यास है, जिसमें तुम्हारे जीवन की कहानी लिखी है। अंतिम अध्याय तक पढ़े बिना अगर तुम्हें पता चल जाए कि कहानी का अंत कैसा है तो उसका मजा ही क्या रह जाएगा? तुम कोई नई, अच्छी सी मूवी देखने जा रहे हो और कोई तुम्हें पहले ही बता दे कि उसकी कहानी क्या है, तो क्या होगा?" "मुझे अच्छा लगेगा; लेकिन मूवी का मजा खत्म हो जाएगा।" "बिलकुल सही। जैसा तुमने कहा था - यह ब्रह्मांड एक अच्छा, मित्रवत् स्थान है। यहाँ जो कुछ भी होता है, वह अच्छा ही होता है। तुम्हारा भाग्य तुम्हारे सामने वैसे ही प्रकट होगा, जैसा उसे होना है। इस बीच अपने वर्तमान का आनंद लो। उसे भरपूर जियो । सच्चाई से जियो, आनंदपूर्वक जियो, अपने दिल की गहराई से जियो । जीवन स्वयं अपना काम सँभाल लेगा।" "लेकिन दूसरे दिन के लिए भी कुछ छोड़ दो। आओ, सर्फिंग करें।" इतना कहकर मो जैक्सन - जो करोड़पति विज्ञापन गुरु से सर्फर बन गया था - एकदम उछल पड़ा और अपना सर्फबोर्ड लेकर समुद्र की ओर चल पड़ा।
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह योग की सर्वकला मैंने विस्तार से कही और इसमें उत्तम प्रभाव वर्णन हुआ है । प्रयोजन यही है कि तुम निर्वाण पद में स्थित हो और आत्म ब्रह्म की एकता करो जिससे कि फिर जन्मादिकों का दुःख न हो ! ब्रह्म सत्, चिद, आनन्द स्वभावमात्र है । जो एक आत्मा में एकत्वभाव होते हैं वही भाव रहते हैं । धनी शक्ति का धनी होता है और अविद्या नाश हो जाती है । इस प्रकार जब वही चुड़ाला रानी योग और ज्ञान के अभ्यास से पूर्ण हुई तब सब शक्तियों से संयुक्त होकर धनी, अणिमा आदि सिद्धियों को प्राप्त हुई । एक रात्रि में राजा सोया था तो वह अवकाश पाकर आकाश के बहुत स्थानों में बिचरी ; फिर देवलोक में अति चञ्चल काली का रूप धारके फिरी; फिर मध्य दिशा, देवलोक, दैत्यों, राक्षसों, विद्याधरों और सिद्धों के लोक में होकर सूर्यलोक, चन्द्रलोक, मेघमण्डल और इन्द्रलोक में गई और वहाँ का कौतुक देखकर फिर अधो लोक में आई । समुद्र में प्रवेश करके फिर अग्नि में प्रवेश कर गई पवन में पवनरूप हुई और नागलोक की कन्याओं में क्रीड़ा की । फिर वनों, पर्वतों, भूतों, अप्सराओं और त्रिलोकी के मध्य बिचरी । इसी प्रकार लीला करके फिर एक क्षण में उसी स्थान में जहाँ राजा सोया था आई और राजा के समीप सो रही । जैसे भँवरी भँवरा कमलिनी के मध्य में शयन करते हैं पर राजा ने न जाना कि रानी कहीं गई थी वा न गई थी । जब रात्रि बीती और प्रातःकाल हुआ तो राजा ने स्नानशाला में जाकर स्नानकर वेदोक्त कर्म किये और रानी ने भी प्रवाह पतित कर्म किये । जैसे पिता पुत्र को मीठे वचनों से उपदेश करता है तैसे ही रानी ने राजा को शनैः शनैः तत्त्व का उपदेश किया और पण्डितों से भी कहा कि तुम भी राजा को उपदेश करो कि यह जगत् स्वप्नवत् भ्रम- दीर्घ रोग और दुःखों का कारण है, आत्मज्ञान औषध से यह नाश होता है और इसकी कोई औषध नहीं । इसी प्रकार आप भी राजा को उपदेश करे और पण्डित लोग भी उपदेश करें परन्तु राजा ने वह ज्ञान न पाया और विक्षेपता में रहा । राजा ने उस उत्तमपद में विश्राम न पाया जो अपना आप केवल चिद्रूप, प्रत्येक आत्मा है । रामजी ने पूछा, हे महामुनि! रानी तो सर्वशक्तिसम्पन्न हुई थी कि योग कला में भी अति चतुर और ज्ञानकला में तद्रूप थी और राजा भी अति मूढ़ न था उसको उसका उपदेश क्यों न दृढ़ हुआ ? रानी भी उसको प्रीति से उपदेश करती थी तो क्या कारण था जो वह अपने पद में स्थित न हुआ? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जैसे अछिद्रमोती में तागा प्रवेश नहीं करता तैसे ही चुड़ाला के उपदेश ने राजा को न बेधा जबतक आप विचार न करे और उसमें दृढ़ अभ्यास न हो तबतक यदि ब्रह्मा भी उपदेश करें तो उसको न बेधे, क्योंकि आत्मा आपही से जाना जाता है और इन्द्रियों का विषय नहीं । अधिष्ठानरूप और स्वभावमात्र आपही आपको देखता है और किसी मन और इन्द्रियों का विषय नहीं, सबका अपना आप है । रामजी ने पूछा, हे भगवन्! यदि अपने आपही से देखता तो गुरु और शास्त्र किस निमित्त उपदेश करते हैं । वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! गुरु और शास्त्र जना देते हैं कि तेरा स्वरूप आत्मा है परन्तु 'इदं' करके नहीं दिखाते । विचारनेत्र से आपको आपही देखता है, विचार से रहित उसको नहीं देख सकता । जैसे किसी पुरुष को चन्द्रमा कोई सचक्षु दिखाता है पर जो वह सचक्षु होता है तो देखता है और मन्ददृष्टि होता है तो नहीं देखता, तैसे ही गुरु और शास्त्र आत्मा का रूप वर्णन करते हैं और लखाते हैं पर जब वह विचार नेत्र से देखता है तब कहता है कि मैंने देखा और अन्यों को दिखाने के योग्य होता है । हे रामजी! आत्मा किसी इन्द्रिय का विषय नहीं, वह अपना आप मूलरूप है और इन्द्रियाँ कल्पित हैं जो तुम कहो कि तुम भी तो इन्द्रिय से ही उपदेश करते हो तो सब इन्द्रियों का विस्मरण करो तो अपना मूल तुम्हें भासे । हे रामजी! इस पर एक क्रान्त का इतिहास है, सुनो । एक क्रान्त था जिसके पास बहुत धन और अनाज था परन्तु वह ऐसा कृपण था कि किसी को कुछ न देता था और धन की तृष्णा करता था कि किसी प्रकार मुझे चिन्तामणि मिले । इसी इच्छा से एक समय घर से बाहर निकल पृथ्वी की ओर देखता जाता था कि एक स्थान में पहुँचा जहाँ घास और भुस पड़ा था तो उसे उसमें एक कौड़ी दृष्टि पड़ी और वह उस कौड़ी को उठाकर देखने लगा कि कुछ और भी निकले तो फिर दूसरी कौड़ी निकली, इसी प्रकार ढूँढ़ते उसे तीन दिन व्यतीत हुए तब चार कौड़ी निकलीं और फिर आठ निकली । जब तीन दिन और ढूँढ़ते बीते तब चन्द्रमा की नाईं चिन्तामणि प्रकट देखी और उसे लेकर अपने घर आया और अति हर्षवान् हुआ । हे रामजी! तैसे ही गुरु और शास्त्रों से तत्त्वमसि' और 'अहं ब्रह्मास्मि' का पाना कौड़ियों का खोजना है और आत्मा चिन्तामणि रूप है । परन्तु जैसे कौड़ियों के खोज में उसने चिन्तामणि बिना खोजे न पाई तैसे ही गुरु और शास्त्रों से आत्मपद मिलता है - गुर
ु और शास्त्रों बिना नहीं मिलता । धन तप और कर्म से आत्मा नहीं मिलता, केवल अपने आपसे पाया जाता है । हे रामजी! जब शिखरध्वज चुड़ाला के पास से उठकर स्नान को गया तब राजा के मन में वैराग्य उपजा कि यह संसार मिथ्या है । हमने बहुत भोग भोगे तो भी हृदय को शान्ति न हुई और इन भोगों का परिणाम दुःखदायक है । जब मन में ऐसा विचार उपजा तब राजा ने गऊ पृथ्वी, सुवर्ण, मन्दिर और दूसरी सामग्री बहुत दान की और सब ऐश्वर्य के पदार्थ ब्राह्मणों, गरीबों और अतिथियों को अधिकार के अनुसार दिये । रानी ने भी ब्राह्मणों और मन्त्रियों से कहा कि राजा को तुम यही उपदेश दिया करो कि ये भोग मिथ्या है, इनमें कुछ सुख नहीं और आत्मसुख बड़ा सुख है जिसके पाये से जन्म-मरण से मुक्त होता है इसी प्रकार राजा ब्राह्मणों से सुने और अपने मन में भी वैराग उपजाता था इस कारण विचारे कि मैं इस संसार दुःख से रहित हो जाऊँ, यह संसार बड़ा दुःखरूप है और इसमें सदा जन्म-मरण है । निदान राजा के मन में आया कि मैं तीर्थों को जाऊँ और स्नान करूँ, इसलिये तीर्थों को चला और स्नान, दान, करता इसी प्रकार देव, तीर्थों और सिद्धों के दर्शन करके गृह को आया । रात्रि के समय रानी के साथ शयन किया तो रानी से कहा कि हे अंगने! अब मैं वन को तप करने के लिये जाता हूँ, क्योंकि ये भोग मुझे दुःखदायक भासते हैं और राज्य भी वन की नाईं उजाड़ भासता है । ये भोग हम बहुत काल पर्यन्त भोगते रहे तो भी इनमें सुख दृष्टि न आया, इसलिये मैं वन को जाता हूँ- मुझे न अटकाइयो । तब रानी ने कहा, हे राजन् ! अब तेरी कौन अवस्था है जो तू वन में जाता है? अब तो हमारे राज भोगने का समय है । जैसे वसन्त में शोभा पाते हैं और शरत्काल में नहीं शोभते तैसे ही हम भी जब वृद्ध होंगे तब वन को जावेंगे और वन ही में शोभा पावेंगे । जैसे वन के फूल श्वेत होते हैं तैसे ही जब हमारे केश श्वेत होंगे तब शोभा पावेंगे- अब तो राज करो हे रामजी इस प्रकार रानी ने कहा पर राजा का चित्त वैराग ही में रहा और रानी का कहना चित्त में न लाया । जैसे चन्द्रमा बिना कमलिनी शान्ति नहीं पाती तैसे ही ज्ञान बिना राजा को शान्ति न हुई परन्तु वैराग करके फिर कहने लगा हे रानी! अब मुझे न रोक अब राज्य मुझे फीका लगता है इसलिये मैं वन को जाता यहाँ नहीं ठहर सकता । जो तुम कहो कि हम यहाँ तेरी टहल करती थीं वन में कौन करेगा तो पृथ्वी ही हमारा टहल करेगी, वन की वीथिका स्त्रियाँ होंगी, मृगों के बालक पुत्र, आकाश हमारे वस्त्र और फूल के गुच्छे भूषण होंगे । जब दूसरी रात्रि हुई और राजा वहाँ से चला तो रानी और सेना भी पीछे चली और कोट के बीच सब स्थित हुए । राजा और रानी ने विश्राम किया, जैसे भँवरा भँवरी सोते हैं और सेना और सहेलियाँ भौ सब सो गई और पत्थर की शिलावत् निद्रा से जड़ हो गये । जब आधी रात्रि व्यतीत हुई तो राजा जगा और देखा कि सब सो गये हैं । निदान शय्या से उठ और रानी के वस्त्र एक ओर करके और हाथ में खंग लेकर निकला जैसे क्षीरसमुद्र से विष्णु भगवान् लक्ष्मी के पास से उठते हैं तैसे ही उठ सब लोगों को लाँघता कोट के दरवाजे पर आया तो देखा आधे मनुष्य जागते थे और आधे सो गये थे । उन्होंने जब राजा को देखा तब राजा ने कहा, द्वारपालों! तुम यहाँ ही बैठे रहो, मैं अकेला वीरयात्रा को जाता । इतना कह राजा तीक्ष्ण वेग से चला गया और बाहर निकलकर कहा, हे राजलक्ष्मी! तुझको नमस्कार है, अब मैं वन को चला हूँ, फिर एक वन में पहुँचा जहाँ सिंह, सर्प तथा और और भयानक जीव थे, उनके शब्द सुनता आगे चला गया तो उसके आगे चलकर राजा एक ठौर जा स्थित हुआ और जब सूर्य उदय हुआ तब स्नान करके संध्यादिक कर्म किये और वृक्षों के फल भोजनकर फिर वहाँ से आगे चला । इस डर से कि कोई कहीं पीछे से आकर मुझे न रोके बड़े तीक्ष्ण वेग से चला और बड़े पहाड़, नदियों और वन उल्लंघकर बारह दिन पश्चात् जब मन्दराचल पर्वत के निकट जा पहुँचा तब एक वन में जा स्थित हुआ और स्नान करके कुछ भोजन किया । मेघ और छाया से रक्षा के निमित्त उसने वहाँ एक झोपड़ी बनाई और वासन बनाकर उनमें फूल और फल रक्खे । जब प्रातःकाल हो तब स्नान करके प्रहर पर्यन्त जाप करे और फिर देवताओं की पूजा के निमित्त फूल चुने दो प्रहर स्नान करके ऐसे व्यतीत कर, जब तीसरा प्रहर हो तब फल भोजन करे और चौथे प्रहर फिर संध्या और जाप करे । कुछ काल रात्रि को शयन करे और बाकी जाप में बितावे, इसी प्रकार काल को व्यतीत करे । हे रामजी! राजा की तो यह अवस्था हुई अब रानी की अवस्था सुनो । जब अर्धरात्रि के पीछे रानी जागी तो क्या देखा कि राजा यहाँ नहीं है और शय्या खाली पड़ी है रानी ने सहेलियों को जगाकर कहा बड़ा कष्ट है कि राजा वन को निकल गया है और बड़े भयानक वन में जावेगा । ऐसे कहकर मन में विचार किया कि राजा को देखना चाहिये इस निमित्त योग में स्थित होकर आकाश को उ
ड़ी और आकाश की नाईं देह को अन्तर्धान किया । जैसे योगीश्वरी भवानी उड़ती है तैसे ही उड़ी और आकाश में स्थित होकर देखा कि राजा चला जाता है । रानी के मन में आया कि इसका मार्ग रोकूँ पर एक क्षणमात्र स्थित होकर भविष्यत् को विचारने लगी कि राजा का और मेरा संयोग नीति में कैसे रचा है । विचार करके देखा कि राजा का और मेरा मिलाप होने में अभी बहुत काल बाकी है, अवश्य मिलाप होगा और मेरे उपदेश से राजा जागेगा परन्तु यह सब बहुत काल उपरान्त होगा अभी इसके कषाय परिपक्व नहीं हुए इससे इसका मार्ग रोकना न चाहिये । निदान रानी पीर अपने घर आई और शय्या पर शयनकर बड़ी प्रसन्नता को प्राप्त हुई । जब रात्रि व्यतीत हुई तब मन्त्रियों से कहने लगी कि राजा एक तीर्थ करने गया है और दर्शन करके फिर आवेगा, तुम अपने कार्य करते रहो । यह सुन मन्त्री अपनी चेष्टा में वर्तने लगे इसी प्रकार रानी ने आठ वर्ष पर्यन्त राज्य किया और प्रजा को सुख दिया । जैसे बागवान कमलों और क्यारियों को पालता है तैसे ही रानी ने प्रजा को पालकर सुख दिया । उधर राजा को आठ वर्ष तप करते बीते और उसके अंग दुर्बल हो गये और इधर रानीने राज्य किया पर जैसे भँवरा और ठौर हो तैसे ही समय व्यतीत हुआ । तब रानी ने विचार किया कि राजा अब मेरे वचनों का अधिकारी हुआ होगा क्योंकि अब उसका अन्तःकरण तप करके शुद्ध हुआ है इससे अब राजा को देखिये । निदान रानी वहाँ से उड़के आकाश को गई और इन्द्र के नन्दनवन को देख वहाँ के दिव्यपवन का स्पर्श हुआ तो उसके चित्त में आया कि मुझे भर्त्ता कब मिलेगा । फिर कहने लगी कि बड़ा आश्चर्य है, मैं तो सत्पद को प्राप्त हुई थी तो भी मेरा मन चलायमान हुआ है तो और जीवों की क्या वार्ता है । वहाँ से भी चली तो आगे कमल फूल देखकर कहने लगी कि मुझे भर्ता कब मिलेगा मैं तो कामातुर हुई हूँ । फिर मन में कहने लगी कि हे दुष्ट मन! तू तो सद्पद को प्राप्त हुआ था तेरा भर्ता आत्मा है अब तू मिथ्या पदार्थों की अभिलाषा क्यों करता है? मालूम होता है कि जबतक देह है तबतक देह के स्वभाव भी साथ रहते हैं इससे यह अवस्था प्राप्त हुई तभी मन चलायमान होता है इससे इतर जीवों की क्या वार्ता है । तब रानी मेघ, बिजली, पर्वत, नदियाँ, समुद्र और भयानक स्थानों को लाँघकर मन्दराचल पर्वत के पास पवन में पहुँची और देखने लगी कि मेरा भर्ता कहाँ है । समाधि में स्थित होकर उसने देखा कि अमुक स्थान में बैठा है, तप करके महा दुर्बल अंग हो गये हैंऔर ऐसे स्थान में प्राप्त हुआ है जहाँ और जीव की गम नही, बड़ा आश्चर्य है कि महा वैताल की नाईं यह रात्रि को चला आया है । अज्ञान महादुष्ट है कि ऐसा राजा तप मे लगा है और स्वरूप के प्रमाद से जड़ है । अब ऐसा हो कि किसी प्रकार यह अपने स्वरूप को प्राप्त हो । परन्तु मेरे इस शरीर से इसको ज्ञान न उपजेगा, क्योंकि प्रथम तो उसको यह अभिमान होगा कि यह मेरी स्त्री है और फिर कहेगा कि मैंने इसी के निमित्त राज्य छोड़ा है और यह फिर मुझे दुःख देने आई है इससे मैं ब्रह्मचारी का शरीर धरूँ । ऐसा विचार करके उसने शीघ्र ही ब्रह्मचारी का शरीर धरा और हाथ में रुद्राक्ष की माला और कमण्डलु और गले में मृगछाला धारण किया । जैसे सदाशिव के मस्तक पर चन्द्रमा विराजता है तैसे ही सुन्दर विभूति लगा और श्वेत ही यज्ञोपवीत धारण कर पृथ्वी के मार्ग से राजा के निकट जा पहुँची । राजा उसे देखकर आगे से उठ खड़ा हुआ और नमस्कार कर चरणों पर फूल चढ़ाये । फिर अपने स्थान पर बैठकर कहने लगा, हे देवपुत्र! आज मेरे बड़े भाग हैं जो आपका दर्शन हुआ । कृपा करके कहिये कि आप किस लिये आये हैं? देवपुत्र बोले, हे राजन् ! हम बड़े पर्वत देखते और तीर्थ करते आये हैं परन्तु जैसी भावना तुझमें देखी है तैसी किसी में नहीं देखी । तूने बड़ा तप किया है और तू इन्द्रियजित् दृष्टि आता है । मैं जानता हूँ कि तेरा तप खंग की धार सा तीक्ष्ण है इससे तू धन्य है और तुझे नमस्कार है । परन्तु हे राजन् ! आत्मयोग के निमित्त भी कुछ तप किया है अथवा नहीं सो कह? तब राजा ने जो फूलों की माला देवपूजन के लिए रखी थी सो देवपूत्र के गले में डाली और पूजा करके कहा, हे देवपुत्र! तुम ऐसों का दर्शन दुर्लभ है और अतिथि का पूजन देवता से भी अधिक है । हे देवपुत्र! आपके अंग बहुत सुन्दर दृष्टि आते हैं। ऐसे ही मेरी स्त्री के भी अंग थे, नख से शिख पर्यन्त तुम्हारे वही अंग दृष्टि आते हैं परन्तु आप तो तपस्वी हैं और आप की मूर्ति शान्ति के लिये हुई है मैं कैसे कहूँ कि तुम वही हो । इससे हे देवपुत्र ? आप किसके पुत्र हैं, यहाँ किस निमित्त आये हैं और कहाँ जावेंगे यह संशय मेरा निवृत्त कीजिये? तब देवपुत्र ने कहा, हे राजन्! एक समय नारदमुनि सुमेरु पर्वत की कन्दरा में जहाँ आश्चर्य के देनेवाले वृक्ष और मञ्जरियाँ फूलों और फलों से पूर्ण थीं और ब्राह्मणों की कुटी बनी हुई
थीं समाधि लगाके बैठे । वहाँ गंगा का प्रवाह चलता था और सिद्धों के सिवाय और जीवों की गम न थी इससे नारदमुनि वहाँ कुछ काल समाधि में स्थित रहे । जब समाधि से उतरे तब उन्होंने आभूषणों का शब्द सुना और मन में महाआश्चर्य माना कि यहाँ तो कोई नहीं आ सकता यह भूषणों का शब्द कहाँ से आया । तब उठकर देखने लगे कि गंगा का प्रवाह चला आता है और वहाँ उर्वशी आदिक महासुन्दर अप्सरा वस्त्रों को उतारे हुए स्नान करती हैं । जब उनको नारदजी ने देखा तो उनका विवेक जाता रहा और वीर्य निकल कर उनके पास एक सुन्दर बेल थी उसके पत्र पर स्थित हुआ । इतना सुनके शिखरध्वज ने कहा हे देवपुत्र ऐसे ब्रह्मवेत्ता और सर्वज्ञ मननशील संयुक्त नारदमुनि का वीर्य किस निमित्त गिरा देवपुत्र ने कहा- हे राजन्! जबतक शरीर है तबतक अज्ञानी और ज्ञानी के शरीरों का स्व भाव निवृत्त नहीं होता, परन्तु एक भेद है कि ज्ञानवान् को यदि दुःख प्राप्त होता है तो वह दुःख नहीं मानता और यदि सुख प्राप्त होता है तो सुख नहीं मानता और उससे हर्षवान् नहीं होता, और अज्ञानी को यदि सुख दुःख प्राप्त होते हैं तो वह हर्ष शोक करता है । जैसे श्वेत वस्त्र पर केशर का रंग शौघ्र ही चढ़ जाता है तैसे ही अज्ञानी को दुःख सुख का रंग शीघ्र चढ़ जाता है और जैसे मोम के वस्त्रों को जल का स्पर्श नहीं होता तैसे ही ज्ञानवान् को दुःख सुख का स्पर्श नहीं होता । जिसके अन्तःकरणरूपी वस्त्र को ज्ञानरूपी मोम नहीं चढ़ा उसको दुःख सुखरूप जल स्पर्श कर जाता है । दुःख की और सुख की नाड़ी भिन्न-भिन्न हैं जब सुख की नाड़ी में जीव स्थित होता है तब कोई दुःख नहीं देखता और जब दुःख की नाड़ी में स्थित होता है तब सुख नहीं देखता । अज्ञानी को कोई दुःख का स्थान है और कोई सुख का स्थान है और अज्ञानी को एक आभासमात्र दिखाई देता है - बन्धवान् नहीं होता । जबतक अज्ञान का सम्बन्ध है तबतक दुःख निवृत्त नहीं होता । तब राजा ने कहा कि वीर्य जो गिरता है सो कैसे निवृत्त होता है? देवपुत्र ने कहा, हे राजन्! जब चित्त वासना से क्षोभवान् होता है तब नाड़ी भी क्षोभ करती है और अपने स्थानों को त्यागने लगती हैं, उसी अबस्था में वीर्यवाली नाड़ी से भी स्वाभाविक ही वीर्य नीचे को चला आता है । फिर राजा ने पूछा, हे देवपुत्र! स्वाभाविक किसे कहते हैं ? देवपुत्र ने कहा, हे राजन्! आदि शुद्ध चैतन्य परमात्मा में जो फुरना हुआ है उस क्षणमात्र शक्ति के उत्थान से प्रपञ्च बन गया है इसमें आदि नीति हुई है कि यह घट है, यह पट है, यह अग्नि है, इसमें उष्णता है, यह जल है, इसमें शीतलता है, तैसे ही यह नीति है कि वीर्य ऊपर से नीचे को आता है । जैसे पर्वत से पत्थर गिरता है सो नीचे को चला आता है तैसे ही वीर्य भी नीचे को आता है । तब राजा ने प्रश्न किया कि हे देवपुत्र! जीव को दुःख सुख कैसे होता है और दुःख सुख का अभाव कैसे होता है ? देवपुत्र ने कहा, हे राजन्! यह जीव कुण्डलिनी शक्ति में स्थित होकर दृश्य में जो चारों अन्तःकरण, इन्द्रियाँ और देह है उनमें अभिमान करके इनके दुःख से दुःखी और इनके सुख से सुखी होता है तो जैसा- जैसा आगे प्रतिबिम्ब होता है तैसा तैसा दुःख सुख भासता है । जैसे शुद्धमणि में प्रतिबिम्ब पड़ता है । यह सब अज्ञान से होता है और ज्ञान से इसका हो जाता है । जब ज्ञानरूप का आवरण करके आगे पटल होता है तब प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता । देहादिक के अभिमान से रहित होने को ज्ञान कहते हैं कि न देहादिक है और न मैं इनसे कुछ करता । जब ऐसे निश्चय हो तब दुःख सुख का भान नहीं होता क्योंकि संसार का दुःख सुख भावना में होता है, जब वासना से रहित हुआ तब दुःख सुख भी नष्ट हो जाते हैं । जैसे जब वृक्ष ही जल जाता है तब पत्र, फूल, फल कहाँ रहे, तैसे ही अज्ञानरूप वासना के दग्ध हुए दुख सुख कहाँ रहे? फिर राजा ने कहा, हे भगवन् ! तुम्हारे वचन सुनते मैं तृप्त नहीं होता। जैसे मेघ का शब्द सुनते मोर तृप्त नहीं होता, इससे कहिये कि तुम्हारी उत्पत्ति कैसे हुई है? देवपुत्र ने कहा, हे राजन्! जो कोई प्रश्न करता है उसका बड़े निरादर नहीं करते; इससे तुम पूछते हो सो मैं कहता हूँ । हे राजर्षे! वह वीर्य नारदमुनि ने एक मटकी में रक्खा और उस पर दूध डाला । वह मटकी स्वर्णवत् थी जिसका उज्ज्वल चमत्कार था । उस मटकी को पूर्णकर वीर्य एक कोने की ओर किया और फिर मन्त्रों का उच्चार किया और आहुति देकर भले प्रकार पूजन किया । जब एक मास व्यतीत हुआ तब मटकी से बालक प्रकट हुआ - जैसे चन्द्रमा क्षीरसमुद्र से निकला है- उस बालक को लेकर नारद आकाश को उड़े और अपने पिता ब्रह्माजी के पास ले आये और नमस्कार किया । तब मुझको पितामह ने गोद में बैठा लिया और आशीर्वाद देकर कहा कि तू सर्वज्ञ होगा और शीघ्र ही अपने स्वरूप को प्राप्त होगा । कुम्भ से जो मैं उपजा था इसलिये उन्होंने मेरा नाम कुम्भल रखा । मैं नारदजी
का पुत्र और ब्रह्माजी का पुत्र हूँ; सरस्वती मेरी माता है; गायत्री मेरी मौसी है और मुझे सर्वज्ञान है । तब राजा ने कहा, हे देवपुत्र! तुम सर्वज्ञ दृष्ट आते हो; तुम्हारे वचनों से मैं जानता हूँ । देवपुत्र ने कहा, हे राजन्! जो तुमने पूछा सो मैंने कहा; अब कहो तुम कौन हो, क्या कर्म करते हो और यहाँ किस निमित्त आये? राजा ने कहा, हे देवपुत्र! आज मेरे बड़े भाग उदय हुए हैं जो तुम्हारा दर्शन हुआ । तुम्हारा दर्शन बड़े भागों से प्राप्त होता है । यज्ञ और तप से भी तुम्हारा दर्शन श्रेष्ठ है । देवपुत्र ने कहा, हे राजन्! अपना वृत्तान्त कहो राजा ने कहा, हे देवपुत्र! मैं राजा हूँ; शिखरध्वज मेरा नाम है । संसार दुःखदायक भासित हुआ और बारम्बार जन्म और मरण इसमें दृढ़ आता है इससे राज्य का त्यागकर यहाँ पर मैं तप करने आया । तुम त्रिकाल हो और जानते हो तथापि तुम्हारे पूछने से कुछ कहना चाहिये । मैं त्रिकाल संध्या और तप करता हूँ तो भी मुझे शान्ति नहीं हुई; इसलिये जिससे मेरे दुःख निवृत्त हों वही उपाय कहिये । हे देवपुत्र! मैंने बहुत तीर्थ किये हैं और बहुत देश और स्थान फिरा हूँ पर अब इसी बन में आन बैठा हूँ तो भी मुझे शान्ति नहीं । तब देवपुत्र ने कहा, हे राजऋषि! तूने राज्य का तो त्याग किया पर तप रूपी गढ़े में गिर पड़ा; यह तूने क्या किया? जैसे पृथ्वी का कृमि फिर पृथ्वी में ही रहता है तैसे ही तू एक गढ़े को त्यागकर दूसरे गढ़े में आ पड़ा है और जिस निमित्त राज्य का त्याग किया उसको न जाना । यहाँ आकर तूने एक लाठी मृगछाला और फूल रक्खे हैं इनसे तो शान्ति नहीं होती । इससे अपने स्वरूप में जाग; जब स्वरूप में जागेगा तब सब दुःख निवृत्त होंगे । इसी पर एक समय ब्रह्माजी से मैंने प्रश्न किया था कि हे पितामहजी! कर्म श्रेष्ठ है अथवा ज्ञान श्रेष्ठ है- दोनों में कौन श्रेष्ठ है? जो मुझको कर्तव्य हो सो कहो । तब पितामह ने कहा कि ज्ञान के पाये से कोई दुःख नहीं रहता और सब आनन्दों का आनन्द ज्ञान है । अज्ञानी को कर्म श्रेष्ठ है; क्योंकि वे पापकर्म करेंगे तो नरक को प्राप्त होंगे, इससे तप और दान करने से स्वरूप की प्राप्ति नहीं होती तो भी अज्ञानी को कर्म ही श्रेष्ठ है कि नरक न भोगकर स्वर्ग में रहे । जैसे कम्बल से रेशम का न पाइये तो कम्बल ही भला है; तैसे ही ज्ञान रेशम की नाईं है और तप कर्म कम्बल के समान है- कर्म से शान्ति नहीं होती । इससे हे राजन्! तुम क्यों इस गढ़े में पड़े हो? आगे तू राज्यवासी था और अब वनवासी हुआ; यह क्या किया कि मूर्खता के वश अज्ञान में पड़ा रहा । जबतक तुझे क्रिया का भान होता है कि `मैं यह करूँ' तबतक प्रमाद है इससे दुःख निवृत्त न होगा । निर्वासनिक होकर अपने स्वरूप में जाग । निर्वासनिक होना ही मुक्ति है और वासना सहित ही बन्धन है । निर्वा सनिक होना ही पुरुष प्रयत्न है । जब तक वासना सहित है तब तक अज्ञानी है जब निर्वा सनिक हो तब ज्ञेयरूप हो । सदा ज्ञेय की भावना करनेवाले को निर्वासनिक कहते हैं और ज्ञेय आत्मस्वरूप को कहते है; उसको जानकर फिर कोई इच्छा नहीं रहती । केवल चिन्मात्र पद में स्थित का नाम ज्ञेय है । जो जानने योग्य है सो जाना तब और वासना नहीं रहती, केवल स्वच्छ आपही होता है । हे राजन् ! तुझे अपने स्वरूप को ही जानना था सो तू और जञ्जाल में किस निमित्त पड़ा है? आत्मज्ञान बिना और अनेक यत्न करो तो भी शान्ति न प्राप्त होगी । जैसे पवन से रहित वृक्ष शान्तरूप होता है और जब पवन होता है तब क्षोभ को प्राप्त होता है तैसे ही जब वासना निवृत्त होगी तब शान्तपद प्राप्त होगा और कोई क्षोभ न रहेगा । जब ऐसे देवपुत्र ने कहा तब राजा ने कहा, हे भगवन्! तुम मेरे पिता हो, तुमहीं गुरु हो और तुमही कृतार्थ करनेवाले हो । मैंने वासना करके बड़ा दुःख पाया है जैसे किसी वृक्ष के पत्र, डाल, फूल सूख जावें और अकेला ठूंठ रह जावे तैसे ही ज्ञान बिना मैं भी ठूंठसा हो रहा हूँ इसलिये कृपा करके मुझे शान्ति को प्राप्त करो । देव पुत्र ने कहा, हे राजन्! तुझे त्याग करके सन्तों का संग करना चाहिये था और यह प्रश्न करना चाहिये था कि बन्ध क्या है और मोक्ष क्या है? मैं क्या हूँ और यह संसार क्या है? संसार की उत्पत्ति किससे होती है और लीन कैसे होता है? तूने यह क्या किया कि सन्तों बिना ठूंठ वन को आकर सेवन किया । अब तू सन्त जनों को प्राप्त होकर निर्वासनिक हो । ऐसे ब्रह्मादिक ने भी कहा है कि जब निर्वानिक होता है तब सुखी होता है। फिर राजा ने कहा, हे भगवन् ! तुमहीं सन्त हो और तुमहीं मेरे गुरु और पिता हो, जिस प्रकार मुझे शान्ति हो सो कहिये । तब कुम्भज ने कहा, हे राजन्! मैं तुझे उपदेश करता हूँ तू उसे हृदय में धारण कर और तू उसे हृदय में न धारेगा तो मेरे कहने से क्या होता है? जैसे डाल पर कौवा हो और शब्द भी सुने तो भी अपने कौवे के स्वभाव को नही
ं छोड़ता, तैसे ही जो तू भी कौवे की नाई हो तो मेरे कहने का क्या प्रयोजन है? जैसे तोते को सिखाते हैं तो वह सीखता है तैसे तुम भी हो जावो । शिखर ध्वज ने कहा, हे भगवन् जो तुम आज्ञा करोगे सो मैं करूँगा जैसे शास्त्र और वेद के कहे कर्म करता हूँ तैसे ही तुम्हारा कहना करूँगा । यह मेरा नेम है
हमारे भीतर, हमारे भीतर प्रसुप्त और सोया हुआ है, उसको जगाना है। ईश्वर कही और दूसरी जगह विराजमान नहीं है, प्रत्येक चैतन्य के भीतर सोयी शक्ति का नाम है। उसे उठाना, उसे आविर्भाव करना, उसे उपस्थित करना है। इसलिए किसी की प्रार्थना नही करनी है, क्योकि प्रार्थना कौन करे ? भगवान् अगर भीतर मौजूद है, तो प्रार्थना कौन करेगा और किसकी करेगा ? जो प्रार्थना कर रहा है, वही तो भगवान् है, तो प्रार्थना किसकी होगी ? प्रार्थना नहीं हो सकती। लेकिन जा भीतर है, उसे जगायें और उठायें। और उसे उपस्थित करने के प्रयास वे करते हैं । महावीर का मार्ग भक्ति का मार्ग न होकर, ज्ञान का मार्ग है । उनका मार्ग भगवान् के लिए प्रार्थना का न हो कर, वह जो परमात्म-शक्ति प्रत्येक के भीतर प्रसुप्त है, उसको जगाने, उसे जाग्रत करने का मार्ग है। इस सूत्र को में प्राथमिक रूप से इसलिए कह रहा हू कि उसे समझे बिना महावीर का परिपूर्ण रूप, उनके व्यक्तित्व का पूरा रूप, उनका पूरा जीवन स्पष्ट नही होगा । हमने उनके भी मंदिर बनाये, उनकी भी मूर्तिया बनायी। और हमने उनको पूजा और प्रार्थना भी प्रारंभ कर दी है। और हम इस भ्राति मे है, और अनेक लोग इस भ्राति के समर्थक हैं कि उनकी पूजा और प्रार्थना से, उनकी आराधना से कल्याण होगा ! अनेक अनेक लोग इस समर्थन में प्रतीत होगे कि उनकी पूजा और प्रार्थना से कल्याण होगा । जब कि महावीर की उद्घोषणा यह है कि किसी की पूजा से और किसी की प्रार्थना से कल्याण नहीं आ सकता है। कल्याण तो आत्म-जागरण से होगा। किमी के नाम स्मरण से नही । महावीर कहने से नहीं, या अरविंद अरविंद कहने से नहीं, बल्कि उस स्थिति में उतरने से, जहा सब कहना बद हो जाता है। किसी नाम के उद्घोष से नही बल्कि उस चैतन्य मे प्रवेश करने से, जहा सब नाम छूट जाते है। किसी विचार का बार-बार आवतन करने से नहीं बल्कि उस निविचार दशा में, जहा समस्त विचार विसर्जित हो जाते है, वहा उसका दर्शन होगा, उसकी अनुभूति होगी, उसका जागरण होगा, जो प्रभु है । तो महावीर को भगवान् मानकर जो हम चल पडते है, उसमे महावीर की प्रतिष्ठा और सम्मान नहीं, उसमे हमारा अज्ञान और नासमझी है। उससे उनका सम्मान नही, हमारा अज्ञान और हमारी कमजोरी और हमारी असहाय, हमारी हीनता की धारणा है। प्रत्येक व्यक्ति इतना हीन अनुभव करता है कि बिना किसी के कल्याण किये, मेरा कल्याण कैसे होगा। सारे जगत में, सारे लोगो में ईश्वर की जो सहायक की तरह धारणा विकसित हुई है, उसके पीछे मनुष्य के मन मे छिपी हीनता और दुर्बलता है। हमे लगता है, हम इतने कमजोर, हम इतने होन-हम अपने से कैसे मानन्द को, मोक्ष को, ज्ञान को उपलब्ध हो सकते है ? तो कोई सहारा चाहिए, कोई पथ दृष्टा चाहिए। कोई हाथ चाहिए, जो हमें आगे बढाये । महावीर की काति इसी बात में है कि वह कहते हैं, कि कोई हाथ ऐसा नही है, जो तुम्हे आगे बढाये । और उसी काल्पनिक हाथ की प्रतीक्षा में जीवन को व्यय मत कर लेना । कोई सहारा नहीं है सिवाय उसके, जो तुम्हारे भीतर है और जो तुम हो। कोई भौर सुरक्षा नहीं है, कोई और हाथ नहीं है, जो तुम्हे उठा ले जाय । सिवाय उस शक्ति के जो तुम्हारे भीतर है, अगर तुम उसे उठा दो। महावीर ने समस्त सहारे छोड़ दिये। महावीर ने समस्त सहारो की धारणा तोड दी । और व्यक्ति को पहली दफा उसकी परम गरिमा मे औौर महिमा मे स्थापित किया है । और यह मान लिया है कि व्यक्ति अपने ही भीतर इतना समर्थ है, इतना शक्तिशाली है - यदि अपनी समस्त बिखरी हुई शक्तियों को इकट्ठा करे और अपने समस्त सोये हुए चैतन्य को जगाये, तो अपनी परिपूर्ण चेतन और जागरण की अवस्था मे, वह स्वयं परमात्मा हो जाता है। व्यक्ति के भीतर हीनता, असहाय अवस्था के बोध का विसर्जन महावीर को समझने का पहला चरण है । वे कोई सहारा, कोई काल्पनिक सहारा नही देना चाहते । यह अद्भुत क्रांति की बात है। यह प्रद्भुत काति की बात है कि महावीर कहते हैं, 'मुझे भी पकड़ो मत'। मै भी तुमसे बाहर हू, मैं भी तुमसे अन्य हूँ, मैं भी तुम्हारी आत्मा नहीं हू । ससार भी बाहर है, तीर्थंकर भी बाहर हैं। पकड़ो मत बाहर कुछ। बाहर सारी पकड छोड दो। जब बाहर की कोई भी पकडन होगी, तो भीतर उसका जागरण होगा, उसका दर्शन होगा, जो बाहर चीजो के पकड़ लेने के कारण दिखायी नही पड़ता है। जो बाहर की चीजो से छिप जाता, आवृत्त हो जाता है, उसकी अनुभूति होगी । यह अद्भुत क्रांति की बात है कि कोई शास्ता, कोई गुरु यह कहे कि मुझे भी छोड़ दो । आमतौर से गुरु कहेगा, मुझे पकडो, मेरा अनुशरण करो, मैं हू मार्ग मेरी शरण आओ, मैं हू सब कुछ। मैं तुम्हे पार कर दूंगा, मैं तुम्हे द्वार दिखा दूंगा सत्य का ! मैं तुम्हे परमात्मा तक पहुंचा दूगा। आमतौर से गुरु कहेमा, मैं सब कुछ हूं, मुझे स्वीकार करो। तुम नही स्वीकार करते हो, वही कमजोरी है। पूरी तरह स्वीकार करो। महावीर बड़े
उल्टे व्यक्ति मालूम होते हैं। वह कहते हैं, मुझे भी छोड़ दो। दुनिया में वैसा गुरु खोजना कठिन है, जो कहे मुझे भी छोड़ दो। मेरा अनुशरण मत करो, क्योकि मैं भी बाहर हू । अपनी ही आत्मा का अनुशरण करो। अगर मैं आपसे कहू, मेरा अनुकरण करो, तो मेरे पीछे आप चलेंगे। यह चलना बाहर चलता है । क्योकि किसी अन्य का अनुकरण करते हैं। महावीर कहते है, बाहर किसी का अनुगमन नही करना है। बाहर के सब रास्ते ससार मे ले जायेगे । किसी का अनुगमन नहीं करना, अपनी ही आत्मा का अनुशरण करना । किसी के शरण में नहीं जाना, आत्म-शरण बनना । महावीर की साधना अशरण की साधना है। किसी की शरण नहीं जाना, अपनी शरण में आना है। इस भौतिक क्रातिकारी बिन्दु को समझ लेना जरूरी है। इसको समझ कर, फिर महावीर की साधना की क्राति समझ मे आ सकती है । तो मैं पहली बात आपको कहू, महावीर को भगवान् के रूप में स्थापित करके, हम महावीर के साथ अन्याय कर रहे हैं। महावीर नहीं चाहते कि उन्हे भगवान् की तरह स्थापित करो। महावीर चाहते है कि तुम अनुभव करो कि तुम भगवान् हो । महावीर चाहते हैं, उन्हें परमात्मा की तरह न पूजो-तुम अनुभव करो कि तुम्हारे भीतर परमात्मा मौजूद है । मनुष्य की अन्तरात्मा ही परिशुद्ध होकर परमात्मा हो जाती है - यह उनका सदेश है । यदि ठीक से दिखायी पड़े, कि हमारे भीतर कौन सी चीज है, कि जिसे हम परमात्मा कह सके ? जिस देह को हम जानते है, उस देह मे तो कोई परमात्मा जैसा नही है । जिस मन को हम जानते है, उसमे तो कोई परमात्मा जैसा नहीं है। देह् तो बिलकुल पशु है। देह मे क्या है, जो परमात्मा हो ? देह मे तो सभी कुछ पशु है । एक मनुष्य की देह मे और पशु की देह मे कोई भेद नहीं है। देह के अन्दर वही है, जा पशु के अन्दर है। देह की दृष्टि से आप, पशु से- कोई भी पशु से भिन्न नहीं हैं। अगर हम अपने को देह ही मात्र समझे हैं, अगर शरीर मात्र हैं, तो पशु हैं। तो देह में तो कोई परमात्मा नहीं हो सकता। मन में शायद परमात्मा हो। मन को थोडा खोजें तो वहा भी पायेंगे, वहां तो पशु से भी बदतर कोई मौजूद है। इस जगत मे कोई पशु उतना से बदतर नहीं है, जितना मनुष्य का मन है। कितना पाप, कितनी घृणा, कितना द्वेष, कितनी हिंसा उसके मन में परिव्याप्त है । एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक ने कहा है कि अगर प्रत्येक व्यक्ति के मन का सारा लेखा-जोखा इकठ्ठा किया जा सके, तो ऐसा आदमी पाना कठिन होगा, जो अपनी जिन्दगी में अनेक लोगो की हत्या के विचार नहीं करता है। ऐसा आदमी पाना कठिन होगा, जो बड़े-बड़े डाके अपने मन में नही डालता। ऐसा व्यक्ति पाना कठिन होगा, जो अनेक रूपो में व्यभिचार की कल्पना और योजना नही बनाता। वहा मन मे, एक दो पापी नही, अनेक पापी जैसे इकट्ठे हैं। मन भी परमात्मा नहीं हो सकता है । मह, महावीर कहते हैं कि तुम्हारे भीतर परमात्मा है। वह कहा होगा ? यह देह तो पशु है । इसके भीतर जो मन है, वह भौर भी पशु से बदतर है । इस देह और मन, दोनो मे परमात्मा नही हो सकता । लेकिन हमारा जानना, हमारा पहचानना, हमारा बोध हमारे शरीर और मन के बाहर है। हम अपने शरीर को जानते हैं। इनके पीछे भी किसी का तो अन्तर्दर्शन नहीं होता है। उस अन्तर्दर्शन को उपलब्ध हुए बिना, जो शरीर और मन के पीछे है, कोई व्यक्ति इस सत्य को नहीं समझ सकेगा कि हमारे भीतर परमात्मा है। मैं किसी से कहू, तुम्हारे भीतर परमात्मा है, तो बात बड़ी भयावनी भर होती है। ऐसा हमारा जानना नहीं है । सी इ एम जोड पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक ने लिखा है, मैं सुनता पूरब के लोग कहते है, प्रत्येक के भीतर परमात्मा है ! मैं अपने भीतर झाकता हूँ तो सिवाय पशु के, किसी को भी नहीं पाता हू । फ्रायड ने भी वही अनुभव लिये है, वही निष्कर्ष लिये हैं कि मनुष्य के भीतर पशु के सिवाय और कोई भी नहीं है। अभी यह जितना काम हो रहा है मन के ऊपर, उसका अनुभव यह है कि आप बहुत धोखे मे है । मन में कोई परमात्मा जैसी चीज नहीं हैं। वहां परमात्मा की झलक भी नहीं है। अगर आधा घण्टा अपने चित्त मे चलते हुए चेतन अचेतन विचारों की पर्तों को निरखे, उनका निरीक्षण करें, उनका अब्जर्वेशन करें, तो बहुत घबड़ा जायेगे, बहुत तिलमिला जायेंगे, बहुत डर मालूम पड़ेगा, बहुत नर्क मालूम पड़ेगा कि यह मेरे भीतर क्या है ? यही मैं हू, यही मेरा होना है, यही मेरी सत्ता है। बहुत घबडाहट मालूम होगी, और उसी घबड़ाहट के कारण हममें से कोई भीतर जाना नही चाहता है । लाख कोई कहे अपने को जानो - अपने को अपने को हम जानना नहीं चाहते, हम अपने को जानने से बचना चाहते हैं। हम चौबीस घंटे ऐसे उपाय कर रहे हैं कि अपने से कही मिलना न हो जाय । कही एनकाउण्टर न हो जाय, मुलाकात न हो जाय । हम उसको भुलाने के हर उपाय कर रहे हैं। हमारे मनोरजन, हमारी हंसी-खुशी, हमारे आमोद प्रमोद उसको भुलाने के हैं। हमारे नशे उसको भुलाने के हैं। स
ंगीत में सेक्स मे, शराब में, हम उसको भुलाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन उस भीतर मे देखा है अपने को, जाग जागकर । जब तक जागते हैं, भुलाये रखते हैं। फिर सो जाते हैं, फिर उठते हैं, फिर बैठ जाते है । खाली आपको अगर छोड दे, भाप बहुत तिलमिलायेंगे, बहुत घबडायेंगे। यह बहुत अजीब सो बात है । अगर एक महीने आपको कोई पलायन का, एस्केप का अपने से, मौका नहीं दिया जाय, तो आप पागल हो जायेंगे। एक ऐसी घटना हुई है । इजिप्ट एक बादशाह हुआ था। एक फकीर ने उस बादशाह से कहा कि तुम सोचते हो कि तुम बहुत समझदार हो । तुम बहुत अज्ञानी हो । तुम सोचते हो कि आत्म-ज्ञान की बाते करते हो । तुम अपने भीतर जाने से डरते हो । उस फकीर ने कहा, अगर एक ही मिनट तुम्हे बद कर दू तो एक मिनट में पागल हो जाओगे । अगर आपको मौका न दे अपने से बाहर भागने का, किन्ही कामो मे अपने को आक्युपाइड कर लेने का, व्यस्त कर लेने का, उलझा लेने का, और आपको बार-बार अपने को देखना पडे, तो आप विक्षिप्त हो जाओगे । बादशाह बोला, अजीब सी बात है। में प्रयोग करके देखूंगा । एक भला-चगा आदमी, जो उसके द्वार से रोज निकलता था सांझ को काम करके - भरा पूरा परिवार था, पत्नी थी, बच्चे थे, खुश नजर आता था--सुबह दफ्तर जाना, साझ लौट आना। तो उसने एक शाम को उस लोटते आदमी को मार्ग से पक्डवाकर बुला लिया। उससे कहा कि तुम्हे महीने भर हम बद करते है । कोई कसूर नहीं है, एक प्रयोग के लिए बन्द करते है। उसके घर खबर पहुंचा दी । फिर उसकी पत्नी को कहलाया कि हमने आपके पति को बंद कर दिया है, चबड़ाना मत, सब खर्च मिलेगा राज्य से और महीने भर बाद उसे छोड़ देंगे। उस आदमी को महीने भर बद रखा। वह एक दो दिन चिल्लाता रहा, मुझे क्यो बद कर रहे हैं, क्यों बद कर रहे हैं, मतलब क्या है आपका, मैंने कौन सा कसूर किया? कोई उत्तर उसे भी नहीं है। उसे खाना दिया गया, वह खाना उसने फेंक दिया। उसे पानी दिया गया, उसने पानी नहीं लिया। वह चिल्लाता रहा, वो दिन, ढाई दिन, फिर थक गया, फिर पानी पी लिया। फिर और थक गया, फिर खाना खा लिया। फिर और थक गया, फिर चिल्लाना भी बद कर दिया। फिर वह बैठा रहता था उस कमरे मे और उसका निरीक्षण वह बादशाह करता रहता था । दिन पर दिन बीतते चले गये। वह फिर अकेले बैठे-बैठे अपने से बातें करने लगा, जोर से बातें करना लगा। वह बातें करने लगा, अपनी पत्नी से भी बातें करने लगा, अपने बच्चो से खेलने लगा वहां । उस कमरे में न पत्नी है, न बच्चे हैं। महीना पूरा हुआ, उसकी जाच की गयी, वह आदमी पागल हो चुका था। उसे अच्छा खाना दिया जाता था, कपडे दिये जाते थे । उसे पहनने को दिया जाता था, खाना दिया जाता था, सब सुविधा थी, प्रसुविधा कोई भी न थी । लेकिन अपने से भागने का कोई उपाय नहीं दिया गया। न कोई किताब थी, न कोई अखबार था, न कोई रेडियो, न कोई मित्र, न कोई और रास्ते, जहा वह अपने को भुलाये रखे । चौबीस घण्टे उसे अपने को देखना था। वहा सिवाय पशु के और कोई भी नहीं था। वहा सिवाय गलत, व्यर्थ के विचारो के और कोई भी नही था । वह विक्षिप्त हो गया। अगर आप अपने मन को देखें, तो सिवाय पागल होने के और कुछ भी नहीं है, वहां पागल मौजूद है। तो महावीर कहते है, वहा परमात्मा ही हो, तो कहा होगा ? शरीर मे परमात्मा हो नहीं सकता। यह मन है, इसमे परमात्मा नही है । महावीर कहते है, वह परमात्मा जरूर है, लेकिन शरीर को भी उस तक पहुंचने के लिए पार करना होता है। शरीर की पत के पीछे तो मन है, मन को पर्त के पीछे जाओ तो वह है, जिसे परमात्मा उन्होंने कहा है । हम अपने मकान के, जिसके तीन खण्ड है-- मेरी आत्मा, मेरा मन, मेरा शरीर - हम दो ही खण्डो मे जावन गुजार देते हैं, तीसरे खण्ड से अपरिचित रह जाते है । हम उसको दहलान मे घूम-घूम कर जीवन व्यतीत कर देते हैं, उस आतरिक तथ्य से अपरिचित रह जाते हैं, जहा हमारा वास्तविक होना है। और उससे अपरिचित व्यक्ति निश्चित दुख में पड़ा रह जाता है, निश्चित पोड़ा मे पड़ा रह जाता है। निश्चित सारे जीवन दुख को मिटाने की कोशिश करता है, लेकिन दुख को नहीं मिटा सकता है। जीवन भर सुख को पाने की चेष्टा करता है, लेकिन सुख को नहीं पा सकता। क्योकि दुख एक ही बात के कारण है, और बह यह कि वह अपने केंद्र से च्युत है। अपने केंद्र पर नहीं है, यही उसका दुख है । वह सोचता है कि वस्तुओं के न होने से वह दुख है । वह दुख नहीं है, क्योकि कितने ही वस्तुए मिल जाये, सुख नहीं आता। इस जमीन पर ऐसे लोग हुए हैं, जिनके पास सब था। खुद महावीर के पास सब था। लेकिन उस सब ने उन्हें सुख नही दिया। आज तक एक भी आदमी मनुष्य के इतिहास में नहीं हुआ, जिसने यह कहा हो कि मैंने सब पा लिया और मुझे सुख मिल गया। सब पा लिया, तब भी दुख उतना ही था, जब कि सब नही पाया था। दुख मे अन्तर नही पड़ रहा है। जो पा लिया, उससे दुख मे अन्तर नही पड़ता है। तो फिर उ
स बुनियाद मे बात दूसरी होगी । दुख का सम्बन्ध कुछ पाने से नहीं है। दुख का सबध, जो आतरिक केन्द्र है, वह सेन्टर खोजने से है । हम अपने केन्द्र पर नहीं हैं, यह हमारी पीडा है। हम अपने केन्द्र पर प्रा जाय, यह हमारा आनन्द हो जायेगा । महावीर की समस्त साधना मनुष्य को वापस केन्द्र पर कैसे लिया जाय, इसकी साधना है । दुख और पाप, और कुछ नहीं है। एक ही दुख, एक ही पाप, एक ही पीडा है कि हम अपने केन्द्र पर नहीं हैं । जो हमारा वास्तविक होना है, जो हमारा अथेटिक बीइग है, जो हमारी प्रामाणिक सत्ता है, उससे हम सबंधित नहीं हैं । हम बाहर कही घूम रहे हैं। हम अपने बाहर कही चक्कर काट रहे हैं । हम अपने से अजनबी और स्ट्रेजर हो गये है। मनुष्य के जीवन में एक ही दीवार है, वह अपने से अजनबी हो सकता है यह अजनबीपन, यह अपने को न जानना, यह अपने से परिचित न होना। समस्त धर्म इस परिचय की ओर ले जाने के मार्ग के सिवाय और कुछ भी नहीं है। कभी इस पर विचार करें, कभी इसको अनुभव करे, कभी इस सत्य का निरीक्षण करे -इस सत्य की मिस्ट्री को कि मैं अपने को जानता हू । महावीर को यही पीडा पकडी । सब उनके पास है। सब उनके पास थासारी सुविधा, सारी व्यवस्था, सारी समृद्धि । एक ही पीडा थी -खुद अपने पास नही थे। सब उनके पास था, स्वयं अपने पास नहीं थे। सब उनको उपलब्ध था, स्वयं की सत्ता अनुपस्थित थी। सब की जीत हो गयी थी, लेकिन स्वयं अनजीता था। सब उन्होंने जान लिया था, एक केन्द्र अनजाना और अपरिचित था। जब सबको जानकर भी कुछ न मिला, जब सबको पाकर भी कुछ न मिला, जब सबको जीतकर भी शांति न मिली, तो स्वाभाविक था कि यह विचार उढे कि जो अनजीता एक बिन्दु है, शायद आनन्द और शांति का केन्द्र वहीं हो । अगर मैं इस घर में सारे कोने कोने को तलाश लू और मुझे प्रकाश न मिले, तो शायद मैं सोचूं कि जो कोना अनजाना, अपरिचित रह गया, उसे और खोज लू । जो सब पा लिया -- उसे अनुभव हुआ कि सब पाने में मानन्द नही मिला । शायद जो मैं स्वयं अपने को अनपाया छोड़ दिया, उसे पाने मे आनन्द हो। और जिन लोगों ने उस स्वय को जानने की कोशिश की, उनको अनुभव हुआ, आनन्द वहा था। मानन्द पाना था, आनन्द वहाँ मौजूद था। केवल उद्घाटन करना था। आनन्द खोजना नही था, आनन्द स्वभाव था। क्योकि बस्त्र, आवरण अलग करने थे। मैं एक कुए को खुदते देखता था। मिट्टी की पर्ते अलग की गयी और नीचे से पानी के झरने भा गये। पानी वहा मौजूद था। मिट्टी से आवृत्त था। पानी लाया नही गया, केवल ऊपर के आवरण अलग किये गये, नोचे झरने फूट पडे । ये झरने फूट पडने को बहुत उत्सुक थे । मिट्टी हटी नही कि उन्होने फूटना शुरू कर दिया। वे बह पड़ने को प्राकाक्षा से भरे बन्द पड़े थे । मिट्टी हटी नहीं और वे बहने लगे । वैसा ही हमारे भीतर आनन्द उपस्थिण हैं। क्योकि आवृत्त मिट्टी के थोडे से आवरण अलग करने हैं। थोड़े से ऊपर जो आवरण हैं, उनको भलग करने है । और यह भी मैं कहता हूँ कि यह जो महावीर ने कहा, बुद्ध ने क्राइस्ट ने, कृष्ण ने कहा -- यह जो कहा भीतर--बहा ज्ञान, अनत ज्ञान, अनत शक्ति, मनत आनंद मौजूद है। शक्ति का आनंद वहां मौजूद है, केवल आवरण अलग करने हैं । यह कोई सिद्धान्त नहीं है, यह कोई विचार नहीं है, यह अनुभूति है । इसे करके जाना है। इस भाति अपने आवरण को उठाकर सच्चिदानंद को अनुभव किया है। उसकी अनुभूति को दूसरे लोग न भी देख सके हो, तो भी अनुभूति से फैली हुई सुगन्ध को दूसरे लोगो ने भी अनुभव किया है। महावीर को देखकर लाखो लोगो ने अनुभव किया है। कुछ हो गया है इस आदमी मे, जो हममे नही हुआ है। कोई आनन्द इसमे प्रकीर्ण हो गया है, कोई शान्ति इसमे भविर्भूत हो गयी है। किसी दूसरे तल पर, किसी दूसरे डायमेंशन में किसी दूसरे आयाम मे --- किसी दूसरे आकाश का पानी हो गया है। उसकी सुगन्ध, उसका संगीत, उसकी जीवन से फैलती हुई किरणें अनेको को अनुभव हुई हैं। उसके सत्य को नही अनुभव किया जा सकता, लेकिन उसको सुगन्ध का अनुभव किया जा सकता है। इस जमीन पर अब तक, जब भी किसी ने आनंद पाया है --अपने से बाहर नही, भीतर पाया है । मैं एक छोटी सी कहानी पढ़ता था, एक बडी मीठी कहानी पढता था । एक सूफी फकीर स्त्री हुई। वह अपने घर के भीतर कपडे सीती थी । साझ थी, अधेरा घना हो रहा था। घर में प्रकाश न था, गरीब थी । वह सुई को खोजती हुई बाहर दहलान मे आ गयी । वहा थोडा थोडा प्रकाश पडता था । सूरज आखिरी डूब रहा था। वहा अब भी थोडी रोशनी थी। करीब के पडोसी ने पूछा, क्या गुम गया है ? उसने कहा, मेरी सुई गुम गयी है। उसने पूछा, यह पता चले कि वह कहा गुम गयी है, तो हम उसको ढूंढे । तो उस बूढ़ी स्त्री ने कहा, यह मत पूछो, मेरे दुख को मत छेडो, मेरे घाव को मत छुओ। यह मत पूछो कि कहा गुमी है। खोजो, मिल जाय तो ठीक । वह बोला, यह बड़ा कठिन है, सुई है छोटी, पर यह पता न हो कि कहा गुमी है, तो कहा
खोजा जा सकता उस स्त्री ने कहा, बडी तकलीफ है, सुई जहा गुमी है, वहा प्रकाश ही नही है । और जहां प्रकाश है, वहा सुई मेरी गिरी नहीं है। मेरी सुई भीतर गिरी है, लेकिन वहा प्रकाश ही नहीं है। यहा प्रकाश है, इसलिए यहा खोजती हू, क्योकि प्रकाश में खोजा जा सकता है । मनुष्य के साथ भी यही दुर्घटना हुई है। हमारी प्रा बाहर देखती है। हमारे हाथ बाहर फैलते हैं। हमारे कान बाहर हैं। हमारी समस्त इद्रियों का प्रकाश बाहर है। इसलिए हम बाहर खोज रहे है। लेकिन कभी यह पूछा कि गुमा कहा है, किसको खोज रहे है ? अज्ञानी ढूंढ रहे है, मगर वे खोज रहे हैं बिना पूछे कि गुमा कहा है। हम मारे लोग आनंद को खोज रहे हैं बिना यह पूछे कि गुमा कहा है । हम सारे लोग आनन्द को खोज रहे हैं । इस जगत मे और कोई कुछ भी नहीं खोज रहा है। कोई कुछ नहीं खोज रहा है। वह मूलत मानन्द को खोज रहा है। जिसने बिना यह पूछे कि यह आनंद गुमा कहा है-- जिसकी तलाश है, उसे खोया कहाँ है ? निश्चित ही अगर उसे खोया न हो, तो तलाश ही नहीं हो मकती, क्योंकि उससे परिचय ही नहीं हो सकता है। मैं आपको कहूं, हम आनन्द की तलाश कर रहे हैं। यह इस बात की सूचना है कि हम आनन्द को खोये हैं। क्योकि जिसको खोया न हो, उसकी तलाश नहीं हो सकती है। जिससे परिचय न हो, जिसकी कहीं स्मृति न हो, उसको खोजा नहीं जा सकता । सारे लोग आनन्द की खोज रहे हैं, बिना इस बात को पूछे कि खोया कहा है ! और जब तक हम यह न पूछें कि खोया कहा है, तब तक खोज सार्थक नहीं हो सकती है, मिलना नहीं हो सकता है। यह पूछ ले कि खोया कहा है। और इसके पहले कि दूसरे के घर में खोजने जायं, उससे बेहतर है कि अपने घर में खोज ले। इसके पहले कि दूसरे से पूछने जाय, इससे पहले कि जिसे जमीन पर खोजने निकले, क्या यह योग्य और उचित नहीं है कि अपने घर में पहले तलाश कर ले । बहां न मिले तो फिर दुनिया मे खोजने जाय । हम अजीब लोग हैं, हम दुनिया मे खोजेंगे, और जब दुनिया में नहीं मिलेगा तो अपने मे खोजेगे । दुनिया बहुत बड़ी है और जीवन बहुत छोटा है। अनन्तअनन्त जीवन भी बाहर खोजे, तो दुनिया का अन्त नही । हमारे अनत जीवन नष्ट हो जायेंगे । क्या यह बात सीधी सी गणित की नहीं है कि इसके पहले कि मैं एक विराट दुनिया मे खोजने जाऊ, इस छोटे से अपने घर में खोज लू । अगर वहा न मिले, तो फिर खोजने बाहर निकल जाऊ । महावीर उसी चिन्तन से अपने भीतर खोजने गये। नही पहले दुनिया मे खोजा । सोचा पहले अपने भीतर जान ले, अगर वहा हो तो ठीक, नही तो फिर और कही चले जायेगे। और जिन लोगो ने भी इस चिन्तन का उपयोग किया, अपने ही भीतर खोजा, उन में से कोई फिर बाहर खोजने नहीं गया। आज तक ऐसा नहीं हुआ है कि किसी ने भीतर खोजा हो और फिर बाहर खोजने गया हो । ऐसा आज तक हमेशा हुआ कि जिन्होने बाहर खोजा, वे एक न एक दिन भीतर खोजने गये । लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि जिसने भीतर खोजा हो, वह फिर बाहर भो खोजने गया हो। ऐसा हमेशा हुआ है कि जिन्होंने बाहर बहुत खोजा, एक दिन उन्हे भीतर खोजने जाना पड़ा। ऐसा आज तक नही हुआ कि जिन्होंने भोतर खोजा, वे फिर कभी बाहर खोजने गये । जिन्होने भीतर झाका, उन्होंने पा लिया। भीतर कुछ है। भीतर कुछ अद्भुत विराजमान है। भीतर कुछ हमारा सोया है। और मैं आपको कहू, सच भी है, कभी अपने जीवन का भी विचार करे, तो सत्य की अन्तर- झलके मिलनी शुरू हो जायेंगी। मैं आपसे पूछू, आप दुख चाहते क्यो नहीं हैं ? आप आनन्द क्यो चाहते हैं ? इस जमीन पर कोई भी दुख क्यो नहीं चाहता है ? महाबीर ने कहा है, कोई भी ने दुख नहीं चाहता। क्यो नहीं चाहता, कभी भी पूछा ? हम दुख नहीं चाहते, लोग भी दुख नहीं चाहते, लेकिन क्यो लोग नहीं चाहते। बडी अजीब बात है, हम जीवन भर दुख नहीं चाहते, लेकिन यह नहीं पूछते कि हम क्यो दुख नहीं चाहते ? अगर यह पूछें तो एक अद्भुत उत्तर आपको ज्ञात होगा। अगर भाप दुख नही चाहते हैं तो उसका अर्थ यह हुआ कि दुख विजातीय है, दुख फॉरेन है। आपके स्वरूप के विपरीत है, इसलिए नहीं चाहते हैं। मेरा स्वरूप कही न कही आनन्द होगा, इसलिए दुख को नहीं चाहते। अन्यथा दुख की न-चाह पैदा न होती । दुख को न चाहने का अर्थ है कि भीतर कही आपका स्वरूप आनन्द है, इसलिए दुख नहीं चाहते। सच तो यह है कि अगर आपका स्वरूप दुख होता, तो दुख का आपको पता भी नहीं चल सकता था। अगर मेरा स्वरूप दुख होता तो मुझे दुख का पता नहीं चल सकता था। बल्कि जब दुख आता, तो मैं और प्रेम से उसे ग्रहण कर लेता । वह तो मेरे स्वरूप को और समृद्ध करता । लेकिन कोई दुख को ग्रहण नहीं करना चाहता है। यह इस बात की सूचना है कि दुख स्वरूप को समृद्ध नहीं करता है, दुख स्वरूप को बढाता नही है । दुख स्वरूप के विपरीत है, अनुकूल नही । अगर दुख स्वरूप के विपरीत है, तो स्वरूप आनन्द होगा । हम आनन्द को चाहते हैं, क्योकि हमारा स्वरूप आनंद है । हममे से कोई